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इंडिया और भारत के उपभोक्ता- मृणाल पांडेय

उपभोक्तावाद पर कई बेदिमाग टिप्पणियों से यह भी साफ झलकता है कि कई महानगरीय लेखकों की नजर अहं भरी है। उनकी राय है कि गांव या कसबे का बेचारा मनई पूरी तरह बाजार के हाथों की कठपुतली बन नाच रहा है। शहरी बड़े भैया लोगों का यह तर्क आगे जाकर शहरों, खासकर बड़े शहरों के उपभोक्ता को एक अनैतिक उपभोगवादी बाजार बंधु और ग्रामीण मजूर किसानों का खतरनाक वर्ग शत्रु साबित करने तक चलता चला जाता है। यदि हर नई जीवन शैली और हर बाजार को गरीब का दुश्मन, अनैतिक और खतरनाक ठहरा दिया जाए, तो मतलब यह हुआ कि बाजार जाने पर ठगा जाना हर भारतीय गरीब की अपरिहार्य नियति है।

अगर हर तरह के उपभोक्ता के जीवन में उपभोग के लिए कुछ भी खरीदना एक अनिवार्य और पूर्व निर्धारित त्रासदी की शुरुआत मान लिया जाए, तो इस नकारात्मकता के बीच उपभोक्ताधिकारों पर कुछ भी कहा सुना जाना असंभव नहीं, तो अविश्वसनीय जरूर बन जाएगा।

हमारे यहां उपभोक्ता उत्पादों की खपत लगातार बढने के बाद भी उत्पादन की वाजिब निगरानी या क्वालिटी कंट्रोल, जो लगभग गायब हैं और हमारा आम उपभोक्ता भी अपने जायज हकों के बारे में इतना अज्ञानी बना हुआ है, तो वजह यही है कि हम उपभोक्ता बाजार के पक्के गाहक होते हुए भी वैचारिक दृष्टि से उसे अछूत मानते हैं।

सब जानते हैं कि सकल राष्ट्रीय उत्पादन बढ़ने से ही प्रति व्यक्ति आमदनियां बढ़ती हैं और जीवन स्तर ऊंचा होता है। ऐसे में उपभोग को महापाप बताने के बजाय उत्पादों के उचित मानकीकरण और अनिवार्य निगरानी पर एक समग्र नजरिया और संस्थागत तरीके गढ़ने की मांग तर्कसंगत ही नहीं, मानवीय न्याय का सहज तकाजा भी ठहरती है।

2012 में हम इस बात से आंखें नहीं मींच सकते कि जैसे-जैसे ग्रामीण इलाकों और छोटे शहरों में साक्षरता और औसत कमाई बढ़ रही है, वहां के लोगों, खासकर युवा वर्ग में जीवन को रंगीन तथा सुखद, स्वास्थ्य को बेहतर और रूप को अधिक आकर्षक बनानेवाले पैकेज्ड उत्पादों : शैम्पू, महंगे साबुन, बोतलबंद शीतल पेय, दूध से बने उत्पादों, बिस्कुट, नूडल्स, नेल पॉलिश, लिपस्टिक, गोरा बनाने वाली क्रीम, तथा शौचालय साफ करने वाले उपकरणों को खरीदने का रुझान भी लगातार बढ़ रहा है।

क्यों न बढ़े। हमारी अस्सी फीसदी चालीस से कम उम्र की है और यह उम्र वीतराग संन्यासी बनने की नहीं होती। शहरी युवाओं को ग्रामीणों की निस्पृह सादा जिंदगी का हवाला देकर निरंतर शर्मसार करने के इच्छुकों को गांवों में युवा रुचि और बिक्री रुझान को लेकर हिंदुस्तान थॉमसन असोशियेट्स द्वारा जारी आंकड़े हैरत में डालेंगे। वे बताते हैं कि 2011 के दौरान देश के ग्रामीण इलाकों में सिर्फ खाद्य श्रेणी के उत्पादों की बिक्री में 41% तक का उछाल देखा गया। शैम्पू पाउचों की बिक्री में भी इस दौरान 12% का इजाफा हुआ, जबकि बाथरूम की सफाई के तरल उत्पादों की बिक्री 25% बढ़ गई।

रोचक यह भी है कि ग्रामीण उपभोक्ता आज खास ब्रांडों की खासी समझ रखता है। इसीलिए कपड़े धोने वाले साबुन की बिक्री खास नहीं बढ़ी, पर महंगे नहाने के साबुनों की बिक्री बीस फीसदी के आंकड़े पार कर गई है। 66 वें राष्ट्रीय सैंपल सर्वेक्षण के अनुसार आज का ग्रामीण उपभोक्ता शहर जाकर भारी तादाद में कूलर, टीवी, मोबाइल, दुपहिया वाहन और फ्रिज सरीखे बड़े उत्पादों को भी घर में ला-लगा रहा है। इसी दौरान ग्रामीण परिवारों ने शिक्षा का महत्व भी बखूबी समझा है। अत: घरेलू बजट में बच्चों के लिए शिक्षा और मनोरंजन की मद पर किया जानेवाला खर्च भी बढ़ा है।

आज गांवों से शहरों तक लोग तीन बड़ी मदों पर खर्च कर रहे हैं : शिक्षा, खाना, और रिहायशी घर। गए दशक में बाजार ने इसी बुनियादी सचाई को पकड़ कर अपना विस्तार किया है। (मार्केट सर्वे एजेंसी नील्सन के अनुसार) 2008 से 2011 के बीच दस लाख तक की आबादी वाले 400 कसबों-शहरों में उपभोक्ताओं को पैकेज्ड सामग्री बेचने वाले 250 नए स्टोर खुले हैं। खाद्य पदार्थों से लेकर निजी इस्तेमाल तक के लिए उपभोक्ता उत्पाद बनाने वाले देश के सबसे बड़े समूह, हिंदुस्तान यूनीलीवर लि. ने भी पिछले तीन सालों में दस लाख नए आउटलेट्स छोटे शहरों, कसबों में खोले हैं। हाथ में चार पैसे आने पर ग्रामीण भी वही जीवन शैली अपनाने चल देते हैं, जैसी शहरी मध्यवर्ग की है।

बाहर से अराजक और अशिष्ट दिखने वाले ग्रामीण भारत में शिक्षा और सामान्य जीवन में आ रही बेहतरी और युवा वर्ग में अधिक सुविधामय जीवन के प्रति ललक आज की अकाट्य सचाइयां हैं। जब हम यह आत्मसात कर लेंगे, तभी हमारे यहां हर तरह के उपभोक्ता को अपने अधिकारों की सहज जानकारी मिलेगी और लगातार फैलते बाजार को उपभोक्ता हितों के संरक्षण तथा निगरानी के लिए अधिक जिम्मेदार भी बनाया जा सकेगा।