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इतनी बदकिस्मत क्यों हैं बेटियां- तवलीन सिंह

भारत की महिलाओं के हाल पर इस बार मैं सिर्फ इसलिए लिख रही हूं, क्योंकि अगले हफ्ते विश्व महिला दिवस है। इसलिए भी लिख रही हूं, क्योंकि मैं शर्मिंदा हूं कि एक महिला पत्रकार होने के बावजूद, मैं महिलाओं के बारे में सिर्फ उस वक्त लिखती हूं, जब किसी निर्भया के साथ इस देश के किसी गांव या शहर में मर्द हैवान की तरह पेश आते हैं। निर्भया के जाने के बाद इतनी बार उस तरह की हैवानियत का सामना करना पड़ा है कि हिसाब रखना मुश्किल हो गया है।

इतनी आम हो गई हैं महिलाओं पर अत्याचार की खबरें कि सुर्खियां तभी बनती हैं, जब बहुत ही घिनौनी घटना पेश आती है। जैसे हाल में पश्चिम बंगाल के उस गांव से आई थी। बीरभूम जिले के गांव में एक बीस बरस की लड़की के साथ पंचायत के आदेश पर दर्जन भर मर्दों ने सामूहिक बलात्कार किया, क्योंकि लड़की का परिवार पच्चीस हजार रुपये जुर्माना भरने के काबिल नहीं था। लड़की का जुर्म क्या था? उसने विजातीय लड़के के साथ शादी की कोशिश की थी। इतनी घिनौनी थी पंचायत की वह हरकत कि दुनिया भर के अखबारों में उस बदकिस्मत लड़की की खबर छपी और फिर से भारत माता का चेहरा कलंकित हुआ।

उस हादसे के कुछ ही दिन बाद राहुल गांधी ने टीवी पर अपना पहला इंटरव्यू दिया, जिसमें उन्होंने इतनी बार महिलाओं के सशक्तिकरण की बातें कहीं कि अर्णब गोस्वामी के तकरीबन हर सवाल के जवाब में महिला सशक्तिकरण पर आ जाते थे कांग्रेस के युवराज। यहां तक कि नरेंद्र मोदी पर भी जब उनसे सवाल पूछे गए, तो राहुल गांधी ने कहा कि उनकी नजरों में महिलाओं के सशक्तिकरण जैसे मुद्दे ज्यादा अहमियत रखते हैं। सो चलिए, आज बात करते हैं इस सशक्तिकरण की, क्योंकि मेरी अपनी सोच भी यही है कि जब तक देश की महिलाओं के जीवन में सुधार नहीं आएगा, तब तक भारत किसी हाल में दुनिया की सभाओं में अपनी सही जगह नहीं ले सकेगा।

सवाल यह भी है कि भारत की महिलाओं के सशक्तिकरण के औजार क्या हैं? बहुत बड़ा शब्द है सशक्तिकरण और कई बार सुनने को मिलता है देश के रहनुमाओं से, लेकिन कभी इनसे यह सुनने को नहीं मिलता कि सशक्तिकरण आएगा कैसे? महिला राजनीतिज्ञों और संगठनों की जिद के कारण पंचायतों में आरक्षण तो मिला है महिलाओं को, लेकिन शक्ति नहीं है, क्योंकि असली सरपंच होते हैं अक्सर उनके पतिदेव। समस्या इतनी गंभीर है उत्तर प्रदेश जैसे पिछड़े राज्यों में कि प्रधानपति नाम का एक नया पद बन गया है, ताकि प्रधानपति जी अक्सर अपनी अनपढ़ पत्नियों की मदद कर सकें गांवों की समस्याओं के हल ढूंढने में।

मेरी अपनी राय है कि राजनीतिक शक्ति देना पहला नहीं, बल्कि आखिरी कदम होना चाहिए था। ऐसा इसलिए, क्योंकि महिलाओं का सशक्तिकरण तब तक असंभव है, जब तक उन्हें इसका सबसे बड़ा औजार न दिया जाए, और वह है शिक्षा। आज भी देहातों में स्थिति यह है कि लड़कों को स्कूल भेजते हैं मां-बाप शौक से, लेकिन लड़कियों को नहीं। लड़कियों को स्कूल भेजने से वे इसलिए भी कतराते हैं, क्योंकि अक्सर देहात के स्कूलों में लड़कियों के लिए अलग शौचालय नहीं होते। महिला सशक्तिकरण के दो सबसे महत्वपूर्ण औजार हैं-शिक्षा और शौचालय। उसके बाद ही बातें करनी चाहिए महिलाओं को राजनीति में लाने की। हमारे राजनेता चाहते, तो अब तक हर गांव में बन गया होता ऐसा स्कूल, जहां लड़कियों के पढ़ने का खास प्रबंध हो। ऐसा क्यों नहीं हुआ है अभी तक?

वैसे भी इस देश में महिला होना आसान नहीं है, क्योंकि हमारा समाज अभी तक इतना दकियानूसी, इतना पिछड़ा हुआ है कि महिलाएं खुद फर्क करती हैं अपनी बेटियों और बेटों में। घरों में खाना मिलता है पहले बेटों को, और बाद में बेटियों को। इतनी बदकिस्मत हैं भारत की बेटियां कि उनको मां की कोख में ही मार दिया जाता है, और अगर गलती से पैदा हो जाती हैं, तो उनको बचपन से ही एहसास दिलाया जाता है कि वे बोझ बनकर आई हैं माता-पिता के लिए। ऐसे हाल में क्या फायदा है सशक्तिकरण जैसी बड़ी बातें करने का, जब वहां तक पहुंचने का पहला कदम ही नहीं उठाया गया है। नेक लक्ष्य है महिला सशक्तिकरण, लेकिन अभी वहां तक पहुंचने के लिए रास्ता ही तैयार नहीं किया गया है।