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उनकी आंखों में नहीं है पानी- भारत डोगरा

हाल के दिनों में जिसने भी टीवी पर या अन्य मीडिया में 15-17 दिनों से गले तक नदी के पानी में खड़े नर्मदा जल सत्याग्रहियों के चित्र देखें हैं, वे द्रवित हुए बिना नहीं रह सके हैं। केवल मध्य प्रदेश की संवेदनहीन सरकार ही है, जिसकी नींद देर से टूटी। सरकार ने अब जाकर उनकी मांगों पर गौर किया है। यहां यह बताना जरूरी है कि सत्याग्रही सरकार से अपने ही कानून व नीतियों का पालन करने के अतिरिक्त और कुछ नहीं मांग रहे हैं।

ये सत्याग्रही ओंकारेश्वर और नर्मदा सागर बांधों के विस्थापित लोग हैं, जो ‘नर्मदा बचाओ आंदोलन’ में संगठित होकर अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। ध्यान रहे कि इन परियोजनाओं की पुनर्वास नीति नर्मदा ट्रिब्यूनल अवार्ड पर आधारित है, जिसमें भूमि के बदले भूमि की स्पष्ट व्यवस्था है। इस नीति में सरकार ने स्वीकार किया है कि वह विस्थापितों के लिए वैकल्पिक कृषि भूमि की व्यवस्था करेगी। इस नीति के औचित्य पर हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट की मोहर भी लग चुकी है।

हालांकि सरकार अपने वायदे से पीछे हटकर केवल नकद मुआवजा देकर काम चलाने की पूरी कोशिश करती रही है, पर न तो वह कानूनी तौर पर अपनी घोषित नीति के विरुद्ध जा सकती है और न ही अदालती फैसलों के विरुद्ध। इन वायदों के आधार पर ही तो उसने विशाल विस्थापन करने वाली परियोजनाओं की स्वीकृति प्राप्त की थी। सुप्रीम कोर्ट के आदेश इस प्रावधान की पुष्टि करते हैं कि वैकल्पिक भूमि पर पुनर्वास होने के कुछ महीने बाद विस्थापितों के मूल निवास में पानी भरने की अनुमति दी जा सकती है।

इन उद्देश्य को प्राप्त करने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने यह निर्देश दिए हैं कि बांध में पानी भरने की ऊंचाई को ओंकारेश्वर और नर्मदा सागर परियोजनाओं के संदर्भ में कहां तक सीमित रखना है। यह सीमा तब तक लागू रहती है, जब तक पुनर्वास कार्य सही ढंग से पूरे हुए छह माह न बीत जाएं। पर मध्य प्रदेश सरकार ने किसी भी विस्थापित को वैकल्पिक जमीन नहीं दी। वह अपनी नीति और अपने वायदों से साफ पीछे हट गई। केवल नकद मुआवजे के लिए वह तैयार हुई। यह अदालती आदेश का उल्लंघन था। इतना ही नहीं, मध्य प्रदेश के शिकायत निवारण प्राधिकरण ने भी यह निर्णय दिया कि केवल नकद मुआवजे से काम नहीं चलेगा, विधिसम्मत ढंग से विस्थापितों को भूमि दी जानी चाहिए।

इस वायदाखिलाफी की स्थिति में सरकार और बांध अधिकारियों ने मनमाने ढंग से सीमा रेखा से ऊपर पानी भरने दिया, जिससे विस्थापितों के गांव डूबने लगे। इस मनमाने निर्णय के पीछे चाल यह थी कि एक बार गांव डूब गए, तो आज नहीं तो कल विस्थापित परिवार भाग ही जाएंगे। पर नर्मदा बचाओ आंदोलन और उससे जुड़े विस्थापित परिवारों ने दृढ़ निश्चय का परिचय देते हुए जल-सत्याग्रह आरंभ कर दिया। इस निर्णय की पृष्ठभूमि समझने के लिए यह जानना जरूरी है कि नर्मदा के विभिन्न बांध जैसे तवा, सरदार सरोवर, महेश्वर, ओंकारेश्वर, बरगी, नर्मदा सागर आदि के विस्थापितों के प्रति बार-बार अन्याय होता रहा है। बार-बार वायदाखिलाफी हुई है, नियम-कानूनों का उल्लंघन हुआ है। पूरी तरह अहिंसक आंदोलनों की न्यायसंगत मांगों पर ध्यान देने के स्थान पर सरकारों ने उन पर तरह-तरह का अन्याय-अत्याचार बार-बार किया है।

जिस तरह कानूनों का उल्लंघन कर हाल ही में विस्थापितों के गांवों में पानी भरा गया, यदि उसे लोग चुपचाप सहन कर भाग खड़े होते, तो इससे केवल उनकी क्षति ही नहीं होती, बल्कि विस्थापितों को खदेड़ने का सिलसिला शुरू हो जाता। यही वजह है कि इन विस्थापितों और आंदोलनकारियों ने सरकार व समाज का ध्यान इस अन्याय व मनमानी की ओर आकर्षित करने के लिए जल-सत्याग्रह आरंभ किया। ऐसे अहिंसक व विधि सम्मत संघर्षों के माध्यम से अन्याय का सामना करना लोकतंत्र की प्रगति के लिए भी महत्वपूर्ण है। यदि सरकार अपने वायदों व नियमों से खुद ही पलटने लगे, तो इससे आम लोगों की आस्था लोकतंत्र में कमजोर होगी। इस व्यापक सचाई को ध्यान में रखते हुए मध्य प्रदेश सरकार को इन विस्थापितों के साथ शीघ्र न्याय करना चाहिए, और उनके सम्मान की रक्षा करनी चाहिए।