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आर्थिक असमानता लोगों को मजबूर कर रही है कि वे बीमार तो हों पर इलाज न करा पाएं- सचिन जैन

दुनिया में जितनी आर्थिक और संसाधनों की असमानता बढ़ी है, उसमें सबसे ऊंचा स्थान भारत का है. विश्व असमानता रिपोर्ट (वर्ल्ड इनइक्वालिटी रिपोर्ट 2018) के अनुसार, चीन में 1 प्रतिशत संपन्न लोगों के नियंत्रण में 13.19 प्रतिशत संपदा, जर्मनी में 13 प्रतिशत, फ्रांस में 10.8 प्रतिशत और अमेरिका में 15.7 प्रतिशत संपदा थी; जबकि भारत में 1 प्रतिशत लोगों के नियंत्रण में 22 प्रतिशत संपदा जा चुकी है.

यह महज़ आंकड़ों या अर्थशास्त्र का तकनीकी विषय नहीं है; यह आर्थिक असमानता महिलाओं और बच्चों के जीवन पर बहुत गहरा असर डालती है.

सबसे विपन्न तबकों में बाल मृत्यु दर और कुपोषण के स्तर को देखते हुए, यह समझ लेना होगा कि लोक सेवाओं और अधिकारों के संरक्षण के बिना न तो ग़ैर-बराबरी ख़त्म की जा सकेगी, न ही भुखमरी, कुपोषण और बाल मृत्यु को सीमित करने के लक्ष्यों को हासिल किया जा सकेगा.

सामाजिक असमानता के असर
प्राथमिक तौर पर जब हम शहरी और ग्रामीण क्षेत्रों के विभाजन को आधार बनाकर राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण (चक्र-4) का विश्लेषण करते हैं, तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि ग्रामीण क्षेत्रों में कुपोषण और अल्प-पोषण की स्थिति में अंतर है.

शहरी क्षेत्रों में 31 प्रतिशत बच्चे ठिगनेपन के शिकार हैं, तो वहीं ग्रामीण क्षेत्रों में 41.2 प्रतिशत बच्चे वृद्धिबाधित कुपोषण के शिकार हैं.

इसी तरह अल्प-पोषण में भी थोड़ा अंतर दिखाई देता है. शहरी क्षेत्रों में 19.9 प्रतिशत तो ग्रामीण क्षेत्रों में 21.4 प्रतिशत बच्चे अल्प-पोषण के शिकार हैं. कम वज़न के कुपोषण में यह अंतर बड़ा है. शहरी क्षेत्रों में 29.1 प्रतिशत तो ग्रामीण क्षेत्रों में 38.2 प्रतिशत बच्चे कम वज़न के हैं.

सामाजिक समूहों को आधार बनाकर देखने पर पता चलता है कि भारत में 43.8 प्रतिशत आदिवासी बच्चे और 42.8 प्रतिशत दलित बच्चे वृद्धिबाधित कुपोषण (ठिगनापन) के शिकार हैं, किन्तु सामाजिक और आर्थिक रूप से बेहद संपन्न माने जाने वाले जैन समुदाय में 19.1 प्रतिशत बच्चे ठिगनेपन के शिकार हैं.

इसी तरह जैन समुदाय से संबंधित 28.8 प्रतिशत बच्चे कम वज़न के हैं, तो आदिवासी समुदाय के 45.3 प्रतिशत और दलित समुदाय के 39.1 प्रतिशत बच्चे कम वज़न के शिकार हैं.

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