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उदास रुबाई न बन जाए हिमालय-- शशि शेखर

हिन्दुस्तान के लाखों लोगों की तरह मुझे भी हिमालय से मुहब्बत है। जरा सा मौका मिलते ही मैं खुद को इसकी चोटियों, खाइयों, खंदकों, घाटियों, नदियों, सरोवरों और निर्मल समीर के हवाले कर देता हूं। हर बार यह इंद्रधनुषी पर्वतमाला मुझे सुकून के साथ उदासी सौंपती है।


वजह बताने की जरूरत नहीं। हम सब जानते हैं, हिमालय न होता, तो हम न होते। इसके शिखर मानसून को मदद देते हैं। इसके ग्लेशियर हमारी तमाम नदियों को सदानीरा बनने का गौरव प्रदान करते हैं। इसकी लकड़ी से आज भी फर्नीचर और घर गरिमा पाते हैं। इसका सौंदर्य समूची दुनिया के लोगों को भारत यात्रा की दावत देता है। यह हमारी सीमाओं का अखंड रखवाला है। पुरखों ने इसे देवालय का दर्जा यूं ही नहीं दे दिया था।


संस्कृत के महाकवि भास ने कहा था, जो क्षण-क्षण रूप बदले, वही सौंदर्य रमणीय है। इस श्लोक का निहितार्थ वही समझ सकता है, जिसने हिमालय को परखा हो। बरसों पहले मैंने कुल्लू के पास नग्गर में निकोलस रोरिक की एक पेंटिंग देखी थी- सूरज ताल। रोरिक ने वॉटर कलर से जैसे उसे जस का तस उतार दिया था। पूछा, तो पता चला कि मनाली से लेह के रास्ते में पड़ने वाले तालों में यह दूसरा ताल है। मन में उसे छू लेने की अदम्य आकांक्षा कुलांच मारने लगी थी। जानकारों ने मेरी उतावली देख चेताया कि आप छोटे बच्चों के साथ तो वहां कतई नहीं जा सकते, फिर रास्ता भी बंद है। जाना हो, तो अगस्त में पता करके आइएगा। अगस्त में 70 दिन शेष थे।


उन दिनों गूगल का आविष्कार नहीं हुआ था। कंप्यूटर आ गए थे, पर वे तब तक आम आदमी की जिंदगी का हिस्सा नहीं बने थे। पिछली सदी के उस आठवें दशक में आज जैसी शक्तिशाली गाड़ियां सपने में भी नहीं आती थीं। ले-देकर महज दो ऐसे वाहन थे, जिन्हें थोड़ा-बहुत भरोसे के काबिल माना जाता था। 1999 के कारगिल संघर्ष के बाद भारत सरकार ने सीमावर्ती सड़कों की थोड़ी-बहुत सुधि लेनी शुरू की है। उन दिनों हालात बहुत जोखिम भरे थे। जिप्सा से लेह के रास्ते में अगर आपकी गाड़ी खराब हो गई या किसी को ‘हाई अल्टीट्यूड प्लमोनरी अडीमा' हो गया, तो फिर ईश्वर की मेहरबानी अकेला आसरा होती।


लेह के बारे में जो पहली किताब पढ़ी, उस पर मोटे हर्फों में दर्ज था, इस सफर में जोखिम है, मनोरंजन नहीं। रोरिक कई दशक पहले वहां पैदल गए थे, हमारे पास तो गाड़ियां थीं। आकर्षण दोगुना हो चुका था। जब हम वहां पहुंचे, तो ऐसा लगा, जैसे स्वर्ग के आस-पास पहुंच गए हैं। चारों ओर बर्फ से ढकीं चोटियां, सामने शांत नीले जल से सराबोर सरोवर, आस-पास समाधिस्थ लामाओं की भांति जमे हुए अनगढ़ पत्थर और इनके बीच से गुजरती हुई एक सर्पिल सड़क। सन्नाटा, शीत और सरसराता पवन। मैं देर तक मंत्रमुग्ध बैठा रहा। हालांकि, गाड़ी में शीशे चढ़ाकर बैठे साथी चिल्ला-चिल्लाकर कह रहे थे, सूर्य की इंफ्रारेड किरणें और यह बर्फीली हवा आपका चेहरा खराब कर देंगी।


आज भी उस दोपहर के निशान मेरे चेहरे पर मौजूद हैं, पर वह अनुभव अनमोल और अमिट है। इसे दोहराने की कोशिश की, पर ढाई दशक के अंदर दुनिया बदल चुकी थी। उस सड़क पर पर्यटकों की आवाजाही कई गुना बढ़ चुकी थी। असंस्कारी ड्राइवरों को हॉर्न और तेज संगीत से गुरेज न था। कभी शिव और पार्वती के रमण का केंद्र रहा यह ताल अपनी गरिमा खो चुका था। लेह अब रोमांच नहीं, मनोरंजन है।


हम हिमालय को बर्बाद कर रहे हैं या खुद अपनी बर्बादी को न्योता दे रहे हैं? भू-विज्ञानियों का मानना है कि यह पर्वत अभी अपनी निर्माण की प्रक्रिया में है। इसीलिए हर साल इसकी ऊंचाई चार मिलीमीटर तक बढ़ जाती है। यह वजह इसकी परतों को अक्सर हिलाने यानी भूकंप के लिए पर्याप्त है और इसीलिए यहां रहने अथवा आने-जाने वालों को इसकी संवेदनशीलता का ध्यान रखना चाहिए। हो इसका उल्टा रहा है।


पिछले सितंबर में बेंगलुरु स्थित इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस के वैज्ञानिक अनिल वी कुलकर्णी का शोध-पत्र प्रकाशित हुआ था। एनल्ज ऑफ ग्लेशियोलॉजी में शाया इस पर्चे के मुताबिक हिमालय के चंद्रा बेसिन में 1984 से 2012 के बीच ग्लेशियरों के पिघलाव में काफी तेजी दर्ज की गई है। कुलकर्णी के अनुसार, खतरा निकट भविष्य का नहीं है, लेकिन हाल अगर इसी तरह बेहाल रहा, तो हमारी नदियां सूख सकती हैं। क्या आप झेलम, चेनाब, रावी, व्यास, सतलुज, सिंधु, गंगा, यमुना, ब्रह्मपुत्र अथवा स्पीति जैसी नदियों के बिना इस भूभाग में इंसानी अस्तित्व की कल्पना कर सकते हैं?


कुलकर्णी का अध्ययन तो गहरे शोध पर आधारित है, मगर ऐसा बहुत कुछ है, जिसे मुझ जैसा आम आदमी महसूस कर सकता है। देहरादून के पास स्थित सहस्रधारा का हवाला देना चाहूंगा। बरसों पहले इसकी धाराओं को देखकर ऐसा लगा था, जैसे हम मिनी मनाली में आ पहुंचे हैं- पर्वत शृंखलाओं की गर्भ से निकलती धाराएं, उनकी कलकल, चारों तरफ गहन वन और सरसर बहती निर्दोष हवा। इन्हीं धाराओं के समीप लोक निर्माण विभाग ने एक डाक बंगला बना रखा था। जवाहरलाल नेहरू यहां आकर ठहरा करते और इस जलनिधि को देख खुद में खोए रहते। कहते हैं, निधन से ऐन पहले भी वह यहां आए थे।


एक दशक पहले तक मैं भी देहरादून जाने पर वहीं ठहरता, मगर पिछले दिनों वहां गया, तो पांव तले की जमीन खिसक गई। जलधारा बेहद क्षीण हो गई है और उसका प्राकृतिक गौरव लुट चुका है। चारों ओर बड़ी संख्या में कंक्रीट के भवन खडे़ हो गए हैं। बर्बादी की ऐसी सैकड़ों दास्तान हैं। हम हिन्दुस्तानी आजादी के बाद कोई नया हिल स्टेशन तो बना न सके, पुरानों को बर्बाद जरूर कर दिया।


आज ‘हिमालय दिवस' है और मुझे कहने में कोई संकोच नहीं कि अदूरदर्शी सरकारों और संवेदनहीन हिन्दुस्तानियों की जुगलबंदी अनर्थ रच रही है। इसे रोकना होगा। हमारी चुप्पी आने वाली नस्लों के लिए खतरनाक साबित हो सकती है।