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उतने बीमार भी नहीं हैं बीमारू राज्य- सुभाष गाताडे

कई बार कुछ सर्वेक्षण ऐसे नतीजे को सामने लाते हैं, जो हमारे सहज बोध से विपरीत जान पड़ते हैं। भारत के मानव विकास सूचकांक के ताजे आंकड़े इसी की मिसाल हैं। योजना आयोग के अंतर्गत कार्यरत इंस्टीट्यूट ऑफ एप्लाइड मैनपावर रिसर्च (आईएएमआर) के हालिया आंकड़े के मुताबिक, ऐसे गरीब कहलाने वाले राज्यों में मानव विकास सूचकांक अब तेजी से राष्ट्रीय औसत के करीब पहुंच रहा है, जहां हाशिये पर पड़े तबकों की तादाद अधिक है। अगर अनुसूचित जाति-जनजाति तथा मुस्लिम समुदाय के सूचकांकों की तुलना की जाए, तो यह दिखता है कि हाशिये पर पड़े अन्य समुदायों की तुलना में मुसलमानों की स्थिति बेहतर हो रही है।

गौरतलब है कि आठ गरीब राज्यों, बिहार, छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्य प्रदेश, ओडिशा, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में कुल अनुसूचित जातियों का 48 फीसदी, अनुसूचित जनजातियों का 52 फीसदी और मुसलमानों की 44 प्रतिशत आबादी रहती है। रिपोर्ट के मुताबिक, दिल्ली, केरल, हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और पंजाब मानव विकास सूचकांक में ऊपर हैं, तो छत्तीसगढ़, बिहार, मध्य प्रदेश, झारखंड और ओडिशा की स्थिति बदतर है। इसी तरह विभिन्न स्वास्थ्य सूचकांकों के मामले में दिल्ली, हिमाचल प्रदेश, तमिलनाडु और केरल के अनुसूचित जाति समूह और अन्य पिछड़ी जातियों की स्थिति बिहार, छत्तीसगढ़ और उत्तर प्रदेश की तुलना में बेहतर है।

यह रिपोर्ट एक तरह से इसके पहले प्रकाशित ‘द इंडिया ह्यूमन डेवलपमेंट रिपोर्ट, 2011: टूवर्ड्स सोशल एक्स्लुजन’ के विस्तार के तौर पर देखी जा सकती है, जिसने इस सच को उजागर किया था कि विगत एक दशक के दौरान भारत के मानव विकास सूचकांक में सुधार हुआ है, लेकिन कुपोषण का स्तर कुछ राज्यों में आज भी अधिक है। तमिलनाडु और केरल में सामाजिक समूहों का वितरण बिहार और उत्तर प्रदेश की तरह है, लेकिन वे मानव विकास सूचकांक में बेहतर दिखते हैं। दक्षिणी राज्यों में सामाजिक आंदोलनों ने वहां के समाज को इतने व्यापक स्तर पर प्रभावित किया है कि वहां अनुसूचित और पिछड़ी जातियां उत्तर प्रदेश और बिहार की उंची जातियों से बेहतर स्थिति में दिखती हैं। दिल्ली में अनुसूचित और अन्य पिछड़ी जातियों की साक्षरता दर राजस्थान और बिहार की उंची जातियों की तुलना में अधिक है। इसी तरह पूर्वोत्तर में बड़ी आबादी वाले अनुसूचित जनजातियों की सामाजिक स्थिति देश के मध्य और पूर्वी क्षेत्रों में रह रही अनुसूचित जनजातियों की तुलना में बेहतर है। दरअसल, बेहतर शासित राज्यों में सभी के सूचकांक बेहतर होते हैं, जिसका लाभ पिछड़ी जातियों को भी मिलता है। 2011 की उस रिपोर्ट ने उत्तर प्रदेश में सामने आ रही ‘सच्ची दलित क्रांति’ से जुड़े तथ्य भी उजागर किए थे। उसमें बताया गया था कि अत्यंत गरीबी के बावजूद यहां आर्थिक और सामाजिक सूचकांकों, जैसे पालन-पोषण या समारोह के अवसर पर खाने-पीने में जबर्दस्त सुधार देखने को मिलता है। उच्च सकल घरेलू उत्पाद और प्रति व्यक्ति वृद्धि दर में बढ़ोतरी ने इस ‘नई समृद्धि’ में दलितों को साझेदार बनने का मौका दिया है।

पर समग्रता में देखें, तो भारत आज भी भूख के आंकड़े में सब-सहारा अफ्रीका को मात देता है। सब-सहारा अफ्रीका के 26 देशों में पांच साल से छोटे कुपोषित बच्चों का औसत पच्चीस फीसदी है, जबकि भारत में यह आंकड़ा 46 प्रतिशत है। बाल मृत्यु दर में कमी आई है, पर पांच साल के तक के बच्चों की मृत्यु दर और मातृ मृत्यु दर वहीं बनी हुई है।
कहने का तात्पर्य कि अभी बहुत कुछ करने की जरूरत है, ताकि समृद्ध एवं समतामूलक समाज बनाया जा सके।