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उम्मीद जगाते शोध : आधी हो जायेगी टीबी जांच की लागत

चिकित्सा वैज्ञानिकों के दो हालिया शोध को इलाज की दुनिया में बड़े बदलाव की आहट के रूप में देखा जा रहा है. टीबी की भयावहता से पूरी दुनिया आक्रांत है. विकासशील देशों में बड़ी तादाद में लाेग इसकी चपेट में आते हैं.

लेकिन, एक नये ब्लड टेस्ट के माध्यम से सामान्य क्लीनिक में बेहद कम लागत में अब एक ही दिन में इसकी जांच मुमकिन हो पायेगी. उधर, ब्रेन इंज्यूरी या अन्य कारणों से कोमा की स्थिति में रहनेवाले मरीजों के बारे में अब तक यह अनुमान लगाना बेहद मुश्किल होता है कि कितने समय तक वह इसी दशा में रहेगा, कभी इस दशा से वह बाहर निकल पायेगा भी या नहीं.

लेकिन, शोधकर्ताओं ने इसका सटीक अनुमान लगाने का एक नया तरीका विकसित किया है, जिससे भविष्य में ऐसे मरीजों और उनके परिजनों को बड़ी राहत मिल सकती है. इससे कोमा में जा चुके मरीज के इलाज की बेहतर रणनीति भी बनायी जा सकेगी. चिकित्सा वैज्ञानिकों के इन क्रांतिकारी शोध के बारे में बता रहा है आज का मेडिकल हेल्थ पेज.

दुनिया की करीब एक-तिहाई आबादी ऐसे संक्रमण की चपेट में है, जो ट्यूबरकुलोसिस यानी टीबी की बीमारी का कारण है. ‘साइंटिफिक अमेरिकन' की रिपोर्ट के मुताबिक, वर्ष 2014 में टीबी के संक्रमण के करीब 90 लाख नये मामले सामने आये थे.
इस बीमारी के कारण इस वर्ष करीब 15 लाख लोगों की जान चली गयी थी. हालांकि, टीबी की जांच के अनेक तरीके मौजूद हैं, लेकिन विकासशील देशों में इसके मुकम्मल इंतजाम नहीं होने और कुछ हद तक इसकी जांच महंगी होने के कारण बड़ी तादाद में इससे मानवधन की हानि होती है. शोधकर्ताओं ने इसके लिए एक नयी तकनीक विकसित की है, जिसके तहत ब्लड जांच के जरिये इसे आसानी से और कम लागत में जाना जा सकेगा.

पारंपरिक तौर पर की जानेवाली टीबी की जांच के तहत बलगम यानी कफ में मौजूद म्युकस या स्प्यूटम में बैक्टिरियल डीएनए को स्कैन किया जाता है. लेकिन, टेस्ट के लिए सैंपल देते समय कई बार बच्चे सही तरीके से बलगम नहीं निकाल पाते या उस समय उनसे नहीं निकल पाता है और कई बार बलगम की बजाय सैंपल के तौर पर थूक को एकत्रित कर लिया जाता है, जिससे जांच रिपोर्ट प्रभावित होती है. इसके अलावा यह जांच ज्यादा महंगी होती है. बलगम की जांच में टीबी पकड़ में नहीं आने पर ‘एएफबी कल्चर' कराना होता है. इसका खर्च करीब दो हजार रुपये तक आता है और इसकी रिपोर्ट के लिए करीब छह सप्ताह तक इंतजार करना होता है. इन बाधाओं के कारण बड़ी संख्या में टीबी के मामलों का निदान देरी से होता है या कई बार नहीं भी हो पाता है, जिससे इसके संक्रमण के फैलने का जोखिम बढ़ जाता है.

जीनोम के जरिये होगी जांच

स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी के मेडिकल प्रोफेसर पुरवेश खतरी और उनके सहयोगियों ने इनसान के जीनोम में तीन ऐसे जीन्स की तलाश की, जो टीबी की बीमारी की दशा में ज्यादा सक्रिय हो जाते हैं. इस टीम ने एक ऐसा तरीका विकसित किया, जिसके माध्यम से ब्लड में इन जीन्स की पहचान की जा सके.

‘लेंसेट रेस्पाइरेटरी मेडिसिन' में प्रकाशित इस अध्ययन रिपोर्ट के मुताबिक, इस टेस्ट के जरिये सटीक तरीके से टीबी की जांच की जा सकती है. इसकी बड़ी खासियत है कि सामान्य क्लीनिक में भी यह ब्लड टेस्ट किया जा सकता है और इसकी जांच रिपोर्ट एक दिन में ही आ जाती है.

विकासशील देशों के लिहाज से यह एक बड़ी खासियत है, जहां एक भी गंभीर मामले के सामने आने पर हालात बिगड़ने का जोखिम ज्यादा होता है. येल यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर ऑफ मेडिसिन शीला शेनॉय का कहना है कि ऐसी दशा में मरीज को तत्काल इलाज मुहैया कराने की जरूरत होती है और इस लिहाज से यह बेहद महत्वपूर्ण जांच है.

प्रोफेसर पुरवेश खतरी ने इस टेस्ट का पेटेंट हासिल करने के लिए अरजी भेज दी है. उनका कहना है कि मौजूदा जांच के मुकाबले इस ब्लड टेस्ट की लागत महज आधी रह जायेगी. वहीं शिनॉय का कहना है कि इन तीनों जीन्स की पहचान होने पर निश्चित रूप से टीबी की बीमारी के निदान की दिशा में यह एक क्रांतिकारी कदम साबित होगा.

टेस्ट बतायेगा, मरीज कोमा से कब बाहर आ सकता है!

आपने अपने किसी प्रिय व्यक्ति को कभी यदि कोमा की अवस्था में देखा होगा, तो महसूस किया होगा कि वह कितनी भयावह अवस्था होती है. खासकर मरीज और उसके प्रियजनों की परेशानी ऐसे में और बढ़ जाती है, जब उसके कोमा से बाहर आने के बारे में डॉक्टर भी पुख्ता तौर पर कुछ नहीं बता पाते हों. कई मरीज तो कई सालों तक कोमा की अवस्था में गुजार देते हैं. आम तौर पर अनेक प्रकार की गंभीर बीमारियों की दशा में भी डॉक्टर मरीज के परिवारवालों को यह बताने में सक्षम हो पाते हैं कि मरीज कितने दिनों या महीनों में पूरी तरह से ठीक हो सकता है.

हालांकि, ज्यादातर गंभीर बीमारियों की अवस्था में सुधार के संकेतों के आधार पर डॉक्टर यह अनुमान लगाने में सक्षम होते हैं कि मरीज कब तक पूरी तरह से ठीक हो पायेगा, लेकिन कोमा में जा चुके मरीज के बारे में उनके लिए अनुमान लगाना बेहद मुश्किल होता है. कई बार तो वे यह भी अनुमान नहीं लगा पाते हैं कि मरीज कोमा की अवस्था से बाहर आ भी पायेगा या नहीं. ऐसे में परिवार के लोग तो चिंतित रहते ही हैं, डॉक्टरों के लिए भी यह एक बड़ी चुनौती है. इसे समझने के लिए शोधकर्ता पिछले लंबे अरसे से जुटे हैं.

दरअसल, सभी व्यक्ति के मस्तिष्क में फर्क होता है, इसलिए डॉक्टर के लिए इस संबंध में सटीक तौर पर जान पाना बेहद मुश्किल हो जाता है. लेकिन, शोधकर्ताओं ने इस दिशा में एक नयी उम्मीद जरूर जगायी है. एक सामान्य टेस्ट की मदद से शोधकर्ताओं ने कोमा में जा चुके मरीज के बारे में सटीक तौर पर यह पता लगाया है कि उसकी रिकवरी हो सकती है या नहीं.

यह टेस्ट एक प्रकार से पीइटी (पोजिट्रॉन इमिशन टोमोग्राफी) स्कैन की तरह है, जो यह मापता है कि मरीज के मस्तिष्क की कोशिकाएं कितनी मात्रा में सुगर हासिल कर पा रही हैं. मरीज के शरीर की एक्टिविटी से हासिल होनेवाले लक्षणों और संकेतों के आधार पर उनके भीतर छिपे हुए संदेशों को समझने के लिए पीइटी स्कैन का इस्तेमाल कई अस्पतालों में किया जा रहा है. शोधकर्ताओं ने यह दर्शाया है कि इसके नतीजे सटीक हो सकते हैं.

‘साइंस एलर्ट' के मुताबिक, इस शोध के प्रमुख शोधकर्ता और यूनिवर्सिटी ऑफ कोपेनहेगेन व येल यूनिवर्सिटी से जुड़े रोन कूपर्स का कहना है कि लगभग सभी मामलों में संपूर्ण दिमाग की एनर्जी टर्नओवर के आधार पर प्रत्यक्ष रूप से यह अनुमान लगाया जाता है कि मरीज के दिमाग की संजीदगी का मौजूदा स्तर क्या है और उसमें किस दर से प्रगति हो रही है. इस टेस्ट के जरिये सुगर मेटाबोलिजम की माप करते हुए यह जाना जाता है कि मस्तिष्क कोशिकाएं कितनी एनर्जी का इस्तेमाल करती हैं.

हालांकि, यह एक स्थापित प्रक्रिया है, लेकिन शोधकर्ताओं ने हासिल हुए इन नतीजों के जरिये यह दर्शाया है कि यह न केवल मरीज के व्यवहार को बेहद नजदीकी से परखती है, बल्कि यह भी अनुमान लगा सकती है कि कौन से कारक उसे इस दशा से बाहर निकाल सकते हैं. कूपर कहते हैं, ‘शोध से ये संकेत मिले हैं कि ब्रेन इंज्यूरी के बाद उसे चेतना की अवस्था में लौटने के लिए न्यूनतम कितनी ऊर्जा की जरूरत होती है.'

इन तथ्यों की पड़ताल के लिए शोधकर्ताओं ने ब्रेन इंज्यूरी के 131 ऐसे मरीजों का अध्ययन किया, जो पूर्ण या आंशिक तौर पर चेतना खो चुके थे यानी कोमा की अवस्था में थे. एफडीजी-पीइटी (फ्लूरोडऑक्सीग्लूकोज) के तौर पर समझे जानेवाले सामान्य ब्रेन स्कैनिंग तकनीक के इस्तेमाल से इन मरीजों में न्यूरॉन्स के मेटाबोलिजम को मापा गया. शोधकर्ताओं ने पाया कि जिन मरीजों में सामान्य ब्रेन एक्टिविटी 42 फीसदी से कम प्रदर्शित हुई है, वे अगले एक साल तक अचेतावस्था में ही रहे, जबकि जिनकी सक्रियता इस स्तर से ज्यादा पायी गयी, उनमें एक साल के भीतर चेतना जागृत हुई. कुल मिलाकर इस टेस्ट के जरिये 94 फीसदी तक सटीक रूप से यह अनुमान लगाने में कामयाबी मिली है कि मरीज कोमा की दशा से बाहर आ सकेगा या नहीं.

इस रिपोर्ट के सह-लेखक जोहान स्टेंडर का कहना है कि चेतन और निश्चेतन अवस्था के बीच की स्पष्ट मेटाबोलिक बाउंड्री की खोज से मस्तिष्क में होेनेवाले मूलभूत बदलावों को जाना जा सकेगा. उनका कहना है कि इस टेस्ट के नतीजों की समझ के आधार पर भविष्य में संबंधित शोध को नयी दिशा मिलेगी. शोधकर्ताओं की टीम लंबे अरसे से घायल मस्तिष्कों की गहन निगरानी कर रही है, ताकि इस संबंध में बेहतर समझ कायम की जा सके और यह जाना जा सके कि ऊर्जा के संकेतों के क्या निहितार्थ हो सकते हैं.

मूल रूप से ‘करेंट बायोलॉजी' में प्रकाशित इस शोधपत्र की फिलहाल समीक्षा की जा रही है, लेकिन इतना तय है कि इस दिशा में कार्यरत अन्य शोधकर्ताओं के लिए ये नतीजे महत्वपूर्ण साबित होंगे. रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि 131 मरीजों पर किये गये परीक्षण का स्तर व्यापक नहीं कहा जा सकता, लेकिन अस्पतालों में इसके व्यापक परीक्षण की मंजूरी से इस दिशा में आगे बढ़ा जा सकता है. इससे मरीज के परिवार वालों को यह जानकारी मिल पायेगी कि मरीज कब तक कोमा से बाहर आयेगा या कभी नहीं आ पायेगा.

मरीज के इलाज के विकल्पों और उनसे हासिल हुए अच्छे नतीजों के व्यापक अध्ययन से यह समझ विकसित होने की उम्मीद बढ़ गयी है कि कोमा में जा चुके मरीज के मस्तिष्क में किस तरह की गतिविधियां होती हैं, ताकि उसका इलाज किया जा सके. इससे मरीज को कोमा की दशा से बाहर लाने की उम्मीद भी बढ़ गयी है.

प्रस्तुति - कन्हैया झा

इन्हें भी जानें

भारत में टीबी का ज्यादा जोखिम

टी बी के मामले में भारत की गिनती दुनिया में इसके अत्यधिक जोखिम वाले देशों में की जाती है. भारत में प्रत्येक वर्ष 12 लाख टीबी के नये मामले सामने आते हैं. इनमें से कम से कम 2,70,00 लोग इस बीमारी के कारण असमय काल के गाल में समा जाते हैं. हालांकि, कुछ अनुमान ये भी हैं कि मरनेवालों की संख्या इससे कहीं दोगुनी हो सकती है.

भारत में आरएनटीसीपी यानी रिवाइज्ड नेशनल टीबी कंट्रोल प्राेग्राम के तहत टीबी के मामलों को निपटाया जा रहा है. टीबी के करीब एक-तिहाई मामलों में मरीजों का इलाज तो हाेता है, लेकिन उनके मामले नोटिफाइ नहीं हो पाते यानी आरएनटीसीपी तक संज्ञान में नहीं लाये जाते. वर्ष 2013 में प्रति एक लाख आबादी में से आरएनटीसीपी के तहत 651 टीबी के संदिग्ध मामलों का परीक्षण किया गया था. इनमें से 9,28,190 मामले पॉजिटीव पाये गये, जिन्हें डायग्नोज किया गया.

क्या है टीबी

टीबी बैक्टीरिया से होेनेवाली बीमारी है, जो हवा के माध्यम से एक इनसान से दूसरे में फैलती है. आम तौर पर इस बीमारी की शुरुआत फेफड़ों से होती है. हालांकि, यह बीमारी शरीर के अन्य कई हिस्सों में हो सकती है, लेकिन फेफड़ों का टीबी कॉमन है. खांसने और छींकने के दौरान मुंह और नाक से निकलने वाली बूंदों से इसका संक्रमण फैलता है. टीबी के मरीज के बहुत नजदीक बैठ कर बात की जाए और वह खांस रहा हो, तब भी इसके संक्रमण का खतरा हो सकता है.