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उत्तर प्रदेश के इकलौते वेटलैंड में डाल्फिन के अस्तित्व को खतरा

सैफ सुल्तान, बुलंदशहर। बुलंदशहर स्थित उत्तर प्रदेश के एकमात्र वेटलैंड (रामसर साइट) के जलजीवों पर गंगा में बढ़ते प्रदूषण की वजह से खतरा मंडरा रहा है। साथ ही यहां प्रवासी पक्षियों की संख्या में भी लगातार गिरावट आ रही है। बताते चलें कि ब्रजघाट से लेकर नरोरा तक गंगा के 85 किलोमीटर इलाके वाला वेटलैंड आकार के हिसाब से देश का आठवां और उत्तर प्रदेश का इकलौता वेटलैंड (रामसर साइट) है। यह वेटलैंड जैव विविधता का अनोखा खजाना है। इसमें विचरण करने वाले जलीय जीवों विशेषकर डॉल्फिन की संख्या में तेजी से कमी आई है। इसके बावजूद केंद्र सरकार, राज्य सरकार व स्थानीय प्रशासन कोई सुध नहीं ले रहा जबकि वर्ल्ड वाइड फंड फॉर नेचर (डब्लूडब्लूएफ) और अंतरराष्ट्रीय वेटलैंड संगठन ने इसे वैश्विक महत्त्व का स्थल घोषित किया है। ब्रजघाट से नरोरा तक गंगा का विशाल दलदली-नम इलाका सैकड़ों दुर्लभ प्रजाति के जीवों का आश्रय स्थल है। यह उत्तर प्रदेश का इकलौता वेटलैंड है जिसे रामसर साइट के नाम से जाना जाता है।


गंगा में निरंतर बढ़ते प्रदूषण, अवैध खनन और सरकारी योजनाओं की नाकामी के कारण आज इसकी गोद में अठखेलियां करने वाली हमारी राष्ट्रीय जलीय जीव डाल्फिन का अस्तित्व खतरे में है। डाल्फिन को मनुष्यों का दोस्त माना जाता है। कहा जाता है भगीरथ की तपस्या से गंगा जब स्वर्ग से उतरी थीं, तो उनकी धारा में यह मछली भी थी। डाल्फिन को बचाने की कवायद सबसे पहले सम्राट अशोक के काल में शुरू हुई थी पर उसके बाद लंबे समय तक इसे बचाने के कोई ठोस प्रयास नहीं हुए और यह शिकारियों का शिकार होती रही।


गंगा में डाल्फिन दिखाई नहीं देने के कारण यहां आने वाले श्रद्धालु मायूस होकर लौट रहे हैं। फैक्टरियों, सीवर व आवासीय क्षेत्रों से निकलने वाला प्रदूषित कचरा युक्त दूषित पानी नालों के माध्यम से गंगा में डाला जा रहा है जिससे गंगाजल लगातार काला पड़ता जा रहा है और इसमें रहने वाले जीवों पर खतरा मंडराने लगा है। गंगा में बढ़ते प्रदूषण से चिंतित डब्लूडब्लूएफ ने डाल्फिन के अस्तित्व को बरकरार रखने के लिए 2005 से मुहिम चलाई हुई है। इसी मुहिम के तहत केंद्र सरकार ने 2009 में गंगा की डाल्फिन को राष्ट्रीय जलीय जीव घोषित किया। डाल्फिन बिजनौर बैराज से लेकर नरोरा बैराज तक 165 किलोमीटर के जल क्षेत्र में विचरण करती हैं। डब्लूडब्लूएफ ने डाल्फिन को बचाने के लिए

ब्रजघाट से नरौरा तक मोटर बोट रैली निकालकर लोगों से मानव मित्र डाल्फिन को बचाने की अपील की थी। इसके बाद सरकार ने 2006 में ब्रजघाट से नरौरा तक लगभग 85 किलोमटर लंबे गंगा के तटीय क्षेत्र को रामसर साइट घोषित करते हुए इस क्षेत्र में पेड़ों की कटाई, बालू खनन, मछली पकड़ने व गंदे नालों का पानी गिराने पर प्रतिबंध लगाया था। लेकिन इस पहल को आगे नहीं बढ़ाया जा सका। ब्रजघाट से नरौरा तक 85 किलोमीटर तक का क्षेत्र रामसर साइट घोषित है जिसमें यह डाल्फिन प्रजनन भी करती हैं।


डब्लूडब्लूएफ के स्थानीय अधिकारियों के मुताबिक 2005 में कराए गए सर्वे में रामसर साइट में डाल्फिन की तादाद 40 के आस पास थी जो इनके संरक्षण में लगी संस्थाओं के प्रयास से 2010 में बढ़कर 50 हो गई।


इसके बाद सरकार व स्थानीय प्रशासन की ओर से ध्यान नहीं देने के कारण इनकी तेजी से घटना शुरू हो गई। स्थानीय नाविकों व लोगों के मुताबिक मौजूदा समय में गंगा में डाल्फिन की तादाद डेढ़ दर्जन से ज्यादा नहीं है जो चिंता का विषय है।


गंगा पर होने वाले बैराजों का निर्माण भी डाल्फिन लिए सबसे बड़ी समस्या है। इस निर्माण के कारण गंगा में गंदगी और रेत बढ़ रही है और उसका जलस्तर घट रहा है। इसके अलावा पलेज की खेती भी इसके लिए एक बड़ी समस्या है जिसमें इस्तेमाल होने वाली रासायनिक खाद डॉल्फिन को निगल रही है।


वर्ल्ड वाइल्ड फेडरेशन आॅफ इंडिया के स्थानीय अधिकारियों के मुताबिक यहां डाल्फिन की प्रजाति लुप्त होने के कगार पर है व दुर्लभ प्रजाति के कछुओं, मछलियों व घड़ियालों पर भी खतरा मंडरा रहा है। अब तक कई डाल्फिन मृत पाई जा चुकी हैं।


जैव विविधता के लिहाज से यह रामसर साइट विश्व धरोहर भी घोषित हो चुकी है लेकिन इसके बावजूद न ही प्रदूषण की रोकथाम के लिए कुछ किया जा रहा है और न ही गंगा की सफाई से सरकारी तंत्र को कोई मतलब है। हालांकि केंद्र सरकार की ओर से पिछले तीन दशकों से चलाए जा रहे गंगा सफाई अभियान में अरबों रुपए की धनराशि पानी की तरह बह चुकी है। लेकिन नतीजा सबके सामने है।


डाल्फिन को बचाने के लिए और कोशिशों की जरूरत है। समय रहते अगर केंद्र व राज्य सरकार नहीं चेती तो डाल्फिन पूरी तरह विलुप्त हो जाएंगी।