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इंसाफ की डगर पर कितने कोस?- चंदन श्रीवास्तव

आज से साढ़े पांच साल पहले ग्राम न्यायालय एक्ट 2008 अमल में आया था. इसको लेकर देश के सत्ता-वर्ग ने उम्मीदों की हवा कुछ ऐसी बांधी थी, मानो अब गांवों में रामराज्य आने ही वाला है. कहा गया था कि अब देश में हर किसी को न्याय मिल सकेगा, क्योंकि यह एक्ट बनाया ही गया है निर्धन और ग्रामीण जनता को उसके दरवाजे पर पहुंच कर इंसाफ देने के लिए.

ग्राम न्यायालयों पर ग्रामीण आबादी को ‘त्वरित, सस्ता और सारवान' न्याय प्रदान करने की जिम्मेवारी डाली गयी. माना गया कि ग्रामीण न्यायालयों की स्थापना से निचली अदालतों में लंबित पड़े मुकदमों (तकरीबन तीन करोड़) की संख्या कम होगी और अदालतें काम का बोझ हल्का होने से मुकदमों का निबटारा जल्दी-जल्दी करेंगी. संक्षेप में कहें तो ग्रामीण न्यायालयों को ‘गुड गवर्नेस' का एक कारगर उपाय माना गया.

एक्ट को लानेवाली यूपीए सरकार अब सत्ता में नहीं है, लेकिन गुड गवर्नेस लाने के वादे से बनी एक नयी सरकार साल भर से लोगों को हर मोर्चे पर ‘फील गुड' करवाने पर लगी है. सरकार बदल गयी, लेकिन ग्राम न्यायालयों की किस्मत नहीं बदली. न तो सरकार ग्राम न्यायालयों की अमली हकीकत बताना चाहती है, ना ही इस मोर्चे पर शासन में उससे कोई सवाल करना चाहता है. आज शायद ही किसी को ठीक से पता हो कि किस राज्य में कितने ग्राम न्यायालय हैं व उनकी दशा-दिशा क्या है.

ग्राम न्यायलयों की संख्या के बारे में सबसे नया आंकड़ा भी कम-से-कम डेढ़ साल पुराना है. केंद्र की पिछली सरकार के विधि एवं न्याय मंत्री कपिल सिब्बल ने 18 दिसंबर, 2013 को लोकसभा में बताया था कि कुल नौ राज्यों ने 2013 के दिसंबर तक 172 ग्राम न्यायालयों की स्थापना की अधिसूचना जारी की थी, जिसमें 152 ग्राम न्यायालय सक्रिय हो पाये थे.

सिब्बल से एक वर्ष पहले यूपीए सरकार के तत्कालीन विधि एवं न्याय मंत्री सलमान खुर्शीद ने लोकसभा में कहा था कि देश के छह राज्यों ने कानून लागू होने के तीन वर्षो के अंदर 166 ग्राम न्यायालयों की स्थापना की अधिसूचना जारी की है, जिसमें 151 ग्राम न्यायालयों ने काम करना शुरू कर दिया है. मतलब, पूरे एक साल में देश में सक्रिय ग्राम न्यायालयों की संख्या में महज एक अंक की बढ़ोत्तरी हुई.

धीमी प्रगति का एक बड़ा कारण इस मद में दी जानेवाली केंद्रीय सहायता राशि का कम होना है. जिन राज्यों को ग्राम न्यायालयों की स्थापना के लिए ज्यादा राशि मिली, वहां उनकी संख्या भी अपेक्षाकृत ज्यादा है. एक्ट के अमल में आने के चार वर्षो में राज्यों को इस मद में केंद्रीय सहायता के तौर पर 3,425 लाख रुपये दिये गये. इसमें सबसे ज्यादा (1,819 लाख रुपये) मध्य प्रदेश को मिला और वहां नवीनतम सूचना के अनुसार सबसे ज्यादा (89) ग्राम न्यायालय काम कर रहे हैं.

ठीक इसी तरह ग्राम न्यायालय एक्ट के अंतर्गत केंद्रीय सहायता राशि पानेवाले राज्यों में राजस्थान का स्थान दूसरा है और ग्राम न्यायालयों की स्थापना के मामले में भी वह कुल नौ राज्यों में दूसरे स्थान पर है.

राजस्थान को 1,146 लाख रुपये मिले हैं और वहां ग्राम न्यायालयों की कुल संख्या 45 है. महाराष्ट्र को साल 2009-10 से 2013-14 के बीच ग्राम न्यायालयों की स्थापना के लिए केंद्र से 158 लाख रुपये मिले और वहां इस अवधि में 10 ग्राम-न्यायालयों की स्थापना हुई. ओड़िशा को इस अवधि में 126 लाख रुपये मिले और ओड़िशा में 14 ग्राम न्यायालयों की स्थापना की अधिसूचना जारी हुई है, जिसमें 8 ग्राम न्यायालय सक्रिय हैं.

दिलचस्प है कि कर्नाटक, गोवा, पंजाब, हरियाणा को ग्राम न्यायालय एक्ट के प्रावधानों के तहत 2009-10 से 2013-14 के बीच केंद्रीय सहायता राशि में से 25-25 लाख रुपये मिले हैं और इनमें से प्रत्येक राज्य में दो-दो ग्राम न्यायालयों की अधिसूचना जारी हुई है.
ग्राम न्यायालयों की स्थापना के लिए दी जानेवाली केंद्रीय वित्तीय सहायता में 2009-10 से 2013-14 के बीच लगातार कमी आयी है. 2009-10 में राज्यों को केंद्रीय वित्तीय सहायता राशि के रूप में कुल 1,347 लाख रुपये मिले, जबकि साल 2010-11 में यह राशि घट कर तकरीबन आधी (745 लाख रुपये) हो गयी और साल 2013-14 में यह राशि घट कर तकरीबन एक चौथाई (476 लाख रुपये) रह गयी.

यह बात ठीक है कि ग्राम न्यायालयों की स्थापना का काम राज्यों की मंशा पर छोड़ा गया है. कई राज्यों जैसे-उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और राजस्थान ने ग्राम न्यायालयों की स्थापना के लिए केंद्रीय वित्तीय सहायता की मांग की है, जबकि तमिलनाडु, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश, दिल्ली जैसे राज्यों ने व्यावहारिक दिक्कतों को गिनाते हुए ग्राम न्यायालयों की स्थापना की जरूरत से इनकार किया है.

लेकिन असल सवाल तो यह है कि जो राज्य ग्राम न्यायालय की स्थापना के लिए इच्छुक हैं, केंद्र सरकार उन्हें वित्तीय सहायता देने में क्यों कोताही कर रही है?