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इक्कीसवीं सदी की बाधा दौड़- सुभाष गताड़े

महाराष्ट्र के नागपुर क्षेत्र में अनुसूचित जाति, जनजाति एवं अन्य पिछड़ी जातियों से आने वाले दस हजार से अधिक छात्र सरकार के समाज कल्याण महकमे की आपराधिक लापरवाही के चलते क्या प्रोफेशनल पाठ्यक्रमों में इस साल प्रवेश नहीं ले सकेंगे? और शासकीय कॉलेजों में उनके प्रवेश को महज इसी वजह से रोका जाएगा, क्योंकि उनके पास जाति वैधता प्रमाणपत्र नहीं हैं, जबकि इन तमाम छात्रों ने सालभर पहले ही आवेदन पत्रा जमा किए हैं?

सामाजिक तौर पर उत्पीड़ित तबके के इन छात्रों को प्रमाणपत्रों से वंचित रखने के इस घटनाक्रम में ताजा मुकाम यह रहा है कि विगत चंद दिनों से समाज कल्याण विभाग का कंप्यूटर तब खराब पड़ा था, जब आवेदन जमा करने के चंद रोज ही बचे थे। कहीं इसके पीछे समाज कल्याण विभाग और निजी इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेजों की मिलीभगत तो नहीं? आखिर आरक्षित तबके के छात्रों को जाति वैधता प्रमाणपत्र समय पर नहीं मिलता है, तो उन्हें खुली श्रेणी में प्रवेश लेना पड़ेगा और फिर ये निजी कॉलेज उनसे भारी फीस वसूल सकते हैं।

इस घटना से आज भी वर्ण मानसिकता से ग्रस्त नौकरशाही द्वारा निजी कॉलेजों को फायदा पहुंचाने की प्रवृत्ति उजागर होती है। अभी ज्यादा दिन नहीं हुए, जब केंद्र सरकार ने शिक्षा संस्थानों में जातिभेद को लेकर एक नए बिल की रूपरेखा पेश की है, जिसके अंतर्गत संस्थान के अंदर अगर उत्पीड़ित तबके से आने वाले छात्रों के साथ किसी किस्म का भेदभाव होता है, तो संबंधित लोगों को दंड का भागी होना पड़ेगा। लेकिन हालिया मामले में यही दलील दी जाएगी कि यह घटना शिक्षा संस्थान के बाहर हुई है, लिहाजा नए कानून की मार उन तक नहीं पहुंच पाएगी।

अगर एक तरफ होनहार युवाओं को प्रोफेशनल कोर्सेज करने से रोकने के लिए बाधाएं खड़ी की जाती हैं, तो दूसरी तरफ मिड डे मील देने से लेकर स्कूलों में बैठने तक के मामलों में भी उनके साथ भेदभाव बरता जाता है। वर्किंग ग्रुप ऑन ह्यूमन राइट्स एवं यूएन की हालिया रिपोर्ट इस कड़वी हकीकत पर रोशनी डालती है। रिपोर्ट के मुताबिक, ‘अनुसूचित तबके के छात्रों के साथ स्कूलों में अकसर अपमानित करने वाले अंदाज में व्यवहार होता है। मिड डे मिल जैसी सरकारी योजनाओं में भी भेदभाव देखा जा सकता है।’

इस भेदभाव का सीधा असर अनुसूचित तबके के छात्रों के स्कूली शिक्षा बीच में ही छोड़ने में दिखता है। रिपोर्ट बताती है कि अनुसूचित तबके में आठवीं कक्षा के पहले ड्रापआउट दर 50 फीसदी दिखती है। गौरतलब है कि अनुसूचित तबके से आनेवाले युवा और बाकी युवाओं के बीच ड्रापआउट दर का अंतर बढ़ता दिखता है। कुछ समय पहले एनसीईआरटी के तत्वावधान में अनुसूचित जाति और जनजाति के बच्चों पर केंद्रित एक रिपोर्ट ने भी अध्यापकों एवं अनुसूचित तबके के छात्रों के अंतर्संबंधों को उजागर किया था।

यह रिपोर्ट कहती है कि अध्यापकों के बारे में यह बात देखने में आती है कि अनुसूचित जाति और जनजाति के छात्रों एवं छात्राओं के बारे में उनकी न्यूनतम अपेक्षाएं होती हैं और झुग्गी बस्तियों में रहने वाले गरीब बच्चों के प्रति तो बेहद अपमानजनक और उत्पीड़नकारी व्यवहार रहता है। अध्यापकों के मन में भी ‘वंचित’ और ‘कमजोर’ सांस्कृतिक पृष्ठभूमि से आने वाले अनुसूचित जाति/जनजाति के बच्चों की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि, भाषाओं और अंतर्निहित बौद्धिक अक्षमताओं के बारे में मुखर या मौन धारणाएं होती हैं।

इन दिनों दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रवेश को लेकर धूम मची है, जहां इस साल ऑनलाइन आवेदन जमा करने पर जोर दिया गया है। इस ऑनलाइन प्रणाली की दिक्कतों के चलते अनुसूचित तबके के हजारों छात्रों के साथ एक अलग किस्म का खिलवाड़ होता दिख रहा है। ऑनलाइन आवेदन जमा करते वक्त जो विवरण लिखे गए थे, उनमें तथा विश्वविद्यालय की आधिकारिक वेबसाइट में फर्क है, जिससे इस वर्ग के कई छात्र दाखिले से वंचित हो सकते हैं। इस परिदृश्य में ऐसा लग रहा है कि आज भी शिक्षा हासिल करना अनुसूचित तबके के अधिकतर छात्रों के लिए बाधा दौड़ जैसा ही है।