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आर्थिक संतुलन साधने की कोशिश - सुषमा रामचंद्रन

भारतीय रिजर्व बैंक ने लगातार दूसरी बार नीतिगत ब्याज दर में इजाफा करते हुए अर्थव्यवस्था के उन अहम तत्वों को लेकर चिंताओं को रेखांकित किया है, जिनके कारण महंगाई बढ़ रही है। गौरतलब है कि पिछले कुछ समय से ब्याज दरों में गिरावट का दौर चल रहा था। लेकिन अब रिजर्व बैंक ने मौद्रिक नीति समीक्षा की पिछली लगातार दो बैठकों के बाद ब्याज दरें बढ़ाने का एलान किया। पहले जून में ब्याज दर बढ़ी और फिर इसी हफ्ते इसमें पुन: इजाफा किया गया। हालांकि यह उछाल तीव्र नहीं है और दोनों ही बार 25 आधार अंकों की बढ़ोतरी की गई, लेकिन इसके चलते रेपो दर (जिस दर पर आरबीआई बैंकों को उधार देता है) 6.50 फीसदी के स्तर तक पहुंच गई है। इसके नतीजतन बैंक भी उन ब्याज दरों को बढ़ाएंगे, जिन पर वे लोगों को कर्ज या उधार देते हैं। इसका मतलब है कि लोगों के लिए आवास, शिक्षा, कार या ऐसी अन्य निजी जरूरतों की खातिर कर्ज और महंगे हो जाएंगे। ग्राहकों के लिए कर्ज की मासिक किस्त या ईएमआई भी बढ़ जाएगी, जिससे ऐसे अनेक लोगों की मुश्किलें बढ़ेंगी, जिन्होंने मौजूदा ब्याज दरों के आधार पर अपनी दीर्घकालीन योजनाएं बनाई होंगी। दूसरी ओर यह भी है कि वरिष्ठ नागरिक जैसा तबका, जो ज्यादातर जमाओं से प्राप्त निश्चित आय पर निर्भर रहता है, उनके लिए जमाओं पर ब्याज दरें स्वत: नहीं बढ़ेंगी। यह भी अजीब है कि बैंक नीतिगत ब्याज दरों में बढ़ोतरी के मुताबिक कर्ज या उधार की दरें तो तुरंत बढ़ा देते हैं, लेकिन जमाओं पर इस बढ़ोतरी का प्रभाव अमूमन नजर नहीं आता या इसमें काफी वक्त लग जाता है। हालिया दौर में कर्ज बांटने की रफ्तार सुस्त होना और बैंकों का बढ़ता एनपीए (फंसे कर्ज) भी इसके लिए जिम्मेदार है। फिर भी बैंकों को अगले कुछ महीनों में जमाओं पर ब्याज दरों में कुछ बढ़ोतरी तो करनी ही चाहिए, ताकि उन लोगों के चेहरों पर मुस्कान आ सके, जो ब्याज की आय पर निर्भर हैं।


आखिर रिजर्व बैंक ने लगातार दूसरी बार ब्याज दरें बढ़ाने का यह कदम क्यों उठाया? इसके लिए कुछ ऐसे कारक भी जिम्मेदार हैं, जो हमारे नीति-नियंताओं को पिछले कुछ महीनों से परेशान किए हुए हैं। इसमें पहला और सर्वप्रमुख कारक है अंतरराष्ट्रीय बाजार में कच्चे तेल के दामों का सख्त बने रहना। यदि एक साल की अवधि में ही अंतराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतें 50 डॉलर प्रति बैरल से बढ़कर 80 डॉलर प्रति बैरल तक पहुंच जाएं तो उस देश की चिंताएं बढ़ाना लाजिमी है, जो अपनी जरूरतों का 80 फीसदी से ज्यादा तेल आयात करता है। तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतों में उछाल के चलते देश का आयात बिल भी तेजी से बढ़ा, जिससे राजकोषीय घाटे को निश्चित लक्ष्य तक सीमित रखना मुश्किल हो गया। हालांकि अब तक सरकार तेल आयात की लागत को घरेलू कीमतों में बढ़ोतरी के रूप में उपभोक्ताओं तक स्थानांतरित करती रही है, लेकिन रिजर्व बैंक इसे बढ़ती महंगाई का एक बड़ा कारण मानता है और ब्याज दर में इजाफे की यह एक मुख्य वजह है। पर ऐसा लगता नहीं कि ब्याज दरों में बढ़ोतरी से खास फर्क पड़ेगा, क्योंकि तेल की कीमतें तो बाहरी माहौल द्वारा नियंत्रित होती हैं। इसके अलावा, जहां तक ऊर्जा जरूरतों का सवाल है तो कीमतों में उतार-चढ़ाव से मांग में ज्यादा फर्क नहीं पड़ता।


इसका दूसरा कारण मानसून से जुड़ा है, जिससे यह निर्धारित होता है कि कृषि पैदावार कैसी रहेगी। भले ही मौसम विभाग द्वारा पहले इस तरह की भविष्यवाणियां की गई हों कि इस साल मानूसन 'सामान्य रहेगा, लेकिन हालिया कुछ रिपोर्ट्स बताती हैं कि बारिश कुछ कम रह सकती है। हालांकि केंद्रीय बैंक ने इंगित किया कि शुरुआत में कुछ कसर रहने के बाद अब मानसून में सुधार नजर आ रहा है, जो अर्थव्यवस्था के लिए अच्छा संकेत है। लेकिन साथ ही साथ उसने सरकार द्वारा अनेक खाद्य फसलों के न्यूनतम समर्थन मूल्य में तीव्र इजाफे को भी रेखांकित किया। इसका खाद्य महंगाई पर सीधा असर पड़ सकता है और महंगाई एक बार फिर सुर्खियों में आ सकती है।


इन तमाम पहलुओं पर गौर करते हुए रिजर्व बैंक ने दूसरी तिमाही (जुलाई से सितंबर) में खुदरा महंगाई 4.4 फीसदी, दूसरी छमाही (अक्टूबर से अगले साल मार्च) में 4.7-4.8 फीसदी और अगले वित्त वर्ष में 5 फीसदी रहने का अनुमान व्यक्त किया है। ये अनुमान उपभोक्ता मूल्य सूचकांक के आधार पर व्यक्त किए गए हैं, जो मई में 4.9 प्रतिशत था और जून में बढ़कर 5 फीसदी तक पहुंच गया, खासकर तेल की उच्च कीमतों के चलते।


इसके अलावा मैन्युफैक्चरिंग फर्म्स की भी उत्पादन लागत बढ़ने की खबरें आ रही हैं, जबकि कृषि लागतें भी बढ़ रही हैं। इन तमाम कारणों ने रिजर्व बैंक को इस बात के लिए प्रेरित किया कि वह ऐसे कदम उठाए, जिससे महंगाई के चक्र को नियंत्रित करना सुनिश्चित हो सके।


यहां पर यह गौरतलब है कि इन तमाम चिंताओं के बावजूद रिजर्व बैंक इस बात को लेकर आश्वस्त है कि अर्थव्यवस्था इस साल रफ्तार पकड़ रही है और धीरे-धीरे सुधार आ रहा है। उसने वर्ष 2018-19 के लिए 7.4 फीसदी विकास दर का अनुमान नहीं घटाया है। इसके पीछे एक प्रमुख वजह तो यही लगती है कि हालिया दौर में कई फसलों का समर्थन मूल्य बढ़ाया गया है, जिसके चलते ग्रामीण मांग में उछाल आ सकता है और कृषि अर्थव्यवस्था के भीतर आमदनी बढ़ सकती है। उम्मीद यही है कि इस सबके चलते साल के बाकी हिस्से में मैन्युफैक्चरिंग गतिविधियों को भी संबल मिलेगा।


बहरहाल, रिजर्व बैंक ने घरेलू आर्थिक विकास पर बाहरी कारकों के प्रभाव का बारीकी से अध्ययन किया है और इस क्रम में वैश्विक ट्रेड वॉर गहराने का परिदृश्य भी केंद्रीय बैंक की चिंता की एक प्रमुख वजह है। हालांकि यह अच्छी बात है कि पिछले दो माह के आंकड़ों के मुताबिक निर्यातों में पर्याप्त सुधार आया है। ऐसा कुछ हद तक रुपय के मूल्य में गिरावट की वजह से भी हुआ है। इससे खासकर ऐसी कंपनियों को काफी मदद मिली है, जो सेवाओं का निर्यात करती हैं, जैसे कि सॉफ्टवेयर कंपनियां। एक और प्लस प्वाइंट है। मौजूदा वित्त वर्ष की शुरुआत में शुद्ध प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के अंतर्प्रवाह में बढ़ोतरी हुई है। साल-दर-साल के हिसाब से औद्योगिक विकास भी रफ्तार पकड़ रहा है।


दूसरे शब्दों में कहें तो जहां तक समग्र आर्थिक विकास की बात है तो इस मामले में रिजर्व बैंक जबर्दस्त आशावादी नजरिया पेश करता नजर आता है, लेकिन साथ ही साथ वह यह भी सुनिश्चित करना चाहता है कि महंगाई की वजह से कहीं रंग में भंग न पड़ जाए। यही वजह है कि इसका फोकस पूरी तरह महंगाई को चार फीसदी के दायरे तक ही सीमित रखने पर केंद्रित है और तभी इसने लगातार दो बार ब्याज दरें बढ़ाने से गुरेज नहीं किया। लेकिन उसने यह भी देखा है कि आर्थिक गतिविधियों में मजबूती आ रही है और लगता नहीं कि विकास पर कोई असर पड़ेगा। लिहाजा यह उम्मीद की जा सकती है कि जहां तक ब्याज दरों में इजाफे की बात है तो अगली बैठक में इस पर विराम लगेगा। अन्यथा, लोगों में यह चिंता गहरा सकती है कि क्या निम्न ब्याज दरों का दौर बीत चुका है। बेहतर यही है कि केंद्रीय बैंक ज्यादा यथार्थवादी नजरिया अपनाए और इस तथ्य को स्वीकार करे कि ब्याज दरों में इजाफे से तेल व खाद्यान्न् संबंधी महंगाई पर खास असर नहीं पड़ने वाला। ऐसा नजरिया दीर्घकाल में इंडस्ट्री और आम आदमी दोनों के लिए मददगार होगा।

(लेखिका वरिष्ठ आर्थिक विश्लेषक हैं)