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आरटीआइ की कुंद होती धार- चंदन श्रीवास्तव

सूचना के अधिकार को कानून बनानेवाले विधेयक पर राष्ट्रपति के दस्तखत 2005 में 15 जून को हुए थे, पर राज्यसभा ने इसे मंजूरी 12 मई को दे दी थी. चूंकि कानून इस मई महीने में अपने मौजूदा स्वरूप का दसवां साल पूरा कर रहा है, तो पूछा जाना चाहिए कि लोगों के हाथ इस कानून से कितने मजबूत हुए.

इस कानून के अमल को लेकर मौजूदा केंद्र सरकार की गंभीरता का अंदाजा इससे लगा सकते हैं कि मुख्य सूचना आयुक्त का पद बीते अगस्त से खाली पड़ा है. आरटीआइ के प्रति जहां तक राज्य सरकारों की गंभीरता के आकलन सवाल है, बेहतर होगा कि प्रदेशों में कायम सूचना आयोग के कामकाज पर नजर रखी जाये.

तथ्य कहते हैं कि अगर आरटीआइ की आपकी अर्जी मध्य प्रदेश सूचना आयोग में लंबित है, तो फिर मामलों के निस्तारण की मौजूदा दर के हिसाब से प्रदेश के आयोग को आपकी अर्जी का निबटारा करने में साठ साल लग जायेंगे. और, अगर आपकी अर्जी पश्चिम बंगाल के सूचना आयोग के पास है, तो उसके निपटारे में कम-से-कम 17 साल लगेंगे. बीते साल अक्तूबर में पीपुल्स मॉनीटरिंग ऑफ आरटीआइ रेजीम इन इंडिया नाम से शोध-अध्ययन प्रकाशित हुआ था. इसी शोध के जरिये ये तथ्य लोगों के सामने आये.

शोध का एक निष्कर्ष यह है कि प्रथम अपील की अर्जी अगर केंद्र सरकार से संबंधित न हुई, तो महज 4 प्रतिशत मामलों में ही ऐसी संभावना है कि मांगी गयी सूचना का जवाब मिल जाये! आरटीआइ की अर्जियों के निपटारे में विलंब का एक बड़ा कारण कुछेक आयोगों में सूचना आयुक्तों की संख्या में कमी है. इस शोध के अनुसार, द्वितीय अपील के निस्तारण के बारे में कानूनी तौर पर अवधि तय नहीं की गयी है.

इस वजह से ‘सूचना आयुक्त अपील के निस्तारण में हो रही देरी को लेकर विशेष चिंतित नहीं होते और आवेदक मामले को अदालत में भी नहीं ले जा पाता.' इस देरी की वजह सिर्फ सूचना आयोग तक ही सीमित नहीं है, यह एकदम निचले स्तर पर होती है. शोध तथ्यों के अनुसार, लगभग 45 प्रतिशत जन सूचना अधिकारियों (पीआइओ) को सूचना के अधिकार अधिनियम के बारे में कोई प्रशिक्षण प्राप्त नहीं है.

आरटीआइ के तहत लगायी गयी अर्जियों में 70 प्रतिशत संख्या ऐसी अर्जियों की होती है, जिनमें मांगी गयी सूचना संस्थान को स्वयं ही सार्वजनिक करनी चाहिए.

जो सूचना बिन मांगे मिलनी चाहिए उसे हासिल करने के लिए अर्जी लगानी पड़े और तब भी नियत समय पर जवाब मिलने की कोई गारंटी न हो, तो फिर यही कहा जायेगा कि दस वर्षो के भीतर सूचना के अधिकार कानून को हमारी सरकारों ने असरदार बनाने का नहीं, बल्कि कुंद करने का काम किया है. एनडीए सरकार ने भी इस कानून को कुंद करने के लिए नये सिरे से तैयारी शुरू कर दी है.

सूचना के अधिकार कानून का मुख्य उद्देश्य भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाना और सरकार तथा उसकी संस्थाओं को जनता के प्रति जवाबदेह बनाना है. इन दो उद्देश्यों को पूरा करने में आरटीआइ कारगर सिद्ध हो, इसके लिए ह्विसिल ब्लोअर्स प्रोटेक्शन विधेयक पारित हुआ था.

अधिनियम में किसी सरकारी संस्था में होनेवाले गैरकानूनी या अनैतिक कार्यो की किसी कर्मचारी, भागीदार या सरकारी दायरे से बाहर के किसी अन्य नागरिक अथवा संगठन के द्वारा सूचना का खुलासा करने को ह्विसिल ब्लोइंग कहलाता है. इंजीनियर सत्येंद्र दुबे की हत्या के बाद सुप्रीम कोर्ट ने निर्देश दिया था कि भ्रष्टाचार का खुलासा करनेवाले लोगों की शिकायतों पर कार्रवाई करने के लिए एक प्रभावी तंत्र की व्यवस्था की जानी चाहिए. ऐसी ही सिफारिश विधि आयोग की भी थी.

भ्रष्टाचार की समाप्ति के वादे से बनी केंद्र सरकार इस अधिनियम में संशोधन करना चाहती है. मूल अधिनियम में कहा गया है कि अगर कोई मंत्री या अधिकारी के भ्रष्टाचार का खुलासा करता है, तो उसके इस कृत्य को सरकारी गोपनीयता कानून का उल्लंघन नहीं माना जायेगा. अब सरकार भ्रष्टाचार का खुलासा करनेवाले को मिली यह सुरक्षा हटा लेना चाहती है.

संशोधन अगर स्वीकार कर लिया जाता है, तो फिर सत्येंद्र दुबे जैसा कोई अधिकारी या फिर आरटीआइ कार्यकर्ता सरकारी गोपनीयता कानून के उल्लंघन के डर से भ्रष्टाचार का खुलासा नहीं कर सकेगा.

संशोधनों में यह बात भी कही गयी है कि आरटीआइ कानून के तहत जिस सूचना को देने से इनकार किया जा सकता है, उन सूचनाओं को कोई ह्विसिल ब्लोअर सार्वजनिक नहीं कर सकता.

इसका एक मतलब यह भी हुआ कि विकासवादी सरकार विदेश-संबंध जैसे हथियारों की खरीद या फिर घरेलू व्यापार, जैसे प्राकृतिक संसाधनों के आवंटन से संबंधित किसी भी सूचना को राष्ट्रीय हित में संवेदनशील सूचना करार दे सकती है और ठीक इसी आधार पर उससे जुड़े किसी भी भ्रष्टाचार का खुलासा करनेवाले को दंडित कर सकती है.