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उच्च सदन में दलितों की जगह- मोहनदास नैमिशराय

राज्यसभा के इस बार के चुनाव में भी, हमेशा की तरह, दलित समाज की अनदेखी की गई। लगभग पचास प्रत्याशियों में से दो अदद सीटें दलितों के हिस्से में आईं। पहली सीट मध्य प्रदेश से भाजपा के सत्यनारायण जटिया को मिली और दूसरी महाराष्ट्र से रामदास आठवले को। रामदास आठवले खुद आईपीआई (ए) के अध्यक्ष हैं, लेकिन भाजपा की मदद से उन्हें राज्यसभा में जाने का अवसर मिला। इससे पूर्व आठवले शिवसेना के साथ थे, और उससे भी पहले एनसीपी के साथ। यह बार-बार कहा जाता है कि दलित राजनेताओं ने भी अपने समाज का कोई व्यापक हित नहीं किया है। रामदास आठवले का उदाहरण है, जो अपना राजनीतिक अस्तित्व बचाने के लिए किसी भी पार्टी के साथ हो जाते रहे हैं। यानी हताशा दोहरी है।

पिछले छह दशक के राज्यसभा की चुनावी प्रक्रिया को देखा जाए, तो दलितों के प्रतनिधित्व के बारे में हमें ऐसी ही निराशाजनक तस्वीर दिखती है। एक या दो दलितों को उच्च सदन में ले तो लिया जाता है, लेकिन उसके पीछे इस समाज को शक्ति देने या इसका सम्मान करने की इच्छा नहीं, बल्कि शुद्ध राजनीति की मंशा रहती है। लोकतांत्रिक भारत के करीब साढ़े छह दशक के दौरान यह बखूबी देखा गया कि समाज के जिस वंचित वर्ग को आगे बढ़ाने के लिए संविधान निर्माताओं ने प्रावधान किए थे, उन्हीं को लगातार हाशिये पर रखा गया। अव्वल तो राज्यसभा को जिस तरह हारे हुए राजनेताओं तथा पूंजीपतियों को संसद में लाने का मंच बना दिया गया है, वही बहुत आपत्तिजनक है। तिस पर समाज के योग्य लोगों को उच्च सदन में लाने के प्रति इसीलिए उपेक्षा बरती जाती है कि वे न तो पैसे की थैली खोल सकते हैं, न ही राजनीतिक पार्टियों के किसी काम आ सकते हैं। दलित प्रतिभाओं की भी इसीलिए उपेक्षा होती है।

बाबू जगजीवन राम के समय में कांग्रेस से नागपुर के भगत नाम के व्यक्ति को लिया गया। चौधरी चांदराम स्वयं देवीलाल की मदद से राज्यसभा में आए। बाद के दौर में राजस्थान से कांग्रेस से जमुना देवी बारुपाल आईं, तो इसी पार्टी से सत्या बहन राज्यसभा में लाई गईं। भाजपा भी समय-समय पर कुछ दलितों को राज्यसभा में लाती रही। रामनाथ कोविद या संघप्रिय गौतम ऐसे ही नाम हैं। अलबत्ता इन दोनों पार्टियों की तुलना में बहुजन समाज पार्टी का रुख ज्यादा कठोर रहा। मायावती से यह उम्मीद की जाती थी कि वह उन प्रतिभावान और जुझारु लोगों को तरजीह देंगी, जिनके बलबूते पर वह सत्ता तक पहुंची थीं। लेकिन ऐसा नहीं हो सका।

ऐसा नहीं है कि उच्च सदन में लाने के लिए दलित समाज में कोई नहीं है। यहां ऐसे लेखकों, पत्रकारों, लोक गायकों या नाटककारों की कमी नहीं है, जिन्होंने उल्लेखनीय काम किया है। इसके बावजूद उत्तर प्रदेश की सत्ता में बार-बार आने के बावजूद मायावती इन सबको नजरंदाज करती रहीं। आखिर क्यों​? यह मान सकते हैं कि दूसरी राजनीतिक पार्टियों के लिए दलित समाज सिर्फ उनकी राजनीति का एक हिस्सा है। जब तक दलित समाज से उनके हित सधेंगे, तब तक वे इसके साथ बने रहेंगे। लेकिन दलित नेताओं और दलितों को विकास की मुख्यधारा में लाने की बात करने वाली राजनीतिक पार्टियों से तो यह उम्मीद की ही जा सकती है कि वे अपने समाज के उल्लेखनीय लोगों को आगे बढ़ाएंगे। लेकिन इस मामले में मायावती अकेली नहीं हैं। दलित समाज से आने वाले दूसरे नेताओं ने अपने वर्ग के प्रतिभाशाली लोगों के बारे में नहीं सोचा। कभी बाबू जगजीवन राम ने जरूर भारतीय दलित साहित्य अकादमी के माध्यम से कुछ दलित लेखकों, साहित्यकारों से संपर्क साधा था। उन्हें वह अपने घर पर चाय या भोजन पर आमंत्रित भी करते थे। लेकिन यह सब इतिहास की बात हो गई है।

जिस पार्टी के प्रधानमंत्री ही राज्यसभा से हों, उससे उच्च सदन की गरिमा लौटाने की उम्मीद नहीं की जा सकती। उससे यह भी अपेक्षा नहीं है कि वह राजनीति से इतर क्षेत्र की प्रतिभाओं को राज्यसभा में लाने का काम करेगी। पर जो नेता सतह से उठकर आए हैं, जो लोग सवर्ण समाज की उपेक्षा सहकर भी राजनीति की ऊंचाइयों पर पहुंचे हैं, कम से कम वे तो दलित समाज के बारे में संपूर्णता से सोचें।