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आर्थिक सुधारों की कठिन राह पर-- एन के सिंह

आर्थिक फैसले पूरी स्फूर्ति से लिए जा रहे हैं। भले ही अभी हम नोटबंदी और जीएसटी की बहस में उलझे हुए हों, मगर हाल ही में सरकार ने अर्थव्यवस्था में नई जान फूंकने के लिए कई आर्थिक उपायों की घोषणा की है। ये कई लक्ष्यों को हासिल करने के इरादे सेप्रेरित हैं।

 

एक कहावत है कि बुराई को मजबूती तब मिलती है, जब हम कोई फैसला नहीं कर पाते या दूसरों के बारे में जरूरत से ज्यादा चिंता करते हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इस कहावत के बिल्कुल उलट हैं, क्योंकि सुधार के सख्त फैसले लेने की तेजी उनकी दृष्टि व नजरिये में बखूबी देखी जा सकती है। नेता वही है, जो नई राह के बारे में जानता है, उस पर खुद चलता है और पूरी दुनिया को उससे परिचित कराता है। मगर यह समग्र रणनीति ताल-मेल और आपसी समन्वय की मांग करती है। यह प्रक्रिया वित्त मंत्रालय की विभिन्न इकाइयों, भारतीय रिजर्व बैंक और बुनियादी ढांचे से जुड़े महत्वपूर्ण मंत्रालयों से चलती हुई प्रधानमंत्री कार्यालय में होने वाले मशविरे तक पहुंचती है।


सबसे पहले इसमें बढे़ हुए सार्वजनिक खर्च और उसके पड़ने वाले समग्र प्रभाव के बीच तालमेल बनाने पर ध्यान दिया जाता है। ज्यादातर स्थितियों में बढ़ते सार्वजनिक खर्च के साथ नियंत्रित निजी निवेश आता है। इसी तरह, ‘ट्विन बैलेंस-शीट' समस्या से भी निपटा जा रहा है। बैंकों का डूबे हुए कर्ज बढ़ने से कर्ज-माफी की उनकी क्षमता घट रही है और नए कर्ज देने में वे कई कतर-ब्योंत करने लगे हैं। कॉरपोरेट क्षेत्र भी कई तरह के बुरे आर्थिक भार से दबा है और वह नए निवेश की मनोदशा में या तो नहीं है, या फिर इस पर काफी कम सोच रहा है।


जीएसटी कौंसिल ने 6 अक्तूबर की अपनी बैठक में भी माना कि लघु व मध्यम उद्योग-क्षेत्र में मुश्किलें आ रही थीं, इसलिए उसने इस उद्योग क्षेत्र और निर्यातकों के अनुकूल कई छूट व राहतों की घोषणा की। यह प्रक्रिया महज चंद दिनों में परवान चढ़ी है। परिवर्तनकारी बड़े सुधार व्यापक उथल पुथल वाले होते हैं और प्रतिक्रियाओं की बेदी पर सुधारों की बलि नहीं ली जा सकती। जीएसटी कौंसिल इन चिंताओं को बखूबी समझती है और इससे निपटने के लगातार प्रयास कर रही है।


दूसरा निर्णायक उपाय सार्वजनिक बैंकों में पूंजी फिर से लाने से जुड़ा हुआ है। किसी की संपत्ति को बेचकर कर्ज कम करने की प्रक्रिया पर खासा ध्यान दिया जा रहा है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के लिए अपने पूंजी अनुपात के कम होने के डर से बड़ी कटौती की संभावना नहीं थी। सरकार इंद्रधनुष योजना के तहत संसाधन जुटाने के अलावा री-कैपिटलाइजेशन बॉन्ड बेचकर जीडीपी का 0.9 प्रतिशत पूंजी जुटाने को उत्सुक है। इसके अलावा, दिवालिया कानून और पुनर्पूंजीकरण पैकेज को मिलाकर बैंकिंग सिस्टम को दुरुस्त करने के लिए एक रणनीतिक मजबूती देने की कोशिश कर रही है। यह एक अच्छा संकेत है कि सरकार संपत्ति के आधार पर कारोबार करने के पक्ष में है, ताकि क्रेडिट और निवेश सख्ती से शुरू किए जा सकें। नीति-निर्माताओं को यह एहसास है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में लंबे समय से अटके जरूरी सुधारों को प्राथमिकता देनी चाहिए। री-कैपिटलाइजेशन से जहां ‘स्टॉक' यानी पूंजी की समस्या के समाधान में मदद मिलेगी, वहीं हमें ‘प्रवाह समस्या' पर भी अपना ध्यान लगाने की जरूरत है, ताकि अगले एक दशक में भी हम उसी नाव पर सवार न हों। इसी तरह ‘टेलीफोन बैंकिंग' यानी सरकार की दखल के बाद सीधे कर्ज देने की कथित परंपरा का भी अंत होना चाहिए।


तीसरा, बजट पर सीधा ध्यान देने से इन बॉन्ड पर ब्याज की सीमा तार्किक होगी। यह जीडीपी के 0.1 फीसदी से कम होने की संभावना है। मैक्रो-इकोनॉमी स्थिरता और वित्तीय विवेकपूर्ण संतुलन पर प्रधानमंत्री की लगातार नजर उल्लेखनीय है। हां, यह सही है कि कर्ज का स्तर ऊपर उठेगा, पर उधार चुनिंदा हो जाएगा। इसे देखते हुए ही कुछ रेटिंग एजेंसियों का शुरुआती मूल्यांकन काफी सकारात्मक रहा है।


चौथा, सार्वजनिक निवेश पर लगातार ध्यान दिया जा रहा है और सड़क ढांचे में सुधार किया जा रहा है। इससे न सिर्फ सार्वजनिक खर्च पर बेहतर असर होगा, बल्कि अर्थव्यवस्था में भी स्पद्र्धा बढे़गी। वाजपेयी के नेतृत्व वाली एनडीए सरकार में स्वर्णिम चतुर्भुज योजना की स्वीकृति और इसके अंतर्गत हुए कामों ने देश की तस्वीर बदल दी। उसके कई सकारात्मक प्रभाव दिखे, खास तौर से चतुर्भुज के आसपास के इलाकों में मैन्युफैक्चरिंग की उत्पादकता बढ़ाने में। सड़क व इन्फ्रास्ट्रक्चर को लेकर मौजूदा सरकार की प्रतिबद्धता इसे और गति देगी। सरकार ने 83,677 किलोमीटर सड़क बनाने का लक्ष्य रखा है। इसके लिए अगले पांच वर्षों में 69 खरब रुपये खर्च करने की बात कही गई है। यह काम ज्यादातर भारतमाला प्रोग्राम के तहत होगा। जाहिर है, यह बुनियादी ढांचे की तस्वीर को काफी हद तक बदल सकता है।


बावजूद इसके मौजूदा योजनाओं में निजी क्षेत्रों से महज 20 फीसदी संसाधान लेने की परिकल्पना की गई है। भारत के विशाल सार्वजनिक निवेश को देखते हुए निजी क्षेत्र की भागीदारी को बढ़ाना ही होगा। पिछली पीपीपी (सार्वजनिक-निजी साझेदारी) व्यवस्था से हुए नुकसान से हम कैसे पार पाएंगे? जोखिम का बंटवारा आखिर किस तरह से हो कि निजी क्षेत्र उतने जोखिम उठा सकें, जितना कि वे बर्दाश्त कर पाएं? इसके नियमन की व्यवस्था किस तरह होनी चाहिए? ये ऐसे सवाल हैं, जिसके लिए गहन चिंतन की जरूरत है, संसाधनों के बंटवारे का सवाल तो है ही।


साफ है कि वस्तु एवं सेवा कर यानी जीएसटी लागू करने के दरम्यान मुद्रास्फीति को लक्ष्य करते हुए बनाया गया वैधानिक ढांचा, बायोमीट्रिक के माध्यम से सब्सिडी को तर्कसंगत बनाने और अब सार्वजनिक बैंकों व सार्वजनिक निवेश को बेहतर बनाने पर ध्यान देकर मध्यम अवधि में एक मजबूत व जिम्मेदार विकास की रूपरेखा तैयार की गई है। इन योजनाओं को ईमानदारी से जमीन पर लागू किया गया और जवाबदेही तय की गई, तो अच्छे नतीजे आ सकते हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)