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एक कदम आगे या एक कदम पीछे- संजय कुमार

राष्ट्रीय भूमि सुधार नीति ; प्रारूप, ग्रामीण विकास मंत्रलय भारत सरकार के द्वारा सार्वजनिक बहस के लिए रखी गयी है. इस प्रारूप के शुरू में सरकार ने इस समस्या की गहराई को आंकड़ों के जरिये ही स्पष्ट रूप से यह सामने रखा है कि भारत जैसे देश में भूमि सुधीर का सवाल कितना अहम है. राष्ट्रीय प्रतिदर्श संगठन (एनएसएसओ के आंकड़ों 2003-04) के अनुसार करीब 41.63} परिवारों के पास घर के अलावा और कोई भूमि नहीं है. आंकड़ों से भी यह पता चलता है कि एक-तिहाई परिवार भूमिहीन हैं तथा इनमें एक-तिहाई और जुड़ जाते हैं जो भूमि-हीनता के करीब हैं. अगले 20 प्रतिशत परिवारों के पास एक हेक्टेयर से कम भूमि है. दूसरे शब्दों में देश की 60 प्रतिशत आबादी का भूमि के केवल पांच फीसदी भूमि पर ही अधिकार है, जबकि 10}जनसंख्या की 55 फीसदी जमीन पर नियंत्रण है. इसी तरह भूमि सुधार के कार्यक्रम को व्यापक भौगोलिक संदर्भ में देखें, तो जहां चीन ने 46 प्रतिशत भूमि का वितरण किया, वहीं भारत मात्र दो  फीसदी और पाकिस्तान ने कभी भूमि सुधार को संवैधनिक जवाबदेही के रूप में अपनी प्रतिबद्धता जतायी ही नहीं. राष्ट्रीय भूमि सुधार नीति के प्रारूप में उल्लिखित ये आंकड़े उस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की तरफ इंगित करते हैं कि स्वतंत्रता के बाद देश में भूमि सुधार नीति किस कदर असफल रही है.

जाहिर है जब ऐसे प्रश्नों से हम टकराते हैं, तो कई कारण एक साथ नजर आते हैं. मसलन सरकारी संस्थाओं की असफलता, कानून की सीमा, अदालतों में पड़े भूमि-विवाद और कमजोर तबके  में जागरूकता का अभाव और एक हद तक उनकी बेबसी और गरीबी की वजह से अपने हक के लिए पहलकदमी लेने की असमर्थता. इसमें और भी कारण जोड़े जा सकते हैं. और हम इस निष्कर्ष पर भी पहुंच सकते हैं कि भूमि सुधार की नीति और कार्यक्रम की असफलता इन कारणों के बीच से होकर गुजरती है. लेकिन इसके मूल कारण को जानना और विेषण का एक मजबूत आधार हम पा सकते हैं, उन समूहों से बातचीत के जरिये जिनके लिये यह नीति बनाने की बात की गयी है. उन समूहों में आप किसी भूमि पर, स्त्री-पुरुष से किसी हिस्से में बात करें तो जवाब मिल जाता है कि भूमि-नीति की असफलता की असल  वजह क्या है. जब स्थितियां बेकाबू हो जाती हैं तो वे प्रत्यक्ष रूप से कमजोर वर्ग को हिंसा का शिकार बना लेते हैं. इसी तरह देश के किसी हिस्से में इस सवाल पर भूमि सुधार पर संघर्ष में पूरी जिंदगी समर्पित करने वाले बुजुर्गो से बात करें तो आप महसूस करेंगे कि वे भले ही संघर्ष की घटना 1950, 1960, 1970 के दशक की कर रहे हों लेकिन जिस आक्रोश, गुस्से व बेचैनी के साथ अपने तीखे अनुभवों के साथ  वे भूमि सुधार के संघर्ष की चर्चा करते हैं, तो ऐसा लगता है कि वे मौके से अभी ही लौट कर आये हों. उनकी स्मृति में आज भी सरकारी संस्थाओं का विश्वासघात, अदालतों में वर्षो-वर्ष से लंबित मामले, कानून की पेचीदगियां और वर्चस्वशाली समूहों की हिंसा और निहित स्वार्थ का संबंध अक्षरश: दर्ज है.

इस तरह भारत के विभिन्न हिस्सों में भूमि संघर्ष में गहरी प्रतिबद्धता तथा सरोकार के साथ शामिल कार्यकर्ता व नेताओं की दर्द-भरी स्मृति इस समझ को आधार देती है कि भूमि सुधार का मसला खेती संरचना के सामाजिक- आर्थिक संबंधों से जुड़ा है. यह जाति-वर्ग तथा पितृसत्ता की प्रभुत्वशाली विचारधारा तथा खेतिहर संरचना पर उसकी मजबूत पकड़ से प्रत्यक्ष तौर से जुड़ी है.  जबभी पीड़ित जनता कानून से फाजिल भूमि के वितरण का हक मांगती है,तो जमीन पर राजकीय सत्ता व संस्था  उनके साथ सरोकार नहीं रखती, बल्कि दबंग जाति और वर्ग के साथ खड़ी हो जाती है. इस तरह संवैधानिक दायित्व के तहत भूमि सुधार नीति को जमीन पर शोषितों और पीड़ितों के बीच फाजिल जमीन के वितरण की आवाज न केवल दब जाती है बल्कि उनमें पराजय का बोध पनप जाता है.

 हालांकि इस भूमि संघर्ष योद्धाओं की पीड़ादायक कहानी का एक मजबूत स्नेत यह भी है कि आजाद भारत में समय-समय पर केंद्र तथा राज्य दोनों स्तरों पर भूमि-सुधार की नीतियों और कानूनों को सरकार के  एक प्रगतिशील समूह से वह ऊर्जा और ताकत मिलती रही है जिसके आधर पर भूमि सुधार की नीति ने जमीनी स्तर पर पुरानी खेतिहर सामाजिक-आर्थिक संरचना के संबंधों को कमजोर किया है.  इसी तरह देश के विभिन्न हिस्सों में नीचे और ऊपर दोनों स्तरों पर सत्ता और वर्चस्वशाली समूहों के गंठजोड़ उतने मजबूत नहीं हैं जितने 1950, 1960 और 1970 के दशक के समय में बने हुए थे. निश्चित तौर पर एक कारक तत्व भूमि सुधार में जुटे उन योद्धाओं की लड़ाई की सफलता का यह असर है. शायद इन्हीं जमीनी संघर्षो तथा राष्ट्र-राज्य की एक संवैधानिक जवाबदेही का यह दबाव है कि 21वीं सदी के दूसरे दशक में भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रलय ने यह प्रारूप चर्चा एवं टिप्पणी के लिए रखा गया है.

भूमि सुधार नीति में जिन मुद्दों को अहमियत मिली है उनकी प्रासंगिकता और जरूरत पर शायद ही कोई सवाल हो. वे मुद्दे हैं : भूमि उपयोग योजना, भूमिहीनों को भूमि आवंटन, अनुसूचित जाति एवं जनजाति और अन्य सीमांतों की भूमि का संरक्षण, घुमक्कड़ों के लिए भूमि, महिलाओं को भूमि का हक, भूमि बैंक, अन्य समस्याओं का निबटारा, अभिलेखों का आधुनिकीकरण, भूमि का प्रशासन, प्रशिक्षण व क्षमता निर्माण व राज्य भूमि अधिकार आयोग आदि. लेकिन भूमि सुधार नीति के प्रारूप की बुनियादी समस्या इस अर्थ में है कि भूमि सुधार के इन मुद्दों के समाधन का रास्ता शासन के प्रबंधन, नौकरशाही ढांचे में सुधार, आंकड़ों की उपलब्धता, राजस्व पदाधिकारियों व कर्मचारियों की क्षमता निमार्ण में सीमित किया गया है.

भूमि सुधार नीति के दृष्टिकोण की स्पष्टता के बिना हम उस आदर्श लक्ष्य को समयबद्ध कार्यक्रम के तहत हासिल नहीं कर सकते हैं, जिसका ब्योरा सुंदर शब्दों में राष्ट्रीय भूमि सुधार नीति प्रारूप के प्रथम अनुच्छेद में दर्ज है. इस अनुच्छेद को हम भूमि सुधार नीति के प्रस्तावना के रूप में भी पढ़ सकते हैं. वह यह है :

‘‘भूमि सबसे मूल्यवान, अविनाशी संपत्ति है, जिससे लोग अपने आर्थिक स्वतंत्रता, सामाजिक स्थिति और आजीविका के शालीन और स्थायी साधन प्राप्त करते हैं, लेकिन इसके अलावा भूमि ही उन्हें पहचान और गरिमा का आश्वासन देती है और सामाजिक समानता प्राप्त करने के लिए परिस्थितियां और अवसर पैदा करती हैं. निश्चित अधिकार एवं भूमि का एक समान वितरण, शांति और समृद्धि के लिए स्थायी स्नेत है. और भारत में भूमि सुधार आर्थिक और सामाजिक सुधार के लिए मार्ग प्रशस्त कर सकते हैं.’ 

 

(लेखक इंट्रोगेटिंग डेवलपमेंट : इनाइसाट्स फ्रॉम द मारजिन, प्रकाशित ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस, पुस्तक के सह-संपादक हैं)