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इस अतिवाद का मुकाबला कैसे करें- योगेन्द्र यादव

एक ही महीने में राष्ट्रपति ने दूसरी बार सहिष्णुता की याद दिलाई है। प्रधानमंत्री ने भी दादरी में अखलाक की हत्या पर अफसोस जता दिया है। और तो और, अमित शाह ने बीजेपी के बड़बोले नेताओं को फटकार लगा दी है। कई लोग सोच रहे होंगे कि अब और क्या चाहिए? मन ही मन कह रहे होंगे कि अब तो दादरी वाले इस मुद्दे को खत्म करो।

टीवी चैनलों के न्यूज रूम में भी यही बात चल रही होगी। इसलिए हो सकता है कि आने वाले दिनों में यह मुद्दा अखबार की सुर्खियों से भी गायब हो जाए। अखलाक के परिवार को मुआवजा मिल जाएगा, साहित्य अकादेमी के पुरस्कार लौटाने वाले साहित्यकारों की सूची भुला दी जाएगी, बाकी घटनाओं से मीडिया का ध्यान हट जाएगा और बिहार चुनाव का बुखार उतरते-उतरते देश को क्रिकेट का बुखार चढ़ जाएगा। हालांकि देश भर में फैला सूखा तब भी खबर नहीं बनेगा। अखबार की सुर्खियों से उतरकर यह मुद्दा हमारे मुहल्ले में चला आएगा, हमारे दिल और दिमाग में अटका रहेगा।

लेकिन इससे दादरी का दर्द खत्म न होगा। यह सवाल लोगों के मन में कितना गहरा है, इसका एहसास एक बार फिर मुझे हाल ही में हुआ। मेरे राज्य के मुख्यमंत्री मनोहरलाल खट्टर का इंटरव्यू पढ़कर मुझे इतना बुरा लगा कि मैंने उसी दिन अपनी फेसबुक पर एक टिप्पणी पोस्ट की। बुरा इसलिए लगा कि यह इंटरव्यू सचमुच उनके मन की बात थी। खट्टर जी जान-बूझकर मुसलमानों को चिढ़ाने के लिए कुछ नहीं कह रहे थे। वह जानते थे कि वह इंटरव्यू दे रहे हैं और संभलते हुए अपनी तरफ से वह उदारता ही दिखा रहे थे। मुझे यही सबसे खतरनाक बात लगी कि एक सांविधानिक पद पर आसीन व्यक्ति के मन में इतना जहर है कि वह देश के नागरिकों के अपने ही पुरखों की जमीन पर रहने को एहसान समझता है, उन्हें धमकाने की शैली में बात करता है।

मैंने इस पर 17 अक्तूबर को लिखा- चाहे खट्टर जी हों या मोदी जी या उनके (संघ) परिवार के सदस्य, ये लोग एक बुनियादी बात समझने को तैयार नहीं हैं। मुसलमान और अन्य अल्पसंख्यक इस देश में किरायेदार नहीं हैं। वे इस देश के उतने ही मालिक हैं, जितने मनोहर लाल खट्टर या फिर नरेंद्र मोदी। जिनके पुरखे या उनकी राख इस देश की मिट्टी में है, वे सब इस देश के बराबर के मालिक हैं। यह हक उन्हें किसी सरकार से नहीं मिला है, न ही कोई इसे उनसे छीन सकता है। यह हक उन्हें भारत के संविधान से मिला है, आजादी के आंदोलन से मिला है, हजारों साल की सांस्कृतिक विरासत से मिला है।

संघ परिवार मन से इस देश के संविधान को मानने को तैयार नहीं है। इनका सपना भारत को पाकिस्तान जैसा बनाना है- एक हिंदू पाकिस्तान, जहां बहुसंखयक धर्म का बोलबाला हो। इनका सपना इस देश की सांस्कृतिक विविधता को नष्ट कर एक धर्म, एक भाषा, एक संस्कृति का वर्चस्व स्थापित करना है। हिंदू राष्ट्रवाद के नाम पर दिखाए जा रहे इस सपने का हमारे देश, हमारी संस्कृति व हिंदू धर्म से कुछ लेना-देना नहीं है। राष्ट्रवाद की यह समझ जर्मनी से उधार ली गई है। मगर यूरोप का यह बीज हमारी मिट्टी में फल-फूल नहीं सकता।

मुझे फेसबुक पर शायद ही किसी टिप्पणी के लिए इतनी प्रतिक्रिया मिली होगी, जितनी इस पोस्ट पर मिली। इसे कोई पांच लाख लोगों ने पढ़ा, लगभग 7,500 ने लाइक किया, 1,500 ने शेयर किया। सबसे बड़ी बात यह कि अब तक इस पर 1,363 टिप्पणियां की जा चुकी हैं। आप यह न समझें कि मैं यह सब आत्म-प्रशंसा में कह रहा हूं। उलटे, मैं इसलिए बता रहा हूं कि ज्यादातर टिप्पणियां नकारात्मक हैं। मामला सिर्फ वैचारिक असहमति या आलोचना तक सीमित नहीं है, बहुत-सी टिप्पणियों में मेरे विरुद्ध शुद्ध विष-वमन और गाली-गलौज है। काफी कुछ तो ऐसा है, जो प्रकाशित नहीं किया जा सकता। इसलिए आप खुद ही मेरे फेसबुक पेज पर जाकर पढ़ लीजिएगा।

इस जहर से कैसे निपटें? क्या इसे हल्का समझकर नजरअंदाज करना संभव है? मेरे दोस्त बताते हैं कि ये फेसबुक पर टिप्पणी करने वाले असली हिन्दुस्तान का आईना नहीं हैं। इनमें से अधिकांश शहरी, मध्य वर्ग के खाते-पीते लोग हैं। फेसबुक पर एक बड़ी संख्या तो प्रवासी भारतीयों की है। मेरे दोस्त कहते हैं कि इनकी बातों पर कान न दो, यह असली भारत की आवाज नहीं है। चाहूं तो उनकी बातों को हंसकर टाल भी सकता हूं। जो इतनी आक्रामक भाषा और गालियों से अपनी संस्कृति को उदार व सहिष्णु साबित करना चाहें, उन पर हंसे नहीं, तो क्या करें? हाथ जोड़कर इतना तो कह सकता हूं कि आप अपने पुष्पगुच्छ अपने पास रखिए। यह भाषा मेरी नहीं है, यह आपको ही शोभा देती है। या फिर इन आक्रामक सवालों का एक-एक करके जवाब दे सकता हूं। 'आप कश्मीरी हिंदुओं के दर्द पर चुप क्यों रहते हैं?' सफाई दे सकता हूं कि मैं इस पर कभी चुप नहीं रहा। 'मानवाधिकारों की बात करने वाले पाकिस्तान और बांग्लादेश में हिंदुओं की दशा पर क्यों नहीं बोलते?' याद दिला सकता हूं कि इस दोनों देशों के मानवाधिकार संगठनों ने बहुत ईमानदारी से इस सवाल पर आवाज उठाई है। 'आपको पता है मुस्लिम आबादी कितनी बढ़ रही है?' जवाब में सही आंकड़े दिखा सकता हूं, चिंता का समाधान कर सकता हूं। 'बंटवारे में मुसलमानों को अपना देश मिल गया, अब हमारे देश में वे हिस्सा क्यों जताते हैं?' जवाब में देश के बंटवारे के इतिहास को दोहरा सकता हूं।

लेकिन इस सबसे यह जहर मिटेगा नहीं। इस आवाज को नजरअंदाज करना, हंसकर उड़ा देना, इसे दूर से लौटा देना उतना ही गलत है, जितना कि इनमें से हर एक सवाल का जवाब देना। सेक्युलर आंदोलन ने आज तक यही गलती की है।

 

इन सब अपशब्दों, गाली-गलौज और आक्रामक भाषा के पीछे कहीं एक सच्ची चिंता छिपी है- अपने ही देश में अपनी संस्कृति के हाशिये पर जाने की चिंता। अपनी भाषा, रस्मों और परंपराओं से कट जाने की चिंता। हमारे सेक्युलर बुद्धिजीवियों ने इस चिंता को कभी समझा नहीं, उलटे अपनी अंग्रेजी में इसका मजाक उड़ाया। इसी के चलते बहुत से लोगों को मौका मिला कि वे इस चिंता को धर्म का जामा पहनाकर अपनी घृणा की राजनीति चमका सकें। अगर इसका मुकाबला करना है, तो सेक्युलरवाद को अपनी भाषा बदलनी होगी, इस देश की परंपराओं से नए सिरे से रिश्ता कायम करना होगा। नहीं तो दादरी का दर्द हमारे पूरे शरीर में फैल जाएगा।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)