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इंद्र भरोसे खेती, पर कब तक--- बिभाष

हरित क्रांति के मसीहा डॉ नॉर्मन बोरलॉग ने साठ के दशक में बौनी प्रजाति के अधिक उपज वाले गेहूं की ईजाद की. सभी देशों की तरह भारत में भी उस गेहूं की खेती शुरू की गयी.

बौनी प्रजाति के गेहूं ने उस वक्त की राजनीति गढ़ने का भी काम किया, जिस पर बहस और शोध होना चाहिए. देखते-देखते गेहूं की उपज दूनी हो गयी. सन् 1959-60 में जो गेहूं की कुल पैदावार 10.32 मिलियन टन थी, वह 1971-72 में बढ़ कर 26.41 मिलियन टन हो गयी. इसी तर्ज पर अन्य फसलों में भी शोध शुरू हुए, विशेष कर चावल में. चावल की पैदावार भी इस अवधि में कुछ बढ़ी. चावल की पैदावार 31.68 मिलियन टन से बढ़ कर 43.07 मिलियन टन हो गयी. मैंने 1971-72 अवधि इसलिए चुनी कि इंदिरा गांधी ने 1971 के आम चुनाव में गरीबी हटाओ का नारा देकर चुनाव जीता था. साथ ही साथ पीएल-480 की राजनीति से छुटकारा पाने के लिए अन्न उत्पादन में आत्मनिर्भरता की नींव को भी इसी दौरान मजबूत बनाया गया.

संदर्भित अवधि में अन्न उत्पादन 76.67 मिलियन टन से बढ़ कर 105.17 मिलियन टन हो गया. हरित क्रांति इस मामले में भी महत्वपूर्ण है कि किसानों ने, जिन्हें आमतौर पर अनपढ़ माना जाता है, इस वैज्ञानिक कृषि में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया और हम सचमुच अन्न उत्पादन में निर्भर बने. महंगे निवेश पर आधारित हरित क्रांति कृषि के लिए पूंजी का जुगाड़ करने के लिए बैंकों का राष्ट्रीयकरण भी किया गया. लगा कि अब भारत की खेती मजबूत हो गयी, लेकिन हाल की परिस्थितियां और किसानों की आत्महत्याओं से लग रहा है कि कृषि में जोखिम प्रबंध उपयुक्त नहीं है.

आर्थिक सर्वेक्षण- 2016 के पहले वॉल्यूम के पृष्ठ संख्या 17 पर दिये गये बॉक्स संख्या 1.5 को पढ़ें, तो लाचारी झलकती है. कहा गया है कि 2015 में अलनीनो 1997 के बाद सबसे मजबूत रहा है, जिससे गत वर्ष में उत्पादन में कमी हुई. लेकिन अब अगर मजबूत ला-नीना आ जाये, तो 2016-17 में अच्छी उपज हो सकती है. साफ मतलब है कि कृषि हमारे नियंत्रण में नहीं है और हम मौसम पर निर्भर हैं.

फिर किसान से क्या उम्मीद कर सकते हैं! इसी बॉक्स में कहा गया है कि लंबे और तगड़े अलनीनो के कारण दक्षिण-पश्चिम मॉनसून में (गत वर्ष) कम बारिश हुई और सूखा मौसम जाड़े तक खिंच गया. पुराने रुझान को देखते हुए उम्मीद की जा रही है कि ला-नीना आयेगा और अधिक अन्न उत्पादन की संभावना है.

लेकिन यह भी कई किंतु-परंतु के साथ व्यक्त किया गया है. बरसों पहले मेरे एक सहपाठी ने मेरा ध्यान इस ओर खींचा था कि शुरू से अब तक कोई भी बजट भाषण उठा कर देख लो, दो पंक्तियां जरूर रहेंगी- इस बार बारिश अच्छी हुई अत: उम्मीद है कि इस बार फसलें अच्छी होंगी या इस बार बारिश अच्छी नहीं हुई अत: इस बार अच्छी फसल की संभावना नहीं है. यह उस देश में है, जहां के इंजीनियर पूरी दुनिया में अपना डंका पीट रहे हैं. हम चांद-मंगल पर पहुंच रहे हैं, लेकिन यहां धरती पर भूमि और जल प्रबंध में नाकाम हैं! कृषि में जोखिम प्रबंध की पहली सीढ़ी है सिंचाई की व्यवस्था.

अगर हम अपने अन्न उत्पादन के पैटर्न पर ध्यान दें, तो पानी डकारनेवाली फसलों के उत्पादन में जबरदस्त बढ़ोतरी हुई है. वर्ष 1950-51 से 2007-08 के बीच गेहूं की उपज 12 गुना, चावल की 4.7 गुना, गन्ने की 5.96 गुना बढ़ी. वहीं कम पानी खानेवाली फसलों जैसे ज्वार, बाजरा, मक्का, जौ, रागी आदि में मात्र 2.65 गुना, दलहन में 1.75 गुना और तेलहन में 5.58 गुना बढ़ोतरी हुई. धान, गेहूं, गन्ना आदि फसलों पर जोर देने के कारण भू-जल पर जबरदस्त दबाव बना हुआ है और किसी साल बारिश नहीं हुई, तो पूरी खेती मुसीबत में आ जाती है. अब तो कई इलाकों में साल-दर-साल सूखा पड़ रहा है.

नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो की 2014 की रिपोर्ट में किसानों की आत्महत्या का मैप अगर देखें, तो सबसे ज्यादा आत्महत्याएं (200 से ऊपर) मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, तेलंगाना और कर्नाटक में हुई हैं. अब देखें कि इन क्षेत्रों में जल के रिचार्ज और उपयोग की क्या स्थिति है. सेंट्रल ग्राउंड वॉटर बोर्ड की रिपोर्ट ‘डायनैमिक ग्राउंड वॉटर रिसोर्सेज-2014' को देखें, तो इन सभी राज्यों में 85 से ज्यादा फीसदी पानी खेती के लिए उपयोग में लाया जाता है.

इन राज्यों में भू-जल रिचार्ज का मूल स्रोत बारिश ही है. महाराष्ट्र में 70 प्रतिशत, आंध्र प्रदेश में 60 प्रतिशत, कर्नाटक में 55, छत्तीसगढ़ में 85 तथा मध्य प्रदेश में 80 प्रतिशत भू-जल का रिचार्ज बारिश से ही होता है. अत: अगर यहां बारिश नहीं हुई, तो खेती कठिन हो जाती है. महाराष्ट्र में ओवर एक्सप्लॉयटेड ब्लॉक्स ज्यादातर केंद्रीय हिस्से में हैं, जहां पानी डकारनेवाली फसलों की खेती की जाती है. भू-जल डेवलपमेंट, जिसे मोटे तौर पर भू-जल के इस्तेमाल की अवस्था कह सकते हैं, आंध्र में 45, छत्तीसगढ़ में 35, कर्नाटक में 64, मध्य प्रदेश में 57 तथा महाराष्ट्र में 53 प्रतिशत है. इसका तात्पर्य यह है कि भू-जल के उपयोग को यहां योजनाएं लागू कर बढ़ाया जा सकता है.

दिलचस्प आंकड़े पंजाब और हरियाणा के हैं, जो भयावह हैं. पंजाब में बारिश से ग्राउंड वॉटर रिचार्ज 30 प्रतिशत और हरियाणा में 40 प्रतिशत बारिश से होता है. लेकिन इनके भू-जल दोहन की स्थिति है पंजाब में 172 प्रतिशत तथा हरियाणा में 133 प्रतिशत. यहां की खेती खतरनाक फसल चक्र धान-गेहूं पर आधारित है, जो सिर्फ पानी डकारने का काम करता है. पूरे देश में मोटे अनाज, दलहन और तिलहन की खेती की अवहेलना महंगी पड़ रही है. गौरतलब यह है कि इन फसलों की खेती लघु एवं सीमांत कृषक ही करते हैं, जो भगवान भरोसे हैं.

फूड एंड एग्रीकल्चर ऑर्गेनाइजेशन की ‘स्टेटस ऑफ वॉटर यूज: एफिशिएंसी ऑफ मेन क्रॉप्स' रिपोर्ट के अनुसार, प्रति इकाई जल के सापेक्ष उत्पादन में बढ़ोतरी में काफी संभावनाएं हैं.

इसके लिए उन्नत खेती के तरीकों को अपनाना पड़ेगा, क्षेत्रवार जल के विभिन्न मदों में उपयोग का प्रबंध करना पड़ेगा. साथ ही महत्वपूर्ण यह भी है कि खेती में जल के उपयोग की एकाउंटिंग की जाये. सरकार के आर्थिक सर्वेक्षण में कई पहल की ओर इशारा किया गया है. उम्मीद है कि सरकार उन्हें लागू कर कृषि को संकट से बाहर निकालेगी.