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उलटी प्राथमिकताओं की पटरी

इससे भला कौन इनकार कर सकता है कि बुलेट ट्रेन समय की मांग है। लेकिन जिस देश में 40 हजार करोड़ रुपए की राशि सुरक्षा-उपायों पर खर्च न हो पाने के कारण प्रतिवर्ष सैकड़ों लोग रेल दुर्घटनाओं में मारे जा रहे हों उसी देश में एक रेलवे मार्ग पर बुलेट ट्रेन दौड़ाने के लिए 1.10 लाख करोड़ रुपए खर्च किए जा रहे हैं! सवाल धनराशि का नहीं, प्राथमिकताओं का है। दुनिया के चार बड़े रेलवे नेटवर्कों में से एक भारतीय रेलवे की ट्रेनों में प्रतिदिन तीन करोड़ से अधिक लोग यात्रा करते हैं। हर दिन 87 लाख टन माल की ढुलाई रेल के जरिये होती है। कब कहां जरा-सी चूक रेल दुर्घटना का कारण बन जाए कहना मुश्किल है। अपनी हर छोटी-मोटी आर्थिक जरूरत के लिए वित्त मंत्रालय की तरफ देखने वाले रेल विभाग की यात्री सुरक्षा संबंधी अनेक योजनाएं सिर्फ इसलिए क्रियान्वित नहीं हो पा रही हैं क्योंकि उनके लिए अपेक्षित धनराशि का अभाव है। भारत में प्रतिवर्ष औसतन छोटे-बड़े करीब तीन सौ रेल हादसे होते हैं। इनमें से ज्यादातर की वजह ट्रैक की क्षमता में वृद्धि न हो पाना है। जिस ट्रैक पर तीस किलोमीटर प्रतिघंटे की रफ्तार से ट्रेन चलनी चाहिए वहां 110 की गति से ट्रेन दौडेÞगी तो क्या होगा!


वर्ष 2016-17 के दौरान रेल हादसों में 193 यात्रियों की मृत्यु हुई। जबकि 2014-15 में 131 रेल हादसों में 168 तथा 2013-14 में 117 ट्रेन दुर्घटनाओं में 103 लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी थी। वर्ष 2015 में हुई रेल दुर्घटनाओं में साठ प्रतिशत का कारण ट्रेनों का पटरी से उतरना था। 2016 में हुई अस्सी रेल दुर्घटनाओं में ज्यादतर की वजह रेल ट्रैक के नवीनीकरण का अभाव पाया गया। यदि 2017 के बड़े रेल हादसों की बात करें तो जनवरी में 1, फरवरी में 1, मार्च में 3, अप्रैल में 3, मई में 1 तथा अगस्त में हुई 2 रेल दुर्घटनाओं में से ज्यादातर ट्रेन के पटरी से उतरने, बिना फाटक वाले रेलवे क्रॉसिंग पर वाहन टकराने या रख-रखाव की खामी या इसी जैसे अन्य कारणों से हुर्इं। अगर धन का अभाव आड़े नहीं आता और रेल पटरियों के नवीनीकरण-कार्य को समय पर अंजाम दिया जाता तो इनमें से ज्यादातर दुर्घटनाओं को रोका जा सकता था।

एक तरफ तो रेलवे अपने यात्रियों को सेवा मुहैया कराने के उद््देश्य से घाटे के बावजूद ट्रेनों के संचालन की अपनी प्रतिबद्धता के दावे कर रहा है और दूसरी तरफ कर्मचारियों पर बढ़ते कार्यभार की प्रतिपूर्ति के लिए नई नियुक्ति और भर्ती के बजाय निजीकरण और ठेका प्रथा को बढ़ावा दे रहा है। यह जानते हुए भी कि वहां कर्मचारियोंं का शोषण होता है। पटरियों पर ट्रेनों के बढ़ते दबाव के चलते उनके रखरखाव और मरम्मत का काम संभव न हो पाने के कारण दुर्घटनाएं रुकने का नाम नहीं ले रही हैं। दो वर्ष पूर्व रेल मंत्रालय द्वारा जारी श्वेतपत्र में कहा गया था कि देश भर में फैली 1 लाख 14 हजार 907 किलोमीटर लंबी पटरियों के नेटवर्क में से प्रतिवर्ष साढेÞ चार हजार किलोमीटर रेल पटरियों को बदलने की आवश्यकता है।

वर्तमान में 5300 किलोमीटर रेल पटरी बदलने की दरकार है, लेकिन चालू वर्ष के लक्ष्य में केवल 2100 किलोमीटर रेल पटरियों के बदलाव को शामिल किया गया है। विशेषज्ञों का मानना है कि महज 40 हजार करोड़ रुपए की राशि खर्च कर संपूर्ण रेल सुरक्षा-व्यवस्था को उन्नत बनाया जा सकता है। लेकिन उसके लिए सरकार के पास धन का अभाव है। दूसरी तरफ केवल एक रेलवे ट्रैक अमदाबाद-मुंबई के बीच 320 किलोमीटर प्रतिघंटा की रफ्तार से चलने वाली बुलेट ट्रेन परियोजना को सरकार शुरू कर चुकी है, जिसकी कुल लागत करीब 1 लाख 10 हजार करोड़ रुपए है।

इसे विडंबना ही कहा जाना चाहिए कि देश की आम जनता जिन रेलगाड़ियों में सफर करती है, धनाभाव के कारण हम उनके रेल-पथ का नवीनीकरण और उचित रखरखाव नहीं कर पा रहे हैं। एक लाख सत्ताईस हजार रेलकर्मियों के रिक्त पद नहीं भर पा रहे हैं। जबकि मौजूदा रेल-व्यवस्था पर पड़ने वाले दबाव की वजह से हो रही रेल दुर्घटनाओं में प्रतिवर्ष सैकड़ों यात्री मारे जा रहे हैं। दूसरी तरफ मुट्ठी भर अमीर लोगों की खातिर बुलेट ट्रेन जैसी परियोजना उधार के धन से चल रही है।

क्या यह उचित नहीं होता कि 40 हजार करोड़ रुपए खर्च कर पहले अपनी खस्ताहाल रेल व्यवस्था को सुधार लिया जाता, उसके बाद बुलेट ट्रेन परियोजना को हाथ में लिया जाता? भारत में बुलेट ट्रेन पर खर्च होने वाली धनराशि हमारे कुल स्वास्थ्य बजट के तीन गुना के बराबर है। यह अलग बात है कि इसका वित्तीय प्रबंध जापान से मिलने वाले अठ्ठासी हजार करोड़ रुपए के कर्ज से हो रहा है। सवाल धनराशि के प्रबंध से ज्यादा सरकार की प्राथमिकता का है। 2022 में देश की आजादी की पचहत्तरवीं वर्षगांठ के मौके पर हम देश के हर व्यक्ति को रोजगार, स्वास्थ्य, भरपेट भोजन, दुर्घटना-रहित रेल यात्रा की सौगात देंगे या बुलेट ट्रेन?

यह सवाल उठना भी लाजमी है कि जहां औसतन सौ किलोमीटर प्रतिघंटा की रफ्तार से चलने के बावजूद भारतीय ट्रेनें दुर्घटना की शिकार हो जाती हैं वहां इस बात की क्या गारंटी कि 320 किलोमीटर प्रतिघंटा की रफ्तार से चलने वाली बुलेट ट्रेन दुर्घटना की शिकार नहीं होगी? इसके जवाब में रेलमंत्री पीयूष गोयल का कहना है कि जिस जापान से यह तकनीक आई है वहां बुलेट ट्रेन दुर्घटना का अभी तक कोई उदाहरण नहीं है। लेकिन किसी भी तकनीक की सफलता-असफलता उस देश की कार्य-संस्कृति, तकनीकी क्षमता, प्रशिक्षण आदि पर भी निर्भर करती है। कोई जरूरी नहीं कि जो तकनीक जापान में जिस अनुुपात में कामयाब हुई हो, भारत में भी उसकी सफलता का प्रतिशत उतना ही रहे।

हालांकि सरकार का उद््देश्य लाभार्जन के बजाय जन-कल्याण होता है। फिर भी अगर लागत-लाभ विश्लेषण की दृष्टि से बुलेट ट्रेन परियोजना का आकलन किया जाए तो मोदी सरकार के आने के बाद से लेकर अब तक रेल किराये में सत्तर प्रतिशत वृद्धि के बावजूद रेलवे खस्ताहाल है। डायनेमिक और सुपर डायनेमिक किराए के चलते रेलयात्री अक्सर सस्ती हवाई यात्रा को प्रश्रय देने लगे हैं। मामूली धनराशि के अंतर में उनके समय की बड़ी बचत जो हो रही है! साथ ही रेलवे प्लेटफार्म के भीड़-भरे वातावरण से मुक्ति भी मिल जाती है। ऐसे में बुलेट ट्रेन कितने लोगों को अपनी ओर आकर्षित कर पाएगी यह तो आने वाला समय ही बताएगा। खासतौर से तब जबकि अमदाबाद से मुंबई की जो दूरी बुलेट ट्रेन सवा दो घंटे में तय करेगी उसे हवाई यात्रा में मात्र पचहत्तर मिनट में पूरा किया जा सकेगा।

रेल विभाग रेल-सेवाओं में वृद्धि तो कर देता है लेकिन सुरक्षा के मामलों पर पर्याप्त ध्यान नहीं दे पाता। रेलवे सुरक्षा और सेवाओं के बीच संतुलन बैठाए जाने की आवश्यकता है। भारतीय रेलों में सुधार की तमाम सिफारिशें फाइलों में धूल खा रही हैं। पिछले वर्ष प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रेलवे नेटवर्क को बेहतर बनाने की महत्त्वाकांक्षी योजना के तहत पांच साल के दौरान साढ़े आठ खरब रुपए के निवेश का एलान किया था। रेलवे कोष और निवेश की कमी से लगातार जूझ रहा है। पिछले साल एक रिपोर्ट में स्वीकार किया गया कि सुरक्षा को लेकर रेलवे में जितना निवेश होना चाहिए, नहीं हो सका है।