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एक और चिपको आंदोलन की जरूरत-- अनूप नौटियाल

पर्यावरण और हरियाली बचाने को लेकर जब भी बात की जाती है, तो उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र में 1970 के दशक के 'चिपको आंदोलन' का जिक्र होना स्वाभाविक है। पहाड़ के जंगलों को बचाने के लिए अलख जगाने वाली गौरा देवी और उनके सहयोगी इस आंदोलन के जनक और प्रेरणाश्रोत के रूप में देश-दुनिया में पहचाने जाते हैं। उत्तराखंड के दूर-दराज के जिले चमोली की ग्रामीण महिलाओं के अथक प्रयासों और चिपको की नीति पर आधारित लंबी लड़ाई के बाद जंगल माफियाओं और ठेकेदारों के साथ सरकार को भी अपनी नीति में बदलाव लाकर घुटने टेकने पड़े थे।

 

यह एक बड़ा सच है कि जंगलों को बचाने के लिए चिपको आंदोलन की राह सदियों तक जनता के हक-हकूक को हासिल करने के लिए एक मार्गदर्शी का काम करती रहेगी। जनता की आवाज का ही परिणाम था कि 1980 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने पर्यावरण बचाने के लिए 15 साल तक पेड़ों को काटने पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया था। इसे दुर्भाग्यपूर्ण ही कहा जा सकता है कि चिपको आंदोलन के जनक रहे उत्तराखंड में मानवीय जरूरतों के बढ़ने से पर्यावरण का स्तर लगातार गिर रहा है। कुछ महीने पहले केंद्र सरकार की स्मार्ट सिटी परियोजना के तहत राज्य सरकार ने देहरादून में स्मार्ट सिटी बनाने के लिए चाय बागान की 1,128 एकड़ भूमि का अधिग्रहण करने का निर्णय लिया।

 

नीतियों का निर्माण राज्य की विशाल आबादी की जरूरतों को ध्यान में रखते हुए किया जाना चाहिए और ये सभी कार्य पर्यावरण संरक्षण और संतुलन के साथ सामंजस्य स्थापित करते हुए किए जाने चाहिए। जैव-विविधता और पारिस्थितिकी के संरक्षण को व्यापक रूप से दीर्घस्थायी किए जाने की आवश्यकता है। इन सभी बातों को सच में बदलने के लिए व्यक्तियों, समुदायों और सरकार की मानसिकता में समय रहते बदलाव आना जरूरी है। हिमालयी राज्यों के सामने खड़ी समस्याओं के कई पहलू हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात है, राज्य के भौगोलिक स्वरूप से हो रहे खिलवाड़ की। ये वे राज्य हैं, जिनका अस्तित्व पूरे देश के लिए बेहद महत्वपूर्ण है। इन राज्यों से निकलने वाली नदियों और प्राकृतिक धरोहरों का अपना विशेष महत्व है। अविरल बहने वाली नदी-झरने पूरे देश के लोगों के गले तर कर रहे हैं। वहीं दूसरी ओर, देश-प्रदेश की सरकारों की नीतियां हिमालय और नदियों का गला घोंटने पर उतारू हैं। भारतीय वन सर्वेक्षण की बीते दिनों आई एक रिपोर्ट के अनुसार, पिछले दो वर्षों में उत्तराखंड की हरित, वन भूमि में 700 वर्ग किमी की कमी आई है। 2013 की भीषण और दहला देने वाली केदारनाथ त्रासदी के जख्म अभी तक भरे नहीं जा सके हैं, वहीं पर्यावरण के जानकारों को यह चिंता सता रही है कि प्रदेश की सरकार ने इस त्रासदी से क्या सबक लिया?

 

पहाड़ी राज्यों में नीतियां दिल्ली या उत्तर प्रदेश के समान नहीं हो सकती हैं। विकास को स्थानीय वास्तविकताओं और सीखों पर ध्यान केंद्रित करना होगा। यहीं पर चिपको आंदोलन की विचारधारा और कार्य अमूल्य प्रतीत होते हैं। दरअसल देश और प्रदेश की सरकारों को अपनी हर नीति को दो कसौटियां पर कसने की जरूरत है। पहली कसौटी कि नई नीति आम लोगों का कितना भला कर पाएगी और दूसरी कि हमारे कुदरती संसाधनों पर कितना दबाव पड़ रहा है। जिस दिन हमारी सरकारें जनता की जरूरत और संसाधनों के इस्तेमाल के बीच स्थायी संतुलन बनाना सीख लेंगी, उस दिन नीतियां जरूर कामयाब होंगी।