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आर्थिक सुधार- नई मंजिलें- पी चिदंबरम

पिछले हफ्ते भारत में आर्थिक सुधार और भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकरण के पच्चीस साल पूरे हुए। सरकार ने इस अवसर की अनदेखी की, और इसकी वजह समझना मुश्किल नहीं है: आर्थिक सुधार पीवी नरसिंह राव के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार ने शुरू किए थे, और तब भाजपा ने इसका पुरजोर विरोध किया था। (स्वदेशी जागरण मंच का वजूद आज भी है।) कल्पना करें कि 1991 में अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री होते (1998 के बजाय)- सरकार धूम-धड़ाके से उस अवसर को याद करती और अपने खास तरीके से खूब जश्न मनाती!
कांग्रेस पार्टी ने भी उस वक्त को बहुत महत्त्व देकर याद नहीं किया। डॉ मनमोहन सिंह ने अपने नम्र ढंग से 1991 की घटनाओं का स्मरण किया, और उन सभी को श्रेय दिया जो इसके हकदार थे- हालांकि खुद उनका योगदान सबसे बड़ा था।

जश्न का नहीं, सोचने का अवसर
मुझे इस बात का रंज नहीं है कि हमने पिछले पच्चीस साल की उपलब्धियों का जश्न क्यों नहीं मनाया। जश्न मनाएं या नहीं, कोई भी इस तथ्य को झुठला नहीं सकता कि करोड़ों लोग गरीबी के दायरे से बाहर निकाले गए- जिनमें से चौदह करोड़ लोग 2004-2014 के बीच गरीबी से बाहर आए। कोई भी इस तथ्य को नजरअंदाज नहीं कर सकता कि आज भारत अधिक खुली और अधिक प्रतिस्पर्धी अर्थव्यवस्था है और हमें अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष, विश्व बैंक, एशियाई विकास बैंक, जी-20, विश्व व्यापार संगठन, अंतरराष्ट्रीय निपटारा बैंक आदि में सम्मानजनक स्थान हासिल है।

मगर मुझे इस बात का रंज जरूर है कि न तो हम इस पर सोच रहे हैं कि पिछले पच्चीस वर्षों के सबक क्या हैं, और न ही इस पर कि अगले पच्चीस वर्षों में कौन-सी नई मंजिलें पार करनी हैं। अगले पच्चीस साल भारत के इतिहास में सबसे अहम क्यों हैं?

सदियों से- शायद तीन हजार वर्षों से- भारत एक गरीब देश रहा है, या यह कहना ज्यादा सही होगा कि गरीब लोगों का देश रहा है। मेरा मानना है कि पहली बार, लोगों को गरीबी में धकेलने के बजाय हम उन्हें गरीबी के दायरे से बाहर निकाल रहे हैं। मेरा यह भी मानना है कि अगले पच्चीस सालों में हमारे पास गरीबी को पूरी तरह मिटा देने का एक अच्छा मौका होगा। अगर यह बात मैं पच्चीस साल पहले कहता, तो ज्यादातर लोग हंसी उड़ा कर मेरी बात खारिज कर देते, जो मान रहे होते कि गरीबी भारतीयों की नियति है। पिछले पच्चीस सालों में हमने इस घातक मानसिकता को तोड़ा है।

भारत भाग्य में भरोसा रखने वाला देश रहा है, लेकिन यह हमारी नाकामी कही जाएगी कि आबादी का एक खासा हिस्सा विकास प्रक्रिया से बाहर है। इसके दो मुख्य कारण हैं: बदहाल शिक्षा और बदहाल स्वास्थ्य-सेवा।

बदहाल स्कूली व्यवस्था
हमारी स्कूली शिक्षा व्यवस्था बदहाल है। अधिकतर बच्चों के पास सरकारी या नगरपालिका के स्कूल में जाने के सिवा कोई दूसरा चारा नहीं है। उन्हें मिलने वाली शिक्षा की गुणवत्ता एकदम घटिया है। ज्यादातर जगह कक्षाओं के लिए पर्याप्त व ठीकठाक कमरे नहीं हैं, पुस्तकालय या प्रयोगशाला नहीं हैं, सहायक सामग्री नहीं है। शिक्षक नदारद रहते हैं (कभी-कभी पूर्व-निर्धारित बारी के कारण); बहुत-से शिक्षक ज्ञान या कौशल की कसौटी पर खरे नहीं उतरते। पांचवीं कक्षा का विद्यार्थी तीसरी कक्षा का गणित का सवाल हल नहीं कर पाता है। एक तथाकथित ‘टॉपर' ने ‘पोलिटिकल साइंस' का उच्चारण ‘प्रोडिगल साइंस' किया और बताया कि इस विषय के तहत खाना बनाना सिखाया जाता है। यह चमत्कार है कि कुछ विद्यार्थी ऐसे स्कूलों से बड़े गौरव के साथ पास होते हैं और आगे कॉलेज या विश्वविद्यालय में भी उत्तम श्रेणी हासिल करते हैं।
सर्व शिक्षा अभियान और शिक्षा अधिकार कानून के पीछे मकसद स्थिति में सुधार लाना था। शिक्षा की सुविधाओं में मात्रात्मक विस्तार तो हुआ है, पर स्कूलों में शैक्षिक गुणवत्ता में कोई सुधार नहीं दिखता।

चरमराती स्वास्थ्य सेवा
स्वास्थ्य सेवा की हालत इससे बेहतर नहीं है। संख्या के लिहाज से प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों का विस्तार जरूर हुआ है, पर ये केंद्र डॉक्टरों, नर्सों, दवाओं तथा उपकरणों की तंगी झेल रहे हैं। हर स्तर के सरकारी अस्पतालों पर उनकी क्षमता से ज्यादा काम का बोझ है। बिस्तर मुश्किल से किसी-किसी को मिल पाता है, मरीजों को दवाएं खरीदनी पड़ती हैं, प्राथमिक जांच और प्रक्रियाएं निशुल्क नहीं होतीं, और डॉक्टर को दिखाने या आॅपरेशन की बारी के लिए काफी लंबा इंतजार करना पड़ता है। ब्लाक-तालुका स्तर के अस्पताल केवल सिफारिशी भूमिका में होकर रह गए हैं, यानी मरीज को इससे ऊपर के अस्पताल में दिखाने की जरूरत रेखांकित करने से ज्यादा वे कुछ नहीं कर पाते। सर्वजन स्वास्थ्य योजना धरी की धरी रह गई।

विकास को तीव्र करने और उसकी गति को कायम रखने का एक ही रास्ता है, यह सुनिश्चित करना कि हर सक्षम वयस्क को काम मिले और वह आर्थिक विकास में भागीदार बने। अधकचरी शिक्षा पाई हुई श्रमशक्ति अथवा अस्वस्थ श्रमशक्ति न तो प्रतिस्पर्धा में बढ़त हासिल कर सकती है, न ही उत्पादकता सुधार सकती है।

अगर भारतीय अर्थव्यवस्था की वृद्धि दर छह फीसद या सात फीसद या आठ फीसद रहती है, तो यह विदेशी निवेश को आकर्षित करती रहेगी। पूंजी धड़ल्ले से भारत में आएगी। बुनियादी ढांचे बनेंगे। फैक्टरियां लगेंगी। कारोबार करना पहले से और आसान होगा। नियमन के नियम-कायदे आर्थिक वृद्धि में और सहायक होंगे। लेकिन अगर श्रमशक्ति अधकचरी शिक्षा पाई हुई हो, या स्वस्थ न हो, तो वह अर्थव्यवस्था के बुरी तरह पिछड़ने का सबब बन सकती है।
‘स्कूली शिक्षा' तथा ‘प्राथमिक व माध्यमिक स्तर की स्वास्थ्य सेवा' नई मंजिलें हैं। दोनों को पूरी तरह नि:शुल्क और सर्वजन-सुलभ बनाना हमारा लक्ष्य होना चाहिए। सबसे काबिल मंत्रियों और सबसे काबिल नौकरशाहों को शिक्षा तथा स्वास्थ्य सेवा की जिम्मेवारियों में लगाया जाना चाहिए। यह तथ्य आड़े नहीं आना चाहिए कि ये दोनों विषय केंद्र के भी अधिकार क्षेत्र में आते हैं और राज्यों के भी। शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा को सुधारने से मिलने वाले आर्थिक व चुनावी फायदे केंद्र और राज्यों को प्रेरित करेंगे कि वे इन मसलों पर मिल कर काम करें, और इसमें प्रयोग की भी गुंजाइश होगी।

अगर आप इतने युवा हैं कि पिछले पच्चीस सालों में चली सुधारों की प्रक्रिया में भागीदार नहीं हो पाए, तो अफसोस न करें; अगले पच्चीस साल कहीं अधिक महत्त्वपूर्ण व अधिक चुनौतीपूर्ण होंगे।