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आर्थिक आतंकियों को मिले सजा-- तरुण विजय

नीरव मोदी हों या मेहुल चौकसी, विजय माल्या हों या कोई और, एक ऐसे समय में जब देश किसान, मजदूर, महिलाओं के आर्थिक सशक्तिकरण की बात कर रहा है और सीमाओं पर हमारे सैनिक हर दिन खून की होली खेलते हुए मातृ-भूमि की रक्षा कर रहे हैं, उस समय देश से छल कर हजारों करोड़ के घोटाले करनेवाले वस्तुत: आर्थिक अपराधी नहीं, आर्थिक आतंकवादी हैं, जिन्हें वही सजा मिलनी चाहिए, जो एक देशद्रोही या आतंकवादी को दी जाती है.

यह संतोष की बात होनी चाहिए कि केंद्र सरकार ने इन घोटालेबाजों के विरुद्ध त्वरित कार्रवाई की, उनके संस्थान बंद किये, संपत्ति जब्त की, बड़े कारकूनों को गिरफ्तार किया और उम्मीद है कि पैसा भी वापस आयेगा तथा गुनाह की कड़ी सजा भी मिलेगी.

पर सामान्य व्यक्ति को यह भरोसा दिलाना कठिन है कि ऐसे लोगों को वापस कानून के शिकंजे में कसा जा सकेगा. बाजार में लोग कहते हैं- 'अरे साहब, ये लोग बड़े माहिर हैं, कोई तो रास्ता निकाल ही लेंगे.' या 'कौन सा कानून? कैसा कानून? चालीस साल लगा देंगे फैसला देने में. यह न्याय प्रणाली गरीब को तुरंत सजा देती है, अमीरों को बहुत रास्ते मालूम हैं.'

जिस देश में बैंक के छोटे-छोटे कर्ज न चुका पानेवाला किसान आत्महत्या करने पर मजबूर हो जाता है, जहां किसान का बेटा किसान बनने के बजाय खुश होकर शहर में कोई मामूली नौकरी को ज्यादा बेहतर मानता है, वहां इन व्यापारी-घोटालेबाजों का यह विलास नौजवानों में क्रोध एवं बंदूक उठाकर सजा देने की कसक पैदा करेगा ही.

दुर्भाग्य से हमारे राजनेताओं तथा अफसरों का व्यवहार गरीब तथा इंसाफ के प्रति संवेदना वाला- आम तौर पर- नहीं दिखता. राजनीति में सफलता का रास्ता धन और जाति से गुजरता है- योग्यता और सादगी से नहीं. क्या आप ने कभी अपने क्षेत्र के बड़े राजनेता को परिवार के साथ बाजार में खरीदारी करते हुए, सब्जी खरीदते हुए, आम आदमी के साथ बिना किसी सुरक्षा के बतियाते हुए देखा है? ऐसे कुछ लोग होंगे अवश्य, पर वे अपवाद हैं. ज्यादातर राजनेता अतिधनी, अहंकारी, तुनकमिजाज, गुस्सैल तथा जाति के आधार पर सहायता करने या ना करनेवाले दिखते हैं. वे क्या कभी इस व्यवस्था में परिवर्तन लाने का साहस दिखा सकते हैं, जिस व्यवस्था में धन का अतिशय प्रभाव अनिवार्यत: अंतर्निहित है?

हम माओवादी-नक्सलवादी तत्वों की बात करते हैं. उनके हिंसाचार की निंदा करते हैं. उनके विरुद्ध सुरक्षा कर्मियों की कार्यवाही का समर्थन करते हैं. पर, ये नक्सलवादी अपने क्षेत्र में पैदा क्यों होते हैं? क्या सब के सब देशद्रोही और उन्मादी-पागल होते हैं? जब कानून समाज को न्याय न दे, गरीब लोग जाति और भ्रष्टाचार में डूबे अफसरों तथा नेताओं के अहंकार का शिकार हों, तो दिशाभ्रम होगा ही.

अभी हाल ही की बात है. मोदी सरकार ने विमुद्रीकरण योजना लागू की. विपक्ष लाख चिल्लाया कि यह ठीक योजना नहीं है, पर आम आदमी ने कष्ट तथा असुविधा झेलकर भी इसके खिलाफ गुस्सा नहीं किया.

क्यों? क्योंकि उसे लगा कि मोदी सरकार ने यह कदम अमीरों के भ्रष्टाचार के खिलाफ उठाया है. यह एक साहसिक कदम है. जिनको 'बड़े लाोग' कहा जाता है, ऐसे लोगों को हाथ लगाने की किसी में हिम्मत नहीं थी, पर मोदी ने यह हिम्मत कर दिखायी. इस भावना के साथ लोगों ने विमुद्रीकरण झेला ही नहीं, बल्कि उसके बाद जहां भी चुनाव हुए, भाजपा को वोट देकर उसने जिताया भी. यह है भारत का मन, जो धनपतियों के दुराचार के खिलाफ सख्त कदम उठाया जाना पसंद करता है.

गरीब भारतीय स्वाभिमानी भारतीय है. वह भी चाहता है कि उसे दो जून अच्छा भोजन मिले, अच्छा घर हो, उसके बच्चे अपना बेहतर भविष्य बनायें. पर, वह हर दिन देखता है- कलक्टर, एसपी अमीर आदमी को देखते ही उसे कुर्सी पर बिठाता है, लेकिन गरीब ग्रामीण को देखता भी नहीं है, बल्कि हिकारत से उसका काम लटकाये रखता है. नेता के घर रात दस बजे भी अमीर दोस्त की गाड़ी घुसती है, बाकी के फोन नेताजी का पीएस भी उठाता नहीं.

ऐसे माहौल में नीरव मोदी जैसे लोगों के घोटाले सामूहिक हताशा, क्रोध तथा शासन-प्रशासन-राजनीति के प्रति अविश्वास पैदा करते हैं. हो सकता है कि नीरव मोदी पैसा लौटा दे, हो सकता है कि कभी हमारी अदालतें उसे निर्दोष भी साबित कर दें (2जी मामले में क्या हुआ?) लेकिन वर्तमान बहस उस व्यक्ति के मन को व्यथित कर गयी है, जो एक श्रेष्ठ, ईमानदार, न्यायपूर्ण भारत का सपना संजोये चल रहा है.

बरसों से हमारा देश तड़प रहा है- भले, सज्जन नेताओं के लिए, जो कठोर निर्णय लें तथा किसी अपराधी को बख्शे नहीं. हम बरसों से अच्छी पुलिस, संवेदनशील और ईमानदार अधिकारी, नियमित कक्षाओं में छात्रों को पढ़ानेवाले अध्यापक तथा बिना रिश्वत दिये सरकारी कामकाज वाली व्यवस्था की प्रतीक्षा करते आ रहे हैं. क्या यह अपेक्षा बहुत ज्यादा और अकरणीय है?

जो माता-पिता अपने बच्चों को सेना में भर्ती होने भेजते हैं और अपनी आंखों से जवान बेटे की शहादत को देखकर बूढ़ा पिता अपने बच्चे की चिता को अग्नि देने के बाद भी शिकायत नहीं करता, उससे पूछकर देखिये कि वह इन घोटालों के समाचार पढ़कर क्या सोचता है?

बड़े-बड़े बंगलों तथा कई-कई एकड़ों में फैले फार्म हाउसों में रहनेवाले वे नेता क्या यह दुख महसूस कर पायेंगे, जिन्हें कभी स्वयं बिजली का बिल नहीं भरना पड़ता, रेल के टिकट की लाईन में नहीं खड़ा होना पड़ता, फसल या बच्चे की पढ़ाई के लिए बैंक से कर्ज नहीं लेना पड़ता?

नि:संदेह देश में अच्छे लोग ज्यादा हैं, भले नेता एवं प्रशासक भी हैं. पर, इतना होना भर पर्याप्त नहीं, यदि ऐसे अच्छे-भले नेता और प्रशासक सक्रियता से कठोर कदम उठाकर जनता को विश्वास न दिला सकें कि व्यवस्था को सुधारा जायेगा, शासनतंत्र को बदला जायेगा, जो सज्जन को बल देगा एवं दुर्जन को क्षमा नहीं करेगा.