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इस तरह न याद करें महात्मा गांधी को-- रामचंद्र गुहा

महात्मा गांधी की मृत्यु के तुरंत बाद उनकी स्मृति को बनाये रखने, उनके कामों को सम्मान देने की अनेक खबरें कई समाचार पत्रों में कई दिनों तक छपती रही थीं. ऐसी कुछ खबरें मैंने दिल्ली में राष्ट्रीय अभिलेखागार में अध्ययन करते हुए पढ़ी थीं. जैसे इस खबर को ही लीजिए- सन् 1948 में मार्च महीने की तीन तारीख को ‘न्यू उड़ीसा' नाम के अखबार में लिखा गया था कि बिहार विधानसभा में पूरनचंद्र मित्र ने एक अनोखा प्रस्ताव सदन में रखा. इस प्रस्ताव में उन्होंने मांग की कि भारत का नाम बदल कर ‘गांधिस्तान' कर दिया जाये.

इसी समय के आसपास ‘इस्ट बंगाल टाइम्स' में 22 मार्च, 1948 को एक खबर छपी. इसमें बताया गया कि सियालदह में हिंदू और मुसलिम औरतों ने यह राय की है कि वे सब मिलकर वहां एक गांधी स्मृति हाॅल बनायेंगी. यहां वे औरतों के लिए पुस्तकालय, क्लब, कुटीर उद्योग और गांधी शिक्षा के कार्यक्रम करवाया करेंगी. इससे भी कहीं ज्यादा महत्वाकांक्षी योजना कई राष्ट्रीय समाचार पत्रों में पहली मार्च, 1948 को छपी. खबर के मुताबिक, ठीक एक दिन पहले यानी 29 फरवरी को नवानगर के जाम साहब ने गांधीजी की एक मूर्ति की आधारशिला रखी. यह बंबई के उत्तर में पंद्रह मील दूर चांदीविली गांव के नजदीक एक पहाड़ी पर रखी गयी. इस खबर में यह भी बताया गया कि इस पहाड़ की ऊंचाई 694 फीट है और इस मूर्ति की ऊंचाई 89 फीट होगी. यानी गांधीजी के जीवन के 89 वर्ष के बराबर लंबी मूर्ति!

उस समय नवानगर के जाम साहब काठियावाड़ी राज्यों के संघ के राजप्रमुख थे. गांधीजी भी काठियावाड़ के महान सुपुत्र थे. इस महान सुपुत्र की मूर्ति के लिए रखा जानेवाला पहला पत्थर वरिष्ठ कांग्रेसी और मुख्यमंत्री यूएन ढेबर ने रखा था. राजकोट और पोरबंदर रियासत के राज्यों से गांधीजी का जुड़ाव था. लेकिन इन राज्यों के पुराने शासक इस कार्यक्रम में कहीं नहीं दिखे थे. भावनगर और मोरवी के महाराजा इस कार्यक्रम में अवश्य उपस्थित हुए थे. वकील से राजनेता बननेवाले केएम मुंशी, बंबई कांग्रेस समिति के प्रभावशाली नेता एसके पाटिल, वल्लभभाई पटेल के पुत्र दयालभाई पटेल और बंबई के मेयर आदि लोग इस अवसर पर उपस्थित थे. चांदीविली पहाड़ के ऊपर होनेवाली बैठक का नाम गांधी शिखर बैठक रखना तय हुआ था. यदि गांधीजी की 89 फीट बड़ी प्रतिमा बन कर पूरी होती, तो वह मीलों दूर से दिखलाई पड़ती. इस योजना में 89 खंभे बनवाने का भी विचार था. इन खंभों को एक-दूसरे से थोड़ी-थोड़ी दूरी पर लगा कर पहाड़ के चारों ओर नीचे एक परिक्रमा मार्ग भी निर्मित करवाने का विचार था.

साथ ही हर खंभे पर गुजराती और अंगरेजी में गांधीजी के जीवन से जुड़ी प्रमुख घटनाओं को भी उकेरने की बात तय की गयी थी. यह योजना जन्मभूमि समाचार समूह के उस समय के संपादक अमृतलाल सेठ ने बनायी थी. लेकिन फिर यह योजना शिलान्यास से आगे नहीं बढ़ पायी. बंबई के उत्तरी हिस्से में रहनेवाले एक जाने-माने इतिहासकार ने बताया कि उन्होंने बाद में कभी भी इस योजना के बारे में कुछ नहीं सुना. और गूगल पर गांधी के साथ चांदीविली खोजने पर भी मेरे कुछ हाथ नहीं लगा. इस तरह की बड़ी और सनक भरी योजनाएं उन लोगों को बहुत परेशान करती रही हैं, जो गांधी की वास्तविक धरोहर को ज्यादा समझते हैं. एस मुथुलक्ष्मी एक समाज सेविका थीं. वे इस तरह से गांधी की प्रतिमा, मंदिर आदि बनाये जाने का विरोध करती रहीं. ऐसी बेमतलब की योजनाओं के बदले समाज और देश की सेवा के लिए गांधीजी के ही कामों को आगे बढ़ाना चाहिए, ऐसा वे मानती थीं.

उस समय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू थे. उन्होंने भी गांधी की मृत्यु के बाद बहुत सारी जगहों के नाम बदल कर गांधीजी के नाम पर रखने की सनक पर दुख ही जताया था- ‘इस समय यह सनक अगर नहीं रोकी गयी, तो हजारों सड़कों, पार्कों और चौराहों का नाम गांधी के नाम पर रख दिया जायेगा. यह काम जितना सुनने में व्यर्थ लगेगा, देखने में उससे भी ज्यादा खराब लगेगा. इस काम से न तो लोगों को कोई सुविधा होगी और न राष्ट्रपिता के सम्मान में कोई वृद्धि होगी. इससे तो सिर्फ लोग अपना रास्ता भटकेंगे. यह ऊबाऊ भी लगेगा. यह प्रवृत्ति चलती रही, तो हम में से ज्यादातर लोग तब गांधी मार्गों, गांधी नगरों और गांधी ग्रामों में रहनेवाले हो जायेंगे!' सामान्य विचार वाले लोगों का इस सनक से मोहभंग भी हुआ. सन् 1948 की पहली मार्च को स्टेट्समैन अखबार में संपादक के नाम एक पत्र छपा था. यह पत्र रंगून में रह रहे भारतीय श्री वी रमन नायर का था. इसमें उन्होंने बड़े कम शब्दों में यह बताया कि गांधी के नाम को इस तरह याद करने का एक नुकसान है.

इससे स्वाधीनता के लिए लड़नेवाले अन्य नेता भी वैसा ही काम अपनी मृत्यु के बाद खुद के लिए जरूर करवाना चाहेंगे. और तब कुछ सौ वर्ष बाद हम पा सकते हैं कि मद्रास में किसी मोहल्ले का नाम महात्मा गांधी मोहल्ला होगा, तो पंजाब में किसी नदी का नाम पंडित नेहरू और बंबई में किसी दुकान का नाम सरदार पटेल. अपने पत्र में श्री नायर ने आगे कहा कि नाम बदलने का हमारा यह उत्साह यह भूल जाता है कि मूल नाम के पीछे एक सांस्कृतिक और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि भी रहती है और लोगों की स्मृति में उस नाम के साथ वह सब अभिन्न रूप से जुड़ा रहता है. इसलिए नाम बदलने का मतलब है लोगों की स्मृति को बदलने की कोशिश.

यदि हर समय में नाम बदलने की यह विचित्र प्रवृत्ति बनी रहती तो गंगा, हिमालय और ताजमहल के भी नये नाम रखे जा चुके होते. अगर साबरमती और शांति निकेतन का नाम बदल कर उनके नाम पर रख दिया जाये, जिन्होंने इन्हें बनाया है, तो इन स्थानों से जुड़ा परिचय और लगाव ही खत्म हो जायेगा. मैं सी राजगोपालाचारी के मत को आपके सामने रखते हुए एक छोटी-सी टिप्पणी करना चाहूंगा. राजगोपालाचारी (राजाजी) गांधीजी के अनुयायियों में से एक थे. गांधीजी की जब हत्या हुई, उस समय राजाजी पश्चिम बंगाल के गवर्नर थे.

नेहरू और मुथुलक्ष्मी की ही तरह वे भी किसी बड़े सामाजिक कार्य को करना ज्यादा जरूरी समझते थे, बजाय इसके कि गांधीजी के नाम पर प्रतिमाएं और इमारतें बनायी जाएं. आॅल इंडिया रेडियो कलकत्ता से 28 फरवरी, 1948 को राजाजी ने एक बड़ी बात कही थी. उन्होंने कहा था कि गांधी धार्मिक सद्भाव के लिए जिये और मरे भी इसी के लिए. इसलिए हिंदू-मुसलिम एकता ही गांधीजी को याद करने का एक मात्र स्मारक हो सकता है. यह स्मारक आज तक नहीं बन पाया है.

(‘गांधी मार्ग', जनवरी-फरवरी, 2016 से साभार)