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एक अनूठी विरासत का बेजा विरोध - स्‍वपन दासगुप्‍ता

अभी ज्यादा दिन नहीं हुए, जब भारत के बारे में बाकी दुनिया, विशेष रूप से पश्चिमी जगत में दो तरह की धारणाएं विद्यमान थीं। पहली धारणा यह थी कि भारत का मतलब उत्पीड़न, भुखमरी, बीमारी और बूचड़खाना है। दूसरी धारणा के रूप में भारत की छवि एक ऐसे देश की थी, जहां साधुओं, भिखारियों, सपेरों, बाघों, हाथियों और हीरे-जवाहरातों से लदे महाराजाओं की भरमार है। यही मिथकों वाला भारत था और हां, रहस्यमयी योग कला वाला भारत भी।

यद्यपि भारतीय नेताओं ने पांच हजार साल की विरासत और प्राचीनता को विश्व स्तर पर प्रस्तुत करने के लिए बहुत मेहनत की, लेकिन इस प्रयास में ज्यादा विश्वसनीयता नहीं थी। कुछ अपवाद जरूर रहे जब 1960 के दशक के अंतिम दौर में मुठ्ठीभर लोगों ने वाराणसी और काठमांडू का रुख किया। यह भी सही है कि एक वैकल्पिक जीवनशैली की तलाश द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद पश्चिमी सभ्यता के समक्ष उभरे एक तात्कालिक संकट की देन थी। यानी इसका भारत की उभरती (नरम) शक्ति को पहचान और मान्यता देने की जागृति से कोई संबंध नहीं था। अंतरराष्ट्रीय राजनीति के शासकों की सोच यह थी कि उभरती शक्ति महाशक्तियों (पहले सैन्य रूप से और अब आर्थिक दृष्टि से) की पिछलग्गू ही हो सकती है। दुर्भाग्य से यहीं भारत लड़खड़ा गया।

उभरती या नरम शक्ति से हमारा मतलब होता है बॉलीवुड से लेकर बौद्ध दर्शन, क्रिकेट, योग, विपश्यना और यहां तक कि दुरूह ध्यान योग का दिलचस्प मिश्रण। भारत को उभरती शक्ति का तमगा तभी मिला, जब उसने कुछ आर्थित ताकत जुटा ली और भारतीयों ने उन क्षेत्रों में अपनी पहचान बनाना आरंभ कर दिया जो पूंजीवादी

प्रकृति से निर्धारित होते थे। गांधीजी जब 1931 में दूसरे गोलमेज सम्मेलन के लिए इंग्लैंड गए तो उन्हें एक चालाक राजनेता, संत और चिड़चिड़े व्यक्ति के मिले-जुले रूप में देखा गया। उन्होंने सभी लोगों का सम्मान अर्जित किया, लेकिन उनके प्रतिबद्ध शिष्य उनके वैराग्य और शाकाहारी प्रकृति से ही आकर्षित हुए थे। मुख्यधारा में गांधीजी को एक दिलचस्प विचित्रता के साथ ही देखा गया।

जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पिछले वर्ष सितंबर में अमेरिका की यात्रा पर गए तो उनके कठिन नवरात्र व्रत चल रहे थे। इससे निश्चित रूप से कूटनीतिक स्वागत समारोहों में कुछ विचित्र स्थिति उत्पन्न् हुई, लेकिन किसी क्षण ऐसा प्रतीत नहीं हुआ कि मेजबान देश में कोई भी इसे लेकर हास-परिहास अथवा चुहलबाजी कर रहा है। एक बड़ी रैली के लिए मेडिसन स्क्वायर में जुटे मोदी के समर्थक उस भीड़ से बहुत अलग थे जो 83 साल पहले लंदन के पूर्व में महात्मा गांधी को सुनने के लिए जमा हुई थी। एक बड़ा अंतर तो यही था कि गांधी एक शोषित-पीड़ित जनसमूह की ओर से बोल रहे थे, जबकि मोदी एक आत्मविश्वासी, उभरती शक्ति का प्रतिनिधित्व कर रहे थे। गांधी के मामले में एक खास बात यह भी थी कि उनका व्यक्तिगत जीवन एकदम अलग था, काफी कुछ विचित्र। जबकि मोदी ने जो कुछ प्रस्तुत किया था, वह थी आधुनिकता के साथ परंपरागत चीजों का सही तरह समावेश करने की भारत की क्षमता और इसी में शामिल था योग भी।

योग उभरती शक्ति के रूप में भारत का पर्याय बन गया है। आज के अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में योग ने बेहद सफलतापूर्वक स्वास्थ्य संबंधी विश्व की चिंताओं का समाधान किया है। योग में तनावरहित मस्तिष्क और स्वस्थ शरीर की चाबी है। मोदी ने योग को पूरी दुनिया में लोकप्रिय नहीं बनाया है। उन्होंने जब संयुक्त राष्ट्र से योग को अंतरराष्ट्रीय मान्यता देने का आह्वान किया तो उनका उद्देश्य दो चीजों को हासिल करना था। भारत की उभरती शक्ति को संस्थागत स्वरूप प्रदान करना और इससे भी महत्वपूर्ण, भारत की एक अहम विरासत को दुनिया के सामने उभारना। अंतरराष्ट्रीय योग दिवस महज एक कूटनीतिक पहल ही नहीं है, बल्कि यह भारत की खुद को दुनिया के सामने उभारने की एक सशक्त कोशिश भी है।

यह अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि योग को अभी भी कुछ अंतरराष्ट्रीय क्षेत्रों में संदेह की निगाह से देखा जाता है। भले ही यह नए दौर की जीवनशैली से जुड़े होने के साथ-साथ फैशनेबल भी हो, लेकिन कुछ धार्मिक समूहों को इस पर गंभीर आपत्ति भी है, खासकर इसलिए कि वे इसे हिंदू दर्शन से जोड़कर देखते हैं और प्राचीन संन्यासी परंपरा का हिस्सा मानते हैं। कुछ ईसाई धार्मिक समूहों ने योग के औचित्य पर संदेह जताया है और इससे मनोवैज्ञानिक समस्याएं उत्पन्न् होने का खतरा जताया है। इसी तरह कुछ इस्लामिक धर्मशास्त्रियों ने योग को इस्लाम विरोधी बताया है और योग के तहत सूर्य नमस्कार की परंपरा पर सवाल खड़े किए हैं।

योग की अपनी एक श्रेणी और वंशक्रम है और सनानत धर्म का पालन करने वालों के बीच इसकी उत्पत्ति और विकास के बारे में कभी किसी तरह का संदेह नहीं उत्पन्न् हुआ। इससे भी इनकार नहीं किया जा सकता कि ईश्वर के साथ एक हो जाने का लक्ष्य अलग-अलग आस्था और पूजा पद्धति वाले लोगों के बीच अलग-अलग रूप में है। फिर भी योग दिवस में सरकार की भागीदारी का केवल इस आधार पर विरोध करना हास्यास्पद लगता है कि एक वर्ग को इस पर ऐतराज है और यह भी गौर करने लायक है कि इस वर्ग को अलग-अलग आस्थाओं और पूजा पद्धतियों को एक साथ मजबूत करने पर विश्वास नहीं है। भारत का सांस्कृतिक स्वरूप बहुत हद तक हिंदू जीवन दर्शन द्वारा परिभाषित है। इसे न तो झुठलाया जा सकता है और न ही इस पर कृत्रिम सेक्युलरवाद का मुलम्मा चढ़ाया जा सकता है। योग एक राष्ट्रीय विरासत है जिसे एक धर्म की चौखट तक न तो सीमित किया जा सकता है और न ही किया जाना चाहिए। न ही इस मामले में उन लोगों अथवा समूहों को प्रोत्साहित किया जाना चाहिए, जो हिंदू शब्द का उल्लेख किए जाने मात्र से बंदूक की ओर लपक पड़ते हैं। यदि ऐसा होता है तो भारत के सामने अपने संगीत, नृत्य, साहित्य और कला को गंवा देने का खतरा पैदा हो जाएगा।

इससे भी बड़ा खतरा राष्ट्रीयता से इतिहास के भटक जाने का है। भारत न तो हिंदू राष्ट्र है और न ही इसे होना चाहिए। बावजूद इसके, एक देश के रूप में हम ऐसे बंधनों से बंधे हुए हैं, जो धार्मिक पहलुओं से भी जुड़े हुए हैं। विरासत का जन्म किसी प्रयोगशाला में नहीं होता और न ही किसी सरकारी आदेश से। विरासत ऐसे अनुभवों, विश्वासों और परंपराओं से उभरती है, जो हजारों सालों के कालखंड से गुजरती हैं। संग्रहालयों में समाई कलाएं ही सभ्यता का निर्माण करती हैं। योग के रूप में हम एक जीवंत परंपरा के वैश्वीकरण के गवाह बन रहे हैं। इस पहल को प्रोत्साहन देने की जरूरत है और इससे गर्व की अनुभूति होनी चाहिए, बजाय इसके कि हम वर्गीय संदेहों को महत्व दें। योग का जो विरोध हो रहा है, वह केवल योग का विरोध नहीं है, बल्कि यह विश्व से अपनी शर्तों पर जुड़ने की भारत की अभिलाषा का भी विरोध है।

(लेखक प्रख्यात स्तंभकार हैं। ये उनके निजी विचार हैं)