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उनके हिस्से की जमीन- नीलांजन मुखोपाध्याय

इतिहास उलट कर देखें, तो जमीन झगड़ा-फसाद का एक बहुत बड़ा कारण रही है। जब जमीन अधिग्रहण की प्रक्रिया अस्तित्व में नहीं आई थी, और रीयल एस्टेट व छोटे प्रॉपर्टी डीलरों द्वारा जमीनों की बिक्री का चोखा धंधा नहीं पनपा था, तब जमीन सांस्कृतिक वस्तु थी और परंपरा से जुड़ी थी। बड़े शहरों में काम करने और होली-दिवाली जैसे त्योहारों पर अपने पैतृक गांवों में जाने वाले असंख्य लोग अब भी इस देश में हैं। भले उन्होंने खेती बटाईदारों को सौंप रखी है और गांवों में उनके घर बंद रहते हैं, पर विशेष अवसरों पर वे अपने घर का दरवाजा खोलते और कुलदेवता की पूजा करते हैं। यह केवल हमारी धार्मिक परंपरा का हिस्सा नहीं, बल्कि हमारी संस्कृति और अतीत से भी जुड़ा हुआ है। यहां जमीन अधिग्रहण इसलिए भी एक विवादास्पद मुद्दा बन गया है, क्योंकि आधुनिकता मानो लोगों को अपने उस अतीत से अलग करने जा रही है।

टिहरी बांध के निर्माण के समय चली राष्ट्रव्यापी बहस की याद पाठकों को होगी। तब पुनर्वास के अलावा विस्थापितों को एक ऐसे इलाके में भेजने के निर्णय पर भी सवाल उठे थे, जो उनके लिए सुविधाजनक नहीं थे। उससे भी महत्वपूर्ण सवाल पुराने टिहरी शहर के कई सदी पुराने इतिहास का, और उन पुराने मंदिरों का था, जिन्हें जलमग्न हो जाना था। अपने देश में समस्या यह है कि मुआवजे और पुनर्वास के मुद्दों को हमेशा पैसे या वैकल्पिक जमीन के आवंटन के आईने में देखा जाता है। इन दोनों में से कोई एक विकल्प विस्थापितों की मुख्यधारा में वापसी नहीं कराता, न उसे विकास का साझेदार या सहभागी बनाता है।

उत्तर भारत, खासकर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र, में शहरी विस्तार को ही देखें। एक सदी से कुछ पहले जब ब्रिटिशों ने अपनी राजधानी कोलकाता से दिल्ली स्थानांतरित करने का फैसला लिया, तब शाहजहानाबाद की परिधि से बाहर किसानों की जमीनें अधिगृहीत की गईं। राजधानी निर्माण के लिए ली गई जमीनें, जहां आज राष्ट्रपति भवन, नॉर्थ ब्लॉक और साउथ ब्लॉक स्थित हैं, मालचा गांव के किसानों से अधिगृहीत की गई थीं। मामूली मुआवजा देकर उन किसानों को हरियाणा के सोनीपत में बसाया गया था। उन किसानों के वंशज आज भी मुआवजे की राशि बढ़ाने के लिए अदालत में मुकदमा लड़ रहे हैं।

यह उदाहरण बताता है कि जमीन अधिग्रहण एक बेहद संवेदनशील मामला है, जो मानवीय नजरिये की मांग करता है। वर्ष 2013 में जमीन अधिग्रहण कानून बनाने से पहले यूपीए सरकार ने इस मुद्दे पर बहुत माथापच्ची की थी। याद किया जा सकता है कि 1894 के जमीन अधिग्रहण कानून में पहला संशोधन 2007 में लाया गया था। पर उसे तय समय में पारित नहीं कराया जा सका था। वर्ष 2011 में इसे दोबारा लाया गया। 2013 में यह कानून बन पाया, और तब भाजपा ने जल्दबाजी में इस पर सहमति जताई थी।

इसके बावजूद सत्ता में आने पर भाजपा ने कानून का विरोध करते हुए उसमें संशोधन की जरूरत बताई, तो इसकी वजह यह है कि 2013 में भाजपा की सहमति में नरेंद्र मोदी का स्वर नहीं था। मोदी के अनुसार, वह कानून वृद्धि और विकास के रास्ते में बाधक है। लेकिन संशोधित जमीन अधिग्रहण अध्यादेश के तीन महीने बीतने के बाद यह मुद्दा और जटिल होने जा रहा है, क्योंकि सोनिया गांधी ने इसे कड़ी चुनौती दी है।

हालांकि भाजपा यह दावा कर रही है कि सरकार इसमें जरूरी संशोधनों के लिए तैयार है। यह तथ्य भी है कि विगत दिसंबर में यह अध्यादेश लाने के बाद से उसने इसमें नौ संशोधन जोड़े हैं। जबकि कांग्रेस का तर्क यह है कि सरकार ने 2013 के जमीन अधिग्रहण कानून में जो बुनियादी बदलाव किए हैं, वे उसे स्वीकार नहीं हैं। ऐसे कई मुद्दे हैं, जिन पर बहस होनी चाहिए। इनमें किसानों की सहमति, अधिग्रहण से पहले सामाजिक प्रभाव आकलन और किसी खास परियोजना से पहले कितने किसानों की सहमति होनी चाहिए-जैसे मुद्दों की तो खासकर अनदेखी नहीं की जा सकती। जिन बुनियादी मुद्दों पर सरकार और विपक्ष में मतभेद हैं-वे हैं औद्योगिक कॉरिडोर के दोनों ओर एक किलोमीटर जमीन का अतिरिक्त अधिग्रहण, जिन किसानों की जमीन अतीत में अधिगृहीत की गई हैं, उन्हें बढ़ा हुआ मुआवजा देना, और पांच साल में परियोजना शुरू न होने पर किसानों को जमीन लौटाना।

साफ है कि सरकार जमीन अधिग्रहण कानून को आर्थिक सुधार और विकास की रणनीति के सुबूत के तौर पर दिखाना चाहती है। पर कांग्रेस मोदी सरकार को आसानी से यह मौका नहीं देना चाहेगी। इसके बावजूद नरेंद्र मोदी पिछले दिनों 'मन की बात' कार्यक्रम में इस मुद्दे पर किसानों से रू-ब-रू हुए। भाजपा सांसदों को भी किसानों को यह बताने का निर्देश दिया गया है कि जमीन अधिग्रहण में उनकी इजाजत ली जाएगी। लेकिन जमीन चूंकि एक भावनात्मक मुद्दा है, इसलिए इस पर आसानी से सरकार के खिलाफ भावनाएं भड़क सकती हैं।

जमीन अधिग्रहण पर मोदी की सोच भविष्य के शहरों के लिहाज से अधिक अनुकूल है। यह तर्क दिया जाता रहा है कि अगले तीस वर्षों में ज्यादातर भारतीय शहरों और नगरों में रहने लगेंगे। लेकिन उससे पहले ही लोगों को उनकी सांस्कृतिक पहचान से अलग करने की कोशिश पर लोगों की आपत्ति स्वाभाविक है। इसकी वजह यह भी है कि नया रोजगार उनकी पारंपरिक जीविका यानी खेती का विकल्प नहीं बन सकता। एक पूरी पीढ़ी को विकास की कीमत चुकानी पड़ सकती है, जिससे सरकार पर रोष स्वाभाविक है। ऐसा लगता है कि मोदी यह खतरा उठाने के लिए तैयार हैं, पर क्या संघ परिवार भी इसके लिए राजी होगा? एक समय आएगा, जब लोग मोदी से पूछेंगे कि जमीन अधिग्रहण उनके लिए इतना महत्वपूर्ण क्यों है, क्योंकि यह आखिरकार राज्यों का मामला है। मोदी सरकार को जल्दी ही इस सवाल से जूझना पड़ सकता है कि एक ऐसे मुद्दे पर इतनी जल्दबाजी क्यों, जो तत्काल विकास की गारंटी नहीं देता।

वरिष्ठ पत्रकार, और नरेंद्र मोदी-द मैन, द टाइम्स के लेखक