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उड़ती उदारता के पैर हैं नदारद-- अनिल रघुराज

आर्थिक विकास का मतलब अगर देशी-विदेशी कंपनियों के मुनाफे और शेयर बाजार का बढ़ना है, तो देश ने यकीनन पिछले 25 सालों में अच्छा विकास किया है. बीएसइ सेंसेक्स 29 जुलाई, 1991 को 1637.70 पर बंद हुआ था. अभी 29 जुलाई, 2016 को 28,051.86 पर बंद हुआ है. 25 साल में 1612.88 प्रतिशत वृद्धि या 12.03 प्रतिशत की सालाना चक्रवृद्धि दर. बाजार में इस दौरान विषमता भी घटी है. 1991 में सेंसेक्स में शामिल 30 कंपनियों में सबसे बड़ी कंपनी का बाजार मूल्य सबसे छोटी कंपनी के बाजार मूल्य से 120 गुना बड़ा था. अभी 2016 में सबसे बड़ी कंपनी सबसे छोटी कंपनी से मात्र 14 गुना बड़ी है.

वहीं, भारतीय समाज में सबसे गरीब आदमी और सबसे अमीर शख्स की तुलना करेंगे, तो सारे कैल्कुलेटर फट जायेंगे. सबसे अमीर मुकेश अंबानी. सबसे गरीब निरहू, घुरहू, कतवारू जैसे करोड़ों नामों में से कोई भी चुन लें. हां, मोटा अनुमान है कि इन 25 सालों में सबसे कम मजदूरी और सबसे ज्यादा वेतन का अंतर कम-से-कम दोगुना हो चुका है. यानी, पहले सौ गुना था, तो अब दो सौ गुना हो चुका है. विषमता की माप के लिए दुनिया भर में सर्वस्वीकृत पैमाना गिनी गुणांक है. यह गुणांक शून्य हो, तो मतलब उस देश में सभी समान है और एक हो, तो वहां भयंकर विषमता है. भारत में यह गुणांक 1991 में 0.34 था. अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष (आइएमएफ) का ताजा अनुमान है कि यह गुणांक 2013 तक बढ़ कर 0.51 हो चुका है.

आर्थिक विकास के मूलाधार पर पहुंचने के लिए याद करना जरूरी है कि देश में आर्थिक उदारीकरण के प्रणेता और भारत सरकार में आर्थिक सलाहकार, रिजर्व बैंक के गवर्नर, वित्त मंत्री और प्रधानमंत्री तक रह चुके डॉ मनमोहन सिंह ने 1992 में अपने ऐतिहासिक बजट भाषण में कहा था कि आर्थिक सुधारों का अंतिम उद्देश्य ऐसे उद्योगों को बढ़ावा देना है, जो श्रम का गहन उपयोग करें, अर्थव्यवस्था के उत्पादक क्षेत्रों में रोजगार पैदा करें और आय की विषमता को कम करें.

आय की विषमता का हाल हमने देख लिया. अब जानने की कोशिश करते हैं कि इन 25 सालों में रोजगार की क्या स्थिति रही है. दिक्कत यह है कि यहां इतना धुंधलका है कि बार-बार आंखें मलने के बाद भी कुछ साफ नहीं दिखता. पहली बात कि देश की अर्थव्यवस्था संगठित व असंगठित क्षेत्र में बंटी हुई है. संगठित क्षेत्र में सरकार और निजी कॉरपोरेट क्षेत्र आते हैं. असंगठित क्षेत्र में स्वरोजगार में लगे लोग, दुकानदार और छोटे काम-धंधे आते हैं. रोजगार से लेकर निर्यात तक में आधे से ज्यादा योगदान के बावजूद असंगठित क्षेत्र का साफ नक्शा देश के सामने नहीं है.

इससे भी बड़ी दिक्कत यह है कि कुछ दशकों बाद विश्व की महाशक्ति बनने जा रहे भारत के पास रोजगार की स्थिति अंतिम आंकड़ा मार्च 2012 तक का है. इसके मुताबिक, 2011-12 में देश में कुल 42 करोड़ लोगों को रोजगार मिला हुआ था. इसमें से 2.96 करोड़ लोग संगठित क्षेत्र में लगे हुए थे. बाकी 90.95 प्रतिशत लोग असंगठित क्षेत्र में. 1991 में संगठित क्षेत्र में कुल 2.67 करोड़ लोगों को नौकरी मिली हुई थी. यानी, 21 साल में संगठित क्षेत्र में रोजगार के अवसर मात्र 29 लाख बढ़े हैं. 25 में से बाकी चार साल में यह बढ़े नहीं, बल्कि घटे ही होंगे, क्योंकि ताजा आर्थिक सर्वेक्षण के मुताबिक 1997 में संगठित क्षेत्र में कार्यरत पुरुषों की संख्या 2.36 करोड़ थी, जो 2012 तक एक लाख घट कर 2.35 करोड़ पर आ गयी.

कमाल है कि इन आंकड़ों के बीच भी भारत सरकार का सांख्यिकी मंत्रालय बताता है कि हमारे यहां आम बेरोजगारी की दर गांवों में 2.3 प्रतिशत और शहरों में 3.8 प्रतिशत है. इन आंकड़ों पर कोई न हंस सकता है, न रो सकता है. केवल अपना सिर फोड़ सकता है. दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था अमेरिका ने बेरोजगारी की दर को 6.5 प्रतिशत लाने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया. और, हमारी सरकार का आंकड़ा खुद को उससे बेहतर स्थिति में बताता है. शुक्र की बात है कि इस विद्रूप से निजात पाने के लिए देश के सबसे पुराने स्टॉक एक्सचेंज, बीएसइ ने प्रमुख आर्थिक संस्था सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआइइ) के साथ मिल कर बेरोजगारी का अद्यतन आंकड़ा देना शुरू किया है. 29 जुलाई, 2016 तक के 30 दिनों के मूविंग औसत के आधार पर भारत में बेरोजगारी की दर 9.29 प्रतिशत है.

यह आर्थिक मानदंडों पर सटीक हो सकता है, क्योंकि सीएआइइ जैसी संस्था इसके साथ जुड़ी है. लेकिन क्या यह वास्तविकता को दर्शाती है? बेरोजगारी की दर की गणना इससे की जाती है कि रोजगार की तलाश में लगे कितने लोगों को नौकरी मिल पाती है. इस संदर्भ में चंद उदाहरण पेश हैं. अगस्त 2015 में उत्तर प्रदेश सचिवालय में चपरासी की 368 रिक्तियों के लिए 23 लाख आवेदन आये, जिसमें से 2.22 लाख अभ्यर्थी इंजीनियर और 255 पीएचडी थे. कितने चाहनेवालों को नौकरी नहीं मिली, गिन लीजिये. उसी महीने छत्तीसगढ़ सरकार के आर्थिक व सांख्यिकी निदेशालय में चपरासी के 30 पदों के लिए 75,000 से ज्यादा आवेदन आये. जून 2016 में मध्य प्रदेश में चतुर्थ श्रेणी का कर्मचारी बनने के लिए 34 पीएचडी और 12,000 इंजीनियरों ने भी अर्जी लगायी, जबकि इसके लिए 10वीं पास ही काफी था.

कायदे से गिन लीजिये. प्रतिशत इतना निकलेगा कि कलेजा बैठ जायेगा. ऊपर से कहते हैं कि भारत की विडंबना यह है कि यहां नौकरियां तो बहुत हैं, लेकिन नौकरी पर रखने के काबिल लोग नहीं मिलते. यहां एक ताजा तथ्य देना प्रासंगिक होगा. रेल मंत्रालय के आंकड़ों के मुताबिक, 1 अप्रैल, 2016 तक भारतीय रेल में ग्रुप-सी में सुरक्षा श्रेणी के 1,22,763 पद खाली पड़े हैं. क्या इस काम के काबिल नौजवान भी सरकार को नहीं मिल पा रहे हैं? सोचिये, कहीं उदार सोच की नीयत में तो खोट नहीं है? एक बात और नोट कीजिये कि हमारे यहां नौकरियां चाहनेवाले आरक्षण मांगते हैं, जबकि अधिकतर भारतीय नौजवान नौकरी लेना नहीं, नौकरी देना चाहते हैं. वे किसी की चाकरी नहीं, बल्कि रोजी-रोजगार के अवसर चाहते हैं.