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इक्कीसवीं सदी दलितों की है-- चंद्रभान प्रसाद

दलितों का महत्व अचानक ही बढ़ गया है, तमाम राजनीतिक पार्टियां डॉ. भीमराव अंबेडकर की परंपरा को अपनाने का दावा करते हुए दलितों के साथ अपनापा स्थापित करने में लग गई हैं। संघ परिवार जैसा दलितों का घनघोर विरोधी संगठन भी अंबेडकर के पक्ष में खड़ा होने लगा है। इन बुनियादी तथ्यों पर जरा नजर दौड़ाइए- 2014 के लोकसभा चुनाव में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा ने 282 सीटें जीतीं, लेकिन उसे महज 31 फीसदी वोट ही मिले। इसी तरह 2012 में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में समाजवादी पार्टी को महज 29.15 प्रतिशत वोट मिले, लेकिन उसने 224 सीटें जीती। ऐसे ही दलित नेत्री मायावती के नेतृत्व में बसपा ने उत्तर प्रदेश में 2007 का विधानसभा चुनाव जीता था; बसपा ने 206 सीटें जीती थी और उसे कुल वोटों का 30.7 प्रतिशत हासिल हुआ था।

लोकसभा और विधानसभा चुनावों में 30 से 35 फसदी वोट पाने वाली पार्टियों को सत्ता मिल गई। 2011 की जनगणना के आंकड़ों के मुताबिक, दलित देश की कुल आबादी का 16.2 प्रतिशत हैं। पूर्वोत्तर भारत, झारखंड और छत्तीसगढ़ को छोड़ दिया जाए, तो मुख्यधारा के ज्यादातर राज्यों में दलितों की आबादी औसतन 20 फीसदी है। पंजाब की एक तिहाई और पश्चिम बंगाल की 23 प्रतिशत जनसंख्या दलित है। बड़ी राजनीतिक पार्टियां दलितों को सबसे मजबूत वोट बैंक मानती हैं, तो उसकी कई वजहें हैं। पहली यह कि दलित लोकतंत्र के पक्षधर हैं, और समूह में वोट डालना पसंद करते हैं। मतदान ही वह इकलौता अवसर होता है, जब दलितों को दूसरे समुदायों के साथ खड़े होकर वोट देने का मौका मिलता है। बचपन में मैंने सवर्ण जमींदारों के विवाह समारोह के भोजों में दलितों को अलग बैठते हुए देखा है। पर वोट देने की कतार में मैंने उन्हीं दलितों और सवर्णों को आगे-पीछे खड़े देखा। वस्तुतः एक आदमी-एक वोट सबसे बड़ा नागरिक अधिकार है, जो डॉ. भीमराव अंबेडकर ने इस देश के नागरिकों, खासकर गरीबों को दिया। 2014 के लोकसभा चुनाव में 66.38 प्रतिशत मतदाताओं ने वोट डाले, जो अब तक का सर्वाधिक है। पहले लोकसभा चुनाव के बाद से ही वोट प्रतिशत 60 के आसपास रहा था। सवाल यह है कि वोट न डालने वाले वे 40 फीसदी लोग कौन हैं। इस सवाल का जवाब नहीं है, जबकि इस बारे में अध्ययन है कि दलित समूहों में वोट डालते हैं। इस लिहाज से देखें, तो मुख्यधारा के राज्यों में 20 फीसदी दलित वोटों का वास्तविक मोल कहीं ज्यादा होता है।

दलितों के वोट बैंक पर राजनीतिक पार्टियों की निर्भरता की वजह यह भी है कि बहुसंख्यक दलित एक राजनीतिक पार्टी को वोट देते हैं। बेशक दलित कोई एक सामाजिक समूह नहीं है, दलितों में उप-जातियां हैं, और उन उप-जातियों में भी छुआछूत है, लेकिन सामाजिक शोषण इन सभी उप-जातियों को एकजुट करता है। मसलन, उत्तर प्रदेश में प्रोन्नति में आरक्षण के प्रावधान को वापस लेने के फैसले ने सभी दलित अधिकारियों को क्षुब्ध किया है।

दलित अपने वोट का फैसला खुद करते हैं। कांशीराम और मायावती का सबसे बड़ा योगदान यह है कि उन्होंने दलित समुदाय को इस बारे में प्रशिक्षित किया है कि वे वोट देने का फैसला खुद करें। आज के दलितों को सामाजिक और आर्थिक आजादी है। कभी मैंने दलित किरायेदारों को भोजन के लिए अपने मकान मालिकों पर निर्भर देखा है। जमींदारों के बेटे-बेटियों की शादी में मेहमानों द्वारा छोड़ दिए गए भोजन को दलितों द्वारा इकट्ठा कर घर ले जाते हुए मैंने देखा है। मैंने दलितों को हलवाहों के तौर पर बंधक बने देखा है। उत्तर भारत में पिछले बीस वर्षों में बैल गायब हो गए हैं, जिस कारण हलवाहा प्रथा भी समाप्त हो गई। अपने जीवन में पहली बार दलित स्वाधीनता का सुख भोग रहे हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव में जब मैं उत्तर प्रदेश में घूम रहा था, तो ठाकुर/ब्राह्मण जमींदारों ने बातचीत में मुझे बताया-'एक समय था, जब दलित समुदाय के मर्द-औरत-बच्चे हमारे घर के आसपास मंडराया करते थे, आज आना तो दूर, वे हमारी तरफ देखते तक नहीं हैं।'

एक दूसरे जमींदार ने कहा, 'सभी दलित लड़कियां आज स्कूलों में पढ़ती हैं, वे अपने खेतों तक में काम नहीं करतीं, दलित बहुओं ने हमारे खेतों में काम करना छोड़ दिया है।' तीसरे ने कहा, 'हमारे यहां कुछ दलित परिवार हैं, जो बटाईदार के तौर पर भी हमारा खेत लेने के लिए तैयार नहीं हैं।' एक ब्राह्मण का कहना था-चिकन की दुकान पर देखें, तो ज्यादातर ग्राहक दलित दिखेंगे। उन्होंने आगे कहा, गांव की सीमा पर खड़े होने पर दिखता है कि दलित भरे हुए झोले के साथ लौट रहे हैं, तो ठाकुरों का झोला आधा ही भरा होता है। एक बुजुर्ग जमींदार का कहना था-'चूंकि ज्यादातर दलित युवा औद्योगिक शहरों में चले गए हैं और वे अपने घरों में पैसे भेजते हैं, इसलिए उनके माता-पिता अच्छा खाते हैं, और उन्हें अब हमारी जरूरत नहीं है।'

दरअसल, राजनेता लोगों और समाज के बारे में बेहतर समझ रखते हैं। राजनीतिक पार्टियां जानती हैं कि दलित उठ खड़े हुए हैं। वे आईटी सेक्टर में अच्छा कर रहे हैं, दलित डॉक्टर एवं इंजीनियर इंग्लैंड और अमेरिका में अपनी क्षमता का लोहा मनवा रहे हैं। वे व्यवसाय में भी सफल हैं। ज्यादातर शहरों में कुछ दलितों को बीएमडब्ल्यू, मर्सिडीज और ऑडीज चलाते देखा जा सकता है। मोहाली में मैं एक दलित कारोबारी से मिला, जिसके पास बेंटले कार है, जिसकी कीमत ही 3.2 करोड़ से शुरू होती है। उत्तर प्रदेश के एक दलित व्यवसायी के पास चार मर्सिडीज कारें हैं, और भारत समेत रूस, इंग्लैंड, दुबई और चीन में उनके ऑफिस हैं। डॉ. भीमराव अंबेडकर 20वीं शताब्दी के अकेले राजनीतिक दार्शनिक हैं, जो 21वीं शताब्दी में भी प्रासंगिक हैं। दलित मानसिकता में अंबेडकर चूंकि स्थायी तौर पर रहेंगे, इसलिए 21वीं शताब्दी भी दलितों की है। राजनीतिक पार्टियां यह जानती हैं, इसलिए वे दलितों और अंबेडकर को गले लगा रही हैं।