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इस आधार को चाहिए नया विस्तार-- नंदन नीलेकणि

आधार इसलिए बनाया गया था, ताकि तमाम लोगों को एक अद्वितीय व डिजिटल पहचान दी जा सके। मगर आज खुद आधार की पहचान सवालों के घेरे में है। ऐसे कई लोग हैं, जो यह बताते नहीं थकते कि आधार एक बचत योजना है। अपने तर्कों में वे इसे एक अप्रभावी बचत योजना भी कहते हैं। चूंकि आधार-निर्माण की प्रक्रिया में मैं भी शामिल रहा हूं, इसलिए यह दावे से कह सकता हूं कि इसे हमने एक योजना के रूप में कभी नहीं देखा। इसे तो यूनिवर्सल डिजिटल इन्फ्रास्ट्रक्चर (सार्वभौमिक डिजिटल संरचना) के रूप में गढ़ा गया है।

इसी भ्रम के कारण, हम ऐसे विवादों में उलझे हुए हैं, जो दूसरे इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट में देखने को नहीं मिलते। क्या सरकार कभी भी हाईवे बनाने से महज इसलिए मना कर सकती है कि उसका इस्तेमाल चोर-उचक्के या तस्कर वगैरह भी कर सकते हैं? क्या कोई यह कह सकता है कि हमें राजमार्गों को तोड़ देना चाहिए, क्योंकि सभी के पास कार नहीं है? क्या कोई यह भी कह सकता है कि अगर सरकार कोई सड़क बना रही है, तो उस पर सिर्फ सरकारी गाड़ियां दौड़नी चाहिए? इन और ऐसे तमाम सवालों के जवाब ‘नहीं' में ही होंगे। लिहाजा आधार को लेकर भी हमें मूल रूप से यही पूछना चाहिए कि क्या इस तरह का कोई सार्वभौमिक ढांचा लोगों के व्यापक हित में है अथवा नहीं? मेरी नजर में यह कई वजहों से लोगों के व्यापक हित में है।


पहली, आधार वहां तक पहुंच व समावेशन का दायरा बढ़ाता है, जहां बाजार पारंपरिक तौर पर विफल साबित होता है। म्यूचुअल फंड का ही उदाहरण लें। जब तक आधार आधारित ई-केवाईसी लागू नहीं हुआ था, तब तक केवाईसी यानी अपने कस्टमर को पहचानने की भौतिक प्रक्रिया में लगभग 1,500 रुपये खर्च हो जाते थे। इस कारण पहले यही समझ थी कि कम से कम तीन लाख रुपये का निवेश करने वाले लोग ही इसके व्यावहारिक कस्टमर हैं। मगर आज हम हर जगह ये सुन सकते हैं कि ‘म्यूचुअल फंड सही है'। क्या हमें इसके लिए ई-केवाईसी का शुक्रिया अदा नहीं करना चाहिए, जिसने इसमें निवेश की रकम कम कर दी? अब एसआईपी (सिस्टमेटिक इन्वेस्टमेंट प्लान) लोग 100 रुपये से भी शुरू कर सकते हैं। अकेले पिछले वर्ष छोटे शहरों से म्यूचुअल फंड में 46 फीसदी निवेश बढ़ा है और यह अब 41 खरब रुपये हो गया है। इससे यह भी जाहिर होता है कि हमारी निर्भरता विदेशी पूंजी पर घट रही है और घरेलू निवेशकों की संख्या प्रभावी तरीके से बढ़ रही है।

दूसरी, यह दुखद है कि जब भी कुलीन वर्ग निजी स्कूलों, स्वास्थ्य सेवाओं व परिवहन के सार्वजनिक ढांचे से अलग होता है, तो संबंधित सेवाएं प्रभावित हो जाती हैं। सिर्फ गरीबों के इस्तेमाल के लिए बने ढांचे को सुधारने के प्रयास बमुश्किल होते हैं। इसका कारण यह है कि वे अपने हक-हुकूक की आवाज बुलंद नहीं कर पाते। मगर सार्वभौमिक पहुंच सुनिश्चित होने से सार्वजनिक सेवाएं मुहैया कराने वाली संस्थाएं इन्हीं लोगों के प्रति ज्यादा जिम्मेदार या जवाबदेह हो जाती हैं, क्योंकि सार्वभौमिक पहुंच लोगों को मुखर बनाती है।

तीसरी, राज्य जब कभी सार्वजनिक वस्तुओं का उत्पादन बंद कर देता है, तो निजी क्षेत्र उस खालीपन को भरने के लिए आगे आता है। इस संदर्भ में डिजिटल पहचान को भी देखने की जरूरत है। आज ऐसी पहचान मुहैया कराने वाली कंपनियां वैश्विक स्तर पर दिग्गज कंपनियों में शुमार हैं। उनका कहा हुआ ‘ऑब्जेटिव' (उद्देश्य) होता है कि ‘आपसे बेहतर, आपको जानना'। आखिर क्यों, ताकि वे आपको विज्ञापन व उत्पाद बेच सकें। वास्तव में, यह कारोबार इतना ज्यादा फायदेमंद हो चुका है कि ऐसी कंपनियां दूसरी सेवाओं को सिर्फ क्रॉस-सब्सिडी (एक वर्ग से अधिक कीमत वसूलकर दूसरे वर्ग को सब्सिडी देना) ही नहीं देतीं, बल्कि वे मुफ्त में भी मुहैया कराती हैं। इस तरह, वे आपकी अधिक से अधिक जानकारियां हासिल करती हैं। इतना ही नहीं, ये आंकड़े भारत में रखे भी नहीं जाते, और विदेशी सरकारों के लिए सुलभ होते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि हमारी निजी जानकारियों पर ही हमारा कोई हक नहीं रहता। हम यह भी तय नहीं कर सकते कि उसका कब और कहां इस्तेमाल किया जाना चाहिए।


ऐसी सूरत में, मैं उन राजकीय संस्थानों पर ही भरोसा करूंगा, जिन पर न्यायिक व संसदीय नियंत्रण है। वे डाटा कारोबार में भी शामिल नहीं हैं। सर्वज्ञाता आईडी (पहचान) के उलट आधार महज एक मूक आईडी है। यह निजी कंपनियों को आपकी सहमति से ही जानकारियां देता है, वह भी सिर्फ जनसांख्यिकीय विवरण व आपकी तस्वीर। आधार आपकी पसंद-नापसंद जैसी नितांत निजी जानकारियां किसी से साझा नहीं करता।

इसमें दो राय नहीं है कि आधार की गोपनीयता और सुरक्षा को लेकर हमें एक मजबूत नियंत्रण-तंत्र बनाना चाहिए। मगर सुरक्षा व गोपनीयता की जरूरत का मेरा यह तर्क आधार डाटा तक निजी कंपनियों की पहुंच के खिलाफ नहीं है। वास्तव में, यह सार्वभौमिक पहुंच सुनिश्चित कराने की एक बड़ी वजह है। मेरी नजर में सार्वभौमिक पहुंच का मतलब सार्वभौमिक निगरानी भी है। निजी पहुंच को व्यवस्थित करने के लिए हम जिस तरह के लोकतांत्रिक नियंत्रण व संतुलन की व्यवस्था करेंगे, वह सरकारी कामकाज को भी व्यवस्थित करेगी।

ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि सार्वजनिक पूंजी से तैयार उन्नत तकनीकी ढांचा सार्वभौमिक उपयोग के लिए खोले जाने से अधिक बेहतर तरीके से उभरकर सामने आया हो। इससे पहले सिर्फ अमेरिकी हुकूमत ने जीपीएस जैसा कुछ बनाने के लिए जरूरी सैटेलाइट इन्फ्रास्ट्रक्चर विकसित किया था। जीपीएस मुख्यत: अमेरिकी सैनिकों के लिए बनाया गया था, लेकिन इसके रिसीवर काफी महंगे थे। मगर आज अमेरिकी सैनिक सस्ते जीपीएस रिसीवर इस्तेमाल करते हैं, क्योंकि अब इसे निजी कंपनियां तैयार कर रही हैं। ठीक यही कहानी इंटरनेट की भी है। कल्पना कीजिए, यदि डिफेंस एडवांस्ड रिसर्च प्रोजेक्ट एजेंसी (डीएआरपीए) इंटरनेट को महज सरकारी कामकाज तक सीमित रखती और इसका दरवाजा निजी कंपनियों के लिए नहीं खोलती, तो क्या होता? लिहाजा आज स्मार्टफोन पर उंगली रख देने भर से यदि आपके दरवाजे पर गाड़ी आकर खड़ी हो जाती है, तो याद रखिए कि ऐसा इसलिए मुमकिन हुआ है, क्योंकि सार्वजनिक पूंजी से तैयार डिजिटल ढांचा अब हर किसी की पहुंच में है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)