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आर्थिक विषमता के बीच विकास का सच-- राजकुमार सिंह

एक और गणतंत्र दिवस के जश्न की तैयारी। विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र भारत की शक्ति और शौर्य का राजपथ पर शानदार प्रदर्शन होगा। हमेशा की तरह भारतवासी तो इसके साक्षी बनेंगे ही, अंतर्राष्ट्रीय संगठन आसियान के दस सदस्य देशों के राष्ट्र प्रमुख भी इस मौके पर खास मेहमान होंगे। बेशक स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस हमारे राष्ट्रीय पर्व हैं। हमें इन्हें समारोहपूर्वक मनाना ही चाहिए। अपनी उपलब्धियों पर गर्व भी करना चाहिए, लेकिन उतना ही जरूरी ईमानदार आत्मविश्लेषण भी है। उसी से हमें अपनी वास्तविक दशा का पता चलेगा और तभी हम सही दिशा भी तय कर पायेंगे। नकारात्मक सोच रखने वाला कोई निराश व्यक्ति ही इस बात से इनकार करेगा कि 1947 में आजाद होने और फिर 1950 में गणतंत्र बनने के बाद भारत ने प्रगति नहीं की। इसमें दो राय नहीं कि भारत का अतीत बहुत गौरवशाली रहा। नयी पीढ़ी के लिए यह जानना विस्मयकारी हो सकता है कि कभी भारत में तक्षशिला और नालंदा सरीखे अंतर्राष्ट्रीय ख्यातिप्राप्त शिक्षण संस्थान थे, जिनमें शिक्षा प्राप्त करने के लिए दूसरे देशों से भी युवा आते थे।

 

स्वाभाविक ही है कि भारतीय विद्वानों ने तब विश्व पटल पर अपनी विशिष्ट पहचान बनायी और भारत को विश्व गुरु भी माना गया, लेकिन गुलामी का लंबा दौर भी आया। किसी ने बर्बर ताकत के बल पर गुलाम बनाया तो किसी ने छल और धन बल के सहारे। कभी विश्व गुरु माने गये भारत की छवि सपेरों और बैलगाडि़यों वाले देश की बना दी गयी। सैकड़ों साल की गुलामी से आजादी का संघर्ष और फिर आत्मनिर्भर विकास का सफर निश्चय ही आसान नहीं हो सकता। आजाद भारत के सात दशक के सफर का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि बैलगाड़ियों का यह देश आज अंतरिक्ष विज्ञान में प्रौद्योगिकी के अगुआ विकसित देशों को इस हद तक चुनौती दे रहा है कि इसरो की कम लागत पर हासिल जबरदस्त सफलता से अमेरिका सरीखा देश भी ईर्ष्या करता है। जिस भारत को कभी सपेरों का देश कहा गया, आज उसी के सॉफ्टवेयर इंजीनियरों-डॉक्टरों समेत तमाम तरह के प्रोफेशनल्स की तूती पूरी दुनिया में बोल रही है। आजादी के बाद भी जो भारत खाद्यान्न के लिए आयात पर निर्भर था, आज निर्यात कर रहा है और भारतीय अर्थव्यवस्था को विश्व की तेज रफ्तार बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में शुमार किया जा रहा है। इसलिए आश्चर्य कैसा कि कल के गुलाम भारत में आज विश्व समुदाय भी नेतृत्व क्षमता देख रहा है।

 

सात दशक के सफर में ऐसी उपलब्धियां किसी भी देश के लिए गर्व का अवसर होनी चाहिए। फिर भी अगर शुरू में ही आत्मविश्लेषण की जरूरत जतायी गयी है तो उसके भी कारण हैं। 69वें गणतंत्र दिवस से तीन दिन पहले ही जारी अंतर्राष्ट्रीय अधिकार समूह ऑक्सफैम की रिपोर्ट भी इन कारणों की ओर स्पष्ट इशारा कर देती है। दावोस में वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम की शुरुआत से ठीक पहले आयी रिवार्ड वर्क, नॉट वैल्थ नामक यह रिपोर्ट बताती है कि पिछले साल यानी 2017 में ही भारत में जितना धन सृजित हुआ, उसमें से 73 प्रतिशत महज एक प्रतिशत देशवासियों के हिस्से आया। हम अकसर कहते-सुनते आये हैं कि पैसा ही पैसे को खींचता है, पर यह तो असमान वितरण की पराकाष्ठा है, जो पहले से ही चिंताजनक बनी आर्थिक विषमता की खाई को और चौड़ा ही करेगी। समृद्धि के 73 प्रतिशत हिस्से पर एक प्रतिशत आबादी का कब्जा और शेष 27 प्रतिशत में 99 प्रतिशत की हिस्सेदारी-इसे तो किसी भी नजरिये से न्याय नहीं कहा जा सकता। यह बताने की जरूरत नहीं होनी चाहिए कि यह एक प्रतिशत आबादी उद्योगपतियों और उनके खैरख्वाह राजनेताओं-नौकरशाहों की ही है।

 

कुछ लोग इसके लिए भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कोस कर खुश हो सकते हैं। बेशक मोदी की इतनी जिम्मेदारी-जवाबदेही तो बनती है कि प्रधानमंत्रित्व के साढ़े तीन साल में भी वह सबका साथ-सबका विकास के अपने नारे पर अमल की दिशा में एक भी कदम नहीं बढ़ा पाये, पर आर्थिक विषमता की यह लगातार चौड़ी होती खाई उन्हें विरासत में मिली है। यह बात पहले भी कही-लिखी जाती रही है कि आजादी के बाद हमारे हुक्मरानों ने जो विकास मॉडल चुना, वह भारत सरीखे आबादी बहुल और कृषि प्रधान देश के लिए आदर्श था ही नहीं। नतीजतन शहर केंद्रित औद्योगिकीकरण में जहां-तहां विकास के कंगूरे तो गगनचुंबी होते गये, लेकिन बहुसंख्यक भारत उस दौड़ में लगातार पिछड़ता गया। विशुद्ध राजनीतिक कारणों से आबादी नियंत्रण की जरूरत से मुंह चुराया जाता रहा, लेकिन बढ़ती आबादी की शिक्षा-स्वास्थ्य-रोजगार की जरूरतों को पूरा करने के लिए कारगर कार्ययोजना भी नहीं बनायी गयी। आबादी का बड़ा हिस्सा क्योंकि गांवों में रहता था और जीवनयापन के लिए कृषि पर निर्भर था, इसलिए शहर केंद्रित औद्योगिकीकरण के विकास मॉडल में उसके हिस्से ज्यादा कुछ नहीं आया।

 

विकास की अव्यावहारिक प्राथमिकताओं और गलत दिशा के चलते आजादी के बाद के शुरू के दशकों में ही ग्रामीण भारत और शहरी इंडिया के बीच की यह खाई गहराने लगी। कुटीर उद्योग गांवों में लगाये नहीं गये और वहां उपलब्ध चलताऊ किस्म की शिक्षा उद्योग आधारित विकास के लिए मजदूरों के अलावा कुछ तैयार नहीं कर पायी। बहुत कम लोग अपने सामर्थ्य के बल पर नजदीकी कस्बों-शहरों में बेहतर शिक्षा हासिल कर उसके आगे के सपने देख पाये तो साकार कर पाने वाले और भी कम रहे। बढ़ते परिवार और घटती कृषि भूमि से आर्थिक तंगी का दबाव झेल रहे ग्रामीण युवाओं के पास 10वीं-12वीं या फिर ग्रेजुएशन कर लेने के बाद भी रोजगार के विकल्प शहर की फैक्टरियों में मजदूरी, पुलिस-सेना में भर्ती या फिर अध्यापकी तक सीमित रह गये। दरअसल वर्ष 1991 में आर्थिक सुधारों के बाद हालात और तेजी से जटिल होते गये। ग्रामीण पृष्ठभूमि और औसत शिक्षा वाले युवाओं के लिए परंपरागत सरकारी नौकरियों की संख्या तेजी से कम हुई तो बढ़ती लागत और महंगाई के अनुपात में कृषि उपज के मूल्यों में वृद्धि न होने से खेती लगातार घाटे का काम बनती गयी। इसका परिणाम एक ओर कर्ज के जाल में फंसे अन्नदाता द्वारा आत्महत्या के रूप में सामने आया तो दूसरी ओर शहरों की ओर पलायन के रूप में। इस पलायन से शहरों पर बढ़ता बोझ कई तरह की सामाजिक विकृतियां भी पैदा कर रहा है।

 

 

यह सही है कि ज्यादातर शहर पहुंचने वालों को किसी न किसी तरह जीवनयापन लायक काम मिल जाता है, लेकिन बेलगाम बढ़ती आबादी और बेरोजगारों की लंबी होती कतारों के जारी रहते यह भी कब तक चलेगा, कोई नहीं जानता। जैसे-तैसे जीवनयापन के मौजूदा दौर में अगर आर्थिक विषमता की खाई इतनी बढ़ गयी है तो आने वाले वक्त की भयावहता की कल्पना भी डराने वाली है। कांग्रेस और मनमोहन सिंह 10 साल तक समावेशी विकास का नारा देते रहे तो भाजपा और मोदी साढ़े तीन साल से सबका साथ, सबका विकास का नारा लगा रहे हैं, जबकि विकास का सच अब ऑक्सफैम की रिपोर्ट ने उजागर कर दिया है। विकास की सामान्य समझ भी यही बताती है कि आर्थिक विषमता की लगातार बढ़ती खाई को अगर समय रहते पाटा नहीं गया तो बेलगाम आबादी, बढ़ती बेरोजगारी और फिर उसमें पनपते जघन्य अपराधों के भंवर में एक दिन विकास के कंगूरे ही नहीं, बहुत कुछ समा जायेगा।
(journalistrksingh@gmail.com)