Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 73
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 74
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
Notice (8): Undefined variable: urlPrefix [APP/Template/Layout/printlayout.ctp, line 8]news-clippings/एक-अध्यापक-जो-समाज-के-लिए-था-विभूति-नारायण-राय-12958.html"/> न्यूज क्लिपिंग्स् | एक अध्यापक जो समाज के लिए था- विभूति नारायण राय | Im4change.org
Resource centre on India's rural distress
 
 

एक अध्यापक जो समाज के लिए था- विभूति नारायण राय

महात्मा गांधी को याद करते हुए आइंस्टीन ने कहा था कि आने वाली नस्लों को यह विश्वास ही नहीं होगा कि उनके जैसा हाड़-मांस का कोई पुतला भी पृथ्वी नामक ग्रह पर कभी रहा होगा। महामानव का असाधारण होना बहुत अस्वाभाविक नहीं है, वे तो महामानव बनते ही अपने भीतर-बाहर की असाधारणता के कारण हैं। कई बार हमारा साबका किसी ऐसे साधारण मनुष्य से पड़ता है, जो अपने भीतर मनुष्य के दुर्लभतम गुण छिपाए रहता है। इलाहाबाद विश्वविद्यालय के अपने एक ऐसे ही अध्यापक प्रोफेसर ओम प्रकाश मालवीय को उनके निधन के बाद याद करने बैठा हूं।


मालवीय जी खुद को पंडित जी कहलाना पसंद करते थे- शायद यह अपने समय के महानायक को रोल मॉडल के तौर पर अपनाने का आग्रह था। जवाहरलाल नेहरू एक नए भारत के निर्माण का सपना देख-दिखा रहे थे। यह भारत उदार था, धर्मनिरपेक्ष व प्रगतिशील था और भाखड़ा नांगल बांध या बोकारो स्टील प्लांट उसके आधुनिक मंदिर थे। ऐसे नेहरू को उन्होंने अपना नायक बना रखा था। यहां तक कि उनकी पत्नी भी उन्हें पंडित जी ही कहती थीं। विश्वविद्यालय का उनका अपना अंग्रेजी विभाग जरूर अपवाद था, जहां शायद ही मैंने उनके किसी अन्य सहयोगी अध्यापक को पंडित जी कहकर पुकारते सुना हो। वहां वह मिस्टर मालवीय थे। यह अंग्रेजीदां आभिजात्य का पाखंड था, जिसमें पंडित जी कभी सहज नहीं हो पाए। यह आभिजात्य कभी बर्दाश्त नहीं कर पाया कि अंग्रेजी विभाग का उनका एक सहकर्मी सुबह-शाम घर पर छात्रों की भीड़ को ‘ट्यूशन' पढ़ाए। किसी ने जानने की कोशिश नहीं की कि पंडित जी अपने छात्रों से पढ़ाने के एवज मे कुछ शुल्क भी लेते हैं क्या? सच्चाई यह थी कि ज्यादातर छात्र उन्हें कुछ भी भुगतान नहीं करते थे। अलबत्ता जो खाने के समय वहां होते, वे रात्रि भोज भी वहीं करके जाते। एक तो वैसे ही बड़ा परिवार, ऊपर से छात्रों की भीड़- खाने के समय 10-12 लोगों के लिए उनकी पत्नी ही, जिन्हें हम बहन जी कहते थे, सारे इंतजाम करतीं। मेरे जैसे कुछ तो वहीं रहकर तैयारी कर रहे थे। हमारी कभी हिम्मत नहीं पड़ी कि किसी भुगतान की बात उनसे करते। पर विभाग के अध्यापकों के लिए यह मानना मुश्किल था कि उनका कोई सहयोगी नि:शुल्क अपने छात्रों को पढ़ाता है, उन्हें अपने बच्चों के साथ बैठाकर खाना खिलाता है और उनमें से कुछ जरूरतमंदों की फीस भी खुद ही भरता है। रामपुर घराने के उनके उस्ताद थे, जिन्हें पंडित जी अपना पेट काटकर भी वेतन का बड़ा हिस्सा देते थे। बाद में कुर्रतुल ऐन हैदर की सिफारिश से उन्हें कोई वजीफा दिलवाया था। विभागीय सहयोगियों के लिए तो वह ट्यूशन पढ़ाने वाले या कुंजी लिखने वाले अध्यापक थे, फलस्वरूप उपेक्षित रहे। उन्हें एमए की कक्षाएं नहीं दी जाती थीं। पंडित जी की दुनिया उनके छात्रों में फैली हुई थी, जो किसी सच्चे अध्यापक के लिए संतोष का बायस हो सकती थी।


अपने नायक नेहरू की तर्ज पर पंडित जी पर्यावरण और संगीत में भी गहरी दिलचस्पी लेते थे। कल्याणी देवी में उनके घर के पास एक उजाड़ सा कब्रिस्तान था, जिसे अपने शिष्यों की मदद से उन्होंने घने जंगल में तब्दील कर डाला था। मुझे गरमियों की दोपहरियां याद हैं, जब पंडित जी को हमें पढ़ाते हुए अचानक याद आता कि किसी नीम के पौधे को उन्होंने एक दिन पहले सूखते देखा है और बस हम निकल पड़ते। आगे-आगे पंडित जी और पीछे पानी की बाल्टी लिए शिष्य। इलाहाबाद शहर दक्षिणी में जो हरियाली दिखती है, उसमें उनका भी हाथ है। मुझे तो कदंब के वृक्ष से परिचित ही उन्होंने कराया। मौसम की पहली बरसात अपने प्रिय शिष्यों को रात्रि भोजन के लिए निमंत्रित करते। विश्वविद्यालय से हम साइकिल से पहुंचते और पंडित जी को पूरे परिवार के साथ गाते सुनते। गालिब, निराला और फिराक उनके प्रिय कवि थे।


आधी सदी पहले के समय की कल्पना कीजिए, छूत-छात और अंधविश्वासों से आज के मुकाबले अधिक ग्रस्त समाज में एक रूढ़िग्रस्त ब्राह्मण परिवार का मुखिया रिक्शे पर लादकर एक मुसलमान लड़के को अपने घर ले गया और जब तक वह ठीक नहीं हो गया, पूरा परिवार उसकी सेवा करता रहा। पंडित जी के एक प्रिय शिष्य मोहम्मद शीस खान को चेचक निकल आई थी और पूरी तरह से स्वस्थ होने तक वे डेलीगेसी के अपने कमरे में लौट नहीं पाए।


मुझे 1990 का दिसंबर याद आ रहा है, जब राम जन्मभूमि आंदोलन के चलते पूरा देश तनाव के झूले में झूल रहा था। इलाहाबाद आंदोलन का केंद्र था और वहां माहौल में हर जगह उत्तेजना घुली हुई महसूस की जा सकती थी। आस-पास के कई शहरों में कफ्र्यू लगा हुआ था और वहां कभी भी कफ्र्यू लग सकता था। ऐसे में, एक दिन सूचना मिली कि कुछ एक्टिविस्ट, लेखक, कलाकार और विश्वविद्यालय के अध्यापक शहर के पुराने हिस्से में एक शांति जुलूस निकालेंगे। जुलूस में प्रोफेसर बनवारी लाल शर्मा, प्रोफेसर मालवीय, कॉमरेड जियाउल हक समेत शहर के तमाम बुद्धिजीवी भाग लेंगे। बिना कफ्र्यू के भी निर्जन पड़ी सड़कों पर आशंका थी कि उपद्रवी जुलूस पर हमला कर दंगा भड़का सकते हैं। शहर अफवाहों से पटा था और एसएसपी की हैसियत से मेरे सामने एक बड़ी चुनौती थी, मैं जुलूस से थोड़ी दूरी बनाकर चल रहा था। अचानक किसी गली से निकलकर एक बूढ़ा मुसलमान दौड़ता हुआ आया और पंडित जी का हाथ पकड़कर खड़ा हो गया। वह बार-बार कुछ कह रहा था, जिसे दूर खड़ा मैं सुन नहीं सका। थोड़ी देर रुककर जुलूस आगे बढ़ चला। बाद में पता चल सका कि बूढ़ा एक ही वाक्य दुहरा रहा था कि पंडित जी सड़क पर निकल आए हैं, लिहाजा अब कहीं कुछ गड़बड़ नहीं होगा। ऐसा था उन पर अल्पसंख्यकों का विश्वास। साथ में अंग्रेजी विभाग के एक अन्य अध्यापक भी थे, जिन्होंने कई साल बाद मुझसे बात करते हुए स्वीकार किया था कि उस दिन के पहले तक तो मालवीय जी उनके लिए सिर्फ ट्यूशन पढ़ाने वाले साधारण अध्यापक थे, उस दिन उन्हें पता चला कि समुदाय से उनके कैसे रिश्ते थे? मैं उस दिन उन्हें बता सका कि कैसे पंडित जी कर्फ्यू के दिनों में परिवार को जोखिम में डालकर भी उस्ताद के परिवार को राशन-पानी भिजवाते हैं। इन्हीं सब को याद कर कई बार आश्चर्य होता है कि ऐसा हाड़-मांस का पुतला अब भी एक संभावना है। (ये लेखक के अपने विचार हैं)