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'ईको टॉयलेट तकनीक डीआरडीओ से बेहतर

ट्रेनों में डीआरडीओ द्वारा तैयार बायो टॉयलेट्स लगाने की योजना के बीच पुणे के एक प्रोफेसर ने दावा किया है कि उनके द्वारा तैयार ग्रीन टॉयलेट्स का प्रोजेक्ट ज्यादा बेहतर और कारगर है और इससे पैसों की कमी से जूझ रहे रेलवे को काफी फायदा होगा।

सिन्हागढ़ डेंटल कॉलेज में माइक्रोबायोलॉजी विभाग के प्रमुख राजीव सक्सेना के मुताबिक नई तकनीक के ये टॉयलेट्स उन्होंने और उनके छात्रों की टीम ने तैयार किए हैं, जो भारतीय परिस्थितियों में पूरी तरह से काम कर सकते हैं।

राजीव ने इस संबंध में बताया कि रेलवे जिस तकनीक को अपनाने जा रहा है, वह अलग अलग मौसम के लिहाज से पूरी तरह कारगर नहीं है। लेकिन हमने जिस तकनीक को ईजाद किया है वह हर तरह के मौसम में काम कर सकती है वो भी बिना किसी इंसानी दखल के। उन्होंने कहा कि वे जल्द ही रेलवे बोर्ड के सामने अपनी इस तकनीक का प्रजेंटेशन देने की सोच रहे हैं। इस तकनीक में रेलवे कोच के नीचे टॉयलेट कंटेनर लगाया जाना है।

इस कंटेनर में थर्मल प्लेटों का इस्तेमाल किया जाएगा। थर्मल प्लेटें गर्म होंगी जिससे कंटेनर में मौजूद मानव अवशिष्ट बैक्टीरिया मुक्त हो जाएगा। इसके बाद वाशिंग यॉर्ड में ट्रेन में लगे कंटेनर से बायो वेस्ट को एक पाइप के जरिए खाली किया जा सकता है। सक्सेना के मुताबिक कंटेनर से निकाले गए बायो वेस्ट का खाद बनाने या फिर बायोगैस प्लांट्स में इस्तेमाल किया जा सकता है। इससे रेलवे को अपनी आमदनी बढ़ाने में भी मदद मिलेगी।

डीआरडीओ द्वारा तैयार बायो टॉयलेट प्रोजेक्ट से तुलना करते हुए सक्सेना ने बताया कि उनके द्वारा तैयार तकनीक में पहले से लगे टॉयलेट्स को हटाने या बदलने की जरूरत नहीं है। उन्होंने कहा कि मौजूदा टॉयलेट्स को सिर्फ पाइप के जरिए कंटेनर से जोड़ा जाना होगा। जबकि डीआरडीओ के टॉयलेट्स लगाने में पूरे सिस्टम को बदलना होगा।

इसमें एक कोच पर करीब एक लाख रुपये की लागत आएगी। एक अनुमान के अनुसार ट्रेनों के 40 हजार कोचों में लगे 1.60 लाख टॉयलेट्स रोजाना इस्तेमाल होते हैं। इस दौरान मानव अवशिष्ट सीधे पटरियों तक पहुंचता है। इससे पर्यावरण के अलावा पटरियों को भी नुकसान पहुंचता है। रेलवे के मुताबिक पटरियों में ज़ंग लगने से हर साल लगभग 350 करोड़ रुपए का नुकसान होता है।