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इनाम और ओहदे लौटाने से क्या होगा? - विष्‍णु खरे

1954-55 में जब भारत सरकार ने साहित्य अकादेमी की स्थापना की थी तब देश में कांग्रेस का शासन था। उसके संस्थापक-पितरों में जवाहरलाल नेहरू, सर्वपल्ली राधाकृष्णन, मौलाना अबुल कलाम आजाद और डॉ. जाकिर हुसैन जैसे राजनीतिक-सांस्कृतिक युगनिर्माता थे। बाद में कभी इंदिरा गांधी भी अकादेमी की सदस्य रहीं, जब वे केंद्रीय सूचना तथा प्रसारण मंत्री थीं। अकादेमी के संस्थापक-सचिव कृष्ण कृपालाणी थे, जो रबींद्रनाथ ठाकुर की एकमात्र संतान नंदिता के पति थे और गांधीजी सहित देश के हर बड़े नेता को व्यक्तिगत रूप से जानते थे। नेहरूजी और इंदिरा गांधी को तो वे सबके सामने स्वाभाविक तौर पर जवाहर और इंदिरा कहकर बुलाते थे।

वातावरण आजादी के बाद की स्वप्निल, आदर्शवादी नेहरू-उपस्थिति से इतना ओतप्रोत था कि लगता था राष्ट्रीय जीवन के किसी भी अंग में कुछ भी अशोभनीय या हिंसक नहीं होगा। लेखकों के बीच 1954 तक पर्याप्त विचारधारागत मतभेद आ चुके थे। लेखन, लेखकों, पत्र-पत्रिकाओं की स्थिति दयनीय थी। प्रकाशक समृद्धि के मार्ग पर थे। साहित्य अकादेमी के संविधान में लेखकों की किसी भी तरह की सुरक्षा का कोई उल्लेख या चिंता नहीं है।

साहित्य अकादेमी की स्थापना इतने उच्च स्तर पर ऐसी इमारत में हुई थी कि बेहद मितभाषी और सज्जन कृष्ण कृपालाणी के रिटायर होने तक लेखक वहां जाने से डरते थे। स्वयं उनके प्रभाकर माचवे और भारतभूषण अग्रवाल जैसे मातहत उनसे आतंकित रहते थे और युवा लेखकों को वहां उल्लेखनीय प्रवेश 1976 के बाद ही मिल सका। स्वयं को स्वायत्त घोषित करने वाली अकादेमी, जिसके देशभर से बीसियों सदस्य हैं, जिनमें से कुछ वरिष्ठ नामजद आईएएस स्तर के अफसर भी होते हैं, जिसका एक-एक पैसा संस्कृति मंत्रालय से आता और नियंत्रित होता है, अभी भी साहित्य को एक जीवंत, संघर्षमय रणक्षेत्र और लेखकों को प्रतिबद्ध, जुझारू,आपदग्रस्त मानव मानने से इनकार करती है। अब वह सच्चे साहित्य के विरुद्ध काफ्काई, षड्यंत्री, नौकरशाही दफ्तर है। उसके चुनावों में भयानक साजिशें होती हैं और पिछले तीस वर्षों में वह खुली आंखों से अपनों-अपनों को रेवड़ी बांटने वाली, स्वपुनर्निर्वाचक, प्रगति-विरोधी संस्था बना दी गई है।

आज जिस पतित अवस्था में वह है, उसके लिए स्वयं लेखक जिम्मेदार हैं, जो अकादेमी पुरस्कार और अन्य फायदों के लिए कभी चुप्पी, कभी मिलीभगत की रणनीति अख्तियार किए रहते हैं। नाम लेने से कोई लाभ नहीं, लेकिन आज जो लोग दाभोलकर, पानसरे और कलबुर्गी की हत्याओं के विरोध में पुरस्कार और विभिन्न् सदस्यताएं लौटा रहे हैं, उनमें से एक वर्षों से साहित्य अकादेमी पुरस्कार के लिए ललचा रहे थे और जिसे पाने के लिए उन्होंने क्या नहीं किया। उन्होंने अकादेमी की कई योजनाओं से पर्याप्त पैसे कमाए, सो अलग। लेकिन अपने वापसी-पत्र में लिखते हैं कि वे वर्षों से लेखकों को लेकर पीड़ित, दु:खी और भयभीत रहे हैं।

एक पुरस्कृत सज्जन संस्कृति मंत्रालय में अकादेमी के ही प्रभारी रहे। दूसरे कई वर्षों तक अकादेमी के कारकुन रहे और उसके सर्वोच्च प्रशासकीय पद से रिटायर होने के बाद भी एक्सटेंशन चाहते रहे और अभी कल तक उसकी सैकड़ों गतिविधियों के स्तंभ रहे। उनके पाखंड की पराकाष्ठा यह है कि अभी वह एक ऐसे बौद्धिक प्रतिष्ठान में हैं, जिसका सारा पैसा सरकारी है और जो घोषित और कानूनी रूप से शत-प्रतिशत एक केंद्रीय मंत्रालय की मातहत संस्था है। एक देवीजी सिख-संहार, बाबरी-विध्वंस और मेरठ-गुजरात के मृत मुसलमानों पर चुप रहीं। स्टेंस के परिवार को जला दिया गया। दलितों पर अनंत अत्याचार हो रहे हैं। अचानक इनका मौकापरस्त जमीर जाग उठा है। यह सारे लोग अकादेमी के पतन के न सिर्फ गवाह हैं, बल्कि उसमें सक्रिय रूप से शामिल रहे हैं।

ऐसा नहीं है कि प्रतिबद्ध लेखक संघों और छिटपुट प्रगतिकामी लेखकों ने अकादेमी की गिरावट की भर्त्सना या मुखालिफत न की हो, लेकिन मीडिया के लिए एक पुरस्कार को लौटाया जाना ज्यादा सनसनीखेज और प्रचार्य-प्रसार्य है, वह भी चंद दिनों के वास्ते। विडंबना यह है कि शायद कुछ हजार भारतीयों को छोड़कर न कोई अकादेमी को जानता है, न उसके पुरस्कृत लेखकों को। जब हमारा जमीर हजारों निरपराध इंसानों की हत्याओं के बाद नहीं जागता तो दाभोलकर, पानसरे और कलबुर्गी भारत में व्याप्त सांप्रदायिक, जातीय तथा ऊंच-नीच की हिंसा के बीच क्या औकात रखते हैं? जब हमारा समाज जागरूक होना ही नहीं चाहता, जब बुद्धिजीवियों ने खुद से और उससे विश्वासघात किया है तो कुछ लौटाए गए ईनाम और ओहदे क्या भाड़ फोड़ लेंगे?

कोई संस्था ऐसा नियम क्यों बनाएगी कि उसका दिया हुआ पुरस्कार लौटाया जा सके और वह उसे वापिस ले ले? बल्कि हो सकता है, जो किया भी जा सकता है, कि अब वह पहले लेखक से वचन ले कि वह उसे लौटाएगा नहीं या उसे ताकीद कर दे कि वह वापिस नहीं लिया जाएगा। यदि कोई उसके पदों से इस्तीफा देता है तब तो उसे मंज़ूर करना ही होगा लेकिन पुरस्कारों को वह अपनी सूची से हटा नहीं सकती, आप लाख कहते रहिए कि आपने उन्हें लौटा दिया। वह आपका चेक अपने खाते में जमा कर नहीं सकती तो आपने वापिस क्या किया? यह मानना पड़ेगा कि उदय प्रकाश के संदिग्ध नेतृत्व में कुछ लेखकों की इस पहल से एक दूध-जला वातावरण और पूर्वोदाहरण तो बना है, लेकिन यह बुद्धिजीवियों या आम लोगों का जनांदोलन शायद कभी नहीं बन नहीं सकेगा।

सरकारों तथा अकादमियों से व्यापक राजनीतिक, सामाजिक और सांप्रदायिक मसलों पर जिस तरह का शोक-प्रस्ताव लेखक और बुद्धिजीवी चाहते हों, यदि वह सर्वसम्मत भी हो तो उन्हें मिल नहीं सकता। हद से हद वह, जैसा कि दफ्तरी रिवाज है, खेद प्रकट कर सकती हैं और गोलमोल भर्त्सना कर सकती हैं। संस्कृति, कलाएं और साहित्य इस देश में दयनीय हाशिए पर हैं। कोई भी राजनीतिक पार्टी लेखकों के साथ नहीं है। देश के लाखों शिक्षक और वकील इस मसले पर उदासीन हैं। अखबार इसे समुचित गंभीरता से उठा नहीं रहे। भारत में सामूहिक अंतरात्मा है ही नहीं। असली या नकली सैद्धांतिक मतभेद, मोहभंग और सर्वसंशयवाद (सिनिसिज्म) इतने व्याप्त हैं कि लेखकों में ही एकजुट होकर सड़क पर उतरने का संकल्प नहीं है। ऐसे इस्तीफों, पुरस्कार-त्यागों से कुछ को थोड़ा सच्चा-झूठा कीर्ति-लाभ हो जाएगा, बायोडेटा में एक सही-गलत लाइन जुड़ जाएगी, अकादेमियां और सरकारें मगरमच्छी अश्रुपूरित नेत्रों से अपने बेपरवाह रोजमर्रा को लौट जाएंगी। 'अन्याय फिर भी चुगता रहे(गा) मेरे देश की देह।"

 

(लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं)