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ऊंची इमारतों से झांकती समस्याएं -- अभिषेक कुमार सिंह

दुनिया में बढ़ते शहरीकरण के मद््देनजर, इमारतों के निर्माण के लिए ‘फ्यूचर इज वर्टिकल' यानी भविष्य आसमान की ओर देखने में है, यह जुमला काफी समय से कहा-सुना जा रहा है। नगरों के नियोजन और रखरखाव से जुड़े योजनाकारों का मत है कि भारत को भी अब ऊंची इमारतों के निर्माण के जरिए आवास की जरूरतों को पूरा करना चाहिए। कई अन्य देशों की तरह भारत में भी यह चलन तेजी से बढ़ा है। इधर कुछ वर्षों से देश के ज्यादातर बड़े शहरों में आकाश चूमती इमारतों के निर्माण में तेजी आई है, पर क्या यह लंबवत विकास देश व समाज के हित में है? हाल में, शिकागो की संस्था काउंसिल आॅफ अर्बन हैबिटेट ने जो रिपोर्ट तैयार की है, उसके मुताबिक पूरी दुनिया में गगनचुंबी इमारतें बनाने के काम में पिछले साल (2016) के मुकाबले इस साल तेरह फीसद की तेजी आई है। संस्था ने 656 फुट ऊंची यानी करीब पैंसठ मंजिला इमारतों को इस सूची में शामिल करते हुए बताया है कि दुनिया में इस साल कुल ऐसी 144 इमारतें बनकर तैयार हुई हैं। इनमें से आधे से ज्यादा, 77 इमारतें चीन के छत्तीस शहरों में बनी हैं। यह संख्या अमेरिका में साल भर में तैयार हुई इमारतों से ज्यादा है। इस सूची में भारत समेत तेईस देशों की बाबत जानकारी दी गई है और इसमें श्रीलंका व केन्या पहली बार शामिल हुए हैं।


देखा गया है कि पहले ज्यादातर ऊंची इमारतें दफ्तरी कामकाज के लिए बनाई जाती थीं, पर अब इस बारे में लोगों का नजरिया बदला है। अब गगनचुंबी इमारतें आवासीय जरूरतों के लिहाज से ज्यादा बन रही हैं। असल में, पिछले एक-डेढ़ दशक से हमारे देश में एक यह सपना जोरशोर से देखा जा रहा है कि हम जल्द ही कुछ ऐसा करें कि न्यूयॉर्क, शंघाई और टोक्यो जैसे महानगरों को मात दे दें और दुनिया को दिखा दें कि आधुनिकता में हमारा कोई सानी नहीं है। दिल्ली-एनसीआर समेत सभी महानगरों में ऊंची इमारतों को बढ़ती आवास समस्या के हल के रूप में देखा जा रहा है। लेकिन भूकम्प जैसी आपदा और संसाधनों पर भारी बोझ पैदा करने के मद््देनजर ऐसा बहुमंजिला विकास बेहद खतरनाक स्थिति में पहुंच गया है। कुछ वर्ष पूर्व दिल्ली के लिए बनाए गए मास्टर प्लान-2021 में सलाहकार समिति ने यह प्रस्ताव किया था कि दिल्ली-एनसीआर के ज्यादातर इलाकों में बहुमंजिला इमारतों के निर्माण की इजाजत दे दी जाए। उसकी सिफारिश थी कि रिहाइशी इलाकों में बनाई जाने वाली इमारतों की ऊंचाई मौजूदा पंद्रह मीटर से बढ़ा कर साढ़े सत्रह मीटर तक कर दी जाए। इस समिति का मानना है कि यह छूट देने से लोग भूतल पर कार पार्किंग बनाने को प्रेरित होंगे और अपनी कारें अवैध रूप से सड़कों-गलियों में नहीं खड़ी करेंगे। माना जा रहा है कि 2030 तक दिल्ली आबादी के मामले में आस्ट्रेलिया जैसे देश तक को पीछे छोड़ देगी। ऐसे में दिल्ली जैसे बड़े शहरों के सामने इसके अलावा कोई और विकल्प ऐसा शेष नहीं है जिससे बढ़ती आबादी की रिहाइशी जरूरतें पूरी करने और शहरी नियोजन के काम को भी थोड़ा व्यवस्थित करने के लिए लंबवत विकास का सहारा लें।


गौरतलब है कि इससे पहले 2007 में दिल्ली की रिहाइशी कॉलोनियों में इमारतों की ऊंचाई बढ़ाने की छूट दी गई थी। तब यह ऊंचाई 11 मीटर रखने की इजाजत थी जिसमें चार मीटर और जोड़ने की छूट प्रदान की गई थी। काम-धंधे की तलाश में दिल्ली-एनसीआर और मुंबई, कोलकाता आदि बड़े शहरों का रुख करती नौजवान आबादी को इस किस्म की छूटों से बेशक फायदा हो सकता है। क्योंकि इससे एक तो उन्हें महानगरों में ही या उनके नजदीकी इलाकों में रहने के सस्ते विकल्प मिल सकते हैं। कार्यस्थल से ज्यादा दूर नहीं रहने का लाभ भी यह आबादी ऐसी स्थिति में उठा पाएगी। लेकिन क्या इमारतों की ऊंचाई बढ़ाते जाना एक समझदारी भरा फैसला है?कई विकसित मुल्कों में आधी सदी से ज्यादा पहले से स्काई-स्क्रैपर यानी आसमान छूती इमारतें बन रही हैं। ये ऊंची इमारतें जहां एक मुल्क की समृद्धि को दर्शाती हैं, वहीं दूसरी ओर अपराधों और आतंकवाद तक का कारण बनती हैं। पहले हमारे देश में गगनचुंबी इमारतों का फैशन जरा कम ही रहा। देश की राजधानी दिल्ली की बसाहट में भी अतीत के योजनाकारों ने इस बात का ध्यान रखा था कि यहां इमारतें ज्यादा ऊंची न हों। यही वजह है कि जहां मुंबई में प्रति एक हजार की आबादी पर सिर्फ 0.03 एकड़ खुला स्पेस लोगों को हासिल है, वहीं दिल्ली में यह हाल तक तीन एकड़ रहा है।


कुछ बरस पहले तक तो खुद दिल्ली विकास प्राधिकरण (डीडीए) भी चार मंजिल से ज्यादा ऊंचे भवन नहीं बनाता था, पर अब अपनी पिछली योजनाओं में डीडीए ने लोगों को बहुमंजिले अपार्टमेंटों में आवास देने की शुरुआत कर दी है। कहा जा रहा है कि आबादी के मद््देनजर आवास समस्या के समाधान का व्यावहारिक और दूरदर्शी तरीका यही है कि हम ऊंची इमारतें बनाएं, ताकि कम से कम जगह में ज्यादा से ज्यादा लोग रह सकें। दुनिया भर में विशेषज्ञ इसके पक्ष में रहे हैं कि काम करने वाली जगहों के निकट ही आवास का सृजन और वहां दी गई यातायात की समुचित सुविधा कहीं ज्यादा कारगर होती है। इस तरह कॉम्पैक्ट शहरों का निर्माण होता है, जो ज्यादा सुविधाजनक होते हैं। पर दूसरी तरफ कई जाने-माने शहरी नियोजन विशेषज्ञ इस किस्म के ‘लंबवत विकास' को समाज के लिए घातक मानते हैं।


शहरी नियोजन से जुड़े मशहूर विचारक लियॉन क्रेअर का कहना है कि एक दिन दुनिया में ऐसा आना है, जब न तो बिजली पैदा करने के लिए हमारे पास यूरेनियम और कोयला होगा और न वाहनों के लिए तेल, तो ऐसे में ऊंची इमारतों की लिफ्ट बंद हो जाएगी। दिल्ली-एनसीआर के संदर्भ में यह चिंता सौ फीसद सही प्रतीत होती है। इमारतों की ऊंचाई बढ़ने के साथ ही राष्ट्रीय राजधानी परिक्षेत्र के सीवरेज सिस्टम, कचरा निष्पादन व्यवस्था, बिजली और पानी का इंतजाम- इन सब पर भी भारी दबाव पड़ेगा। लिफ्टों का इस्तेमाल बढ़ने से बिजली की खपत और बढ़ जाएगी जो कि अभी ही दस फीसद प्रतिवर्ष की दर से बढ़ रही है। इसी तरह अभी दिल्ली में 42-50 करोड़ लीटर पानी की जरूरत होती है जिसमें प्रतिदिन 10 करोड़ लीटर की कमी अभी ही है। दिल्ली की सीवरेज लाइनें ब्रिटिश शासनकाल में बिछाई गई थीं, जो अब तक नहीं बदली गई हैं। इसी तरह अब से पांच साल पहले दिल्ली से हर रोज साढ़े छह हजार टन कचरा निकलता था जो अब दस हजार टन को पार कर चुका है। इमारतों की ऊंचाई बढ़ते ही कचरे की मात्रा भी बढ़ेगी। इन इमारतों में रहने वाले लोग जब अपनी कारों से और सार्वजनिक परिवहन के साधनों से सड़कों पर आएंगे, तो यातायात जाम की समस्या में कितना इजाफा होगा, इसका आकलन किया जाना अभी बाकी है। बहुमंजिला इमारतों में रहने के कारण सामाजिकता और सामुदायिकता की अवधारणा को गहरा आघात लगने की आशंका भी रहती है। लियॉन क्रेअर दो टूक कहते हैं कि तीन मंजिल से ज्यादा ऊंची इमारतें बनाना भावी सोच का परिचायक नहीं है। वैसे भी सिर्फ ऊंची इमारतें बनाने से काम नहीं चलता, बल्कि इसके लिए समूचा वैसा इन्फ्रास्ट्रक्चर बनाना पड़ता है, जैसा पश्चिम में है। यानी यह नहीं हो सकता कि इमारतों की ऊंचाई तो बढ़ जाए, पर बिजली, पानी, सड़क और परिवहन की व्यवस्थाएं जस की तस लचर बनी रहें। इससे तो बड़ा विरोधाभास पनपेगा और ऐसा बेढंगा विकास हमें ले डूबेगा।