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एक गलत शैली का राजकाज - जयराम रमेश

बहुत जल्दी नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री के रूप में एक साल का समय पूरा कर लेंगे। नि:संदेह वे और उनके साथी सरकार के इस कालखंड को मील के पत्थर के तौर पर प्रचारित करेंगे और अपनी उपलब्धियों का गुणगान करेंगे। वहीं आलोचना में इस बात को इंगित किया जाएगा कि उन्होंने अपने वादे पूरे नहीं किए। बहुत बड़ी-बड़ी बातें की गईं, जिन पर बाद में सरकार ने यू-टर्न ले लिया। जीएसटी के मामले में सरकार ने जिस तरह रुख बदला, वह इसका एक उदाहरण है।

लोकतांत्रिक पर्दे में मोदी का तरीका एकाधिकारवादी किस्म का है। विभिन्न्ता की अपनी खूबसूरती के साथ भारतीय लोकतंत्र की विशेषता को लेकर रस्म अदायगी वाले बयान भले दिए जाते हैं, लेकिन वास्तविक कामकाज की बात आती है तो प्रक्रिया, विधियां और प्रोटोकॉल को जानबूझकर अलविदा कह दिया जाता है। पहली बात यही कि मोदी ने सभी शक्तियों को अपने पास केंद्रीकृत कर रखा है। निर्णय प्रक्रिया में सिर्फ उन्हीं की चलती है। इस संदर्भ में उन्होंने एक या दो मंत्रियों को ही छूट दी है। वे शीर्ष नौकरशाही के साथ सीधे शासन का संचालन करते हैं और कई बार इस क्रम में संबंधित विभाग व उनके मंत्रियों तक को चीजों की जानकारी नहीं होती। अब वे राज्यों में भी शीर्ष अफसरों से सीधा संवाद कायम कर रहे हैं।

दूसरी बात, उन्होंने अपनी ही पार्टी के चुने गए जनप्रतिनिधियों के महत्व को कमतर किया है और उन्हें सीधे-सीधे यह संदेश दे रहे हैं कि यदि वे सांसद हैं तो सिर्फ उनकी वजह से। उनके सांसद अपनी चिंताओं और अपने चुनाव क्षेत्र की मांगों को पूरा कर पाने में कठिनाई महसूस कर रहे हैं। आखिर वे कब तक शांत रहेंगे और लोगों के प्रश्नों को अनसुना करते रहेंगे? इस संदर्भ में बहुत पहले से ही कुछ फुसफुसाहट की शुरुआत हो चुकी है और बंद कमरे की बैठकों में कुछ ने अपनी निराशा भी जाहिर की है।

तीसरी बात यह है कि मोदी ने अप्रत्यक्ष रूप से संसद की अवमानना की है। स्थायी समिति की संस्था, जो दशकों से गैरदलीय आधार पर विधेयकों की समीक्षा और जांच-पड़ताल करती रही है, को भी नुकसान पहुंचाया गया। पिछले वर्ष 52 बिल पेश किए गए, जिनमें से बमुश्किल पांच को ही स्थायी समिति के पास भेजा गया। सिक्युरिटीज एंड फॉरवर्ड कांट्रैक्ट के नियमन, विदेशी मुद्रा प्रबंधन और मनी लांड्रिंग अथवा हवाला कारोबार से संबंधित चार महत्वपूर्ण कानूनों में सुधार को वित्त विधेयक में समाहित कर पेश किया गया, जो अप्रत्याशित है।

चौथी बात, प्रधानमंत्री ने कार्यपालिका की सर्वोच्चता को बरकरार रखने के लिए हरसंभव कोशिश की। हालांकि यह अपने आप में बहुत आपत्तिजनक नहीं है, लेकिन जो बात परेशान करने वाली है वह है विभिन्न् संस्थाओं के साथ अपनाया जाने वाला सरकार का तौर-तरीका। इसमें नियंत्रण और संतुलन के नियम का ध्यान नहीं रखा जा रहा है। उन्होंने आरटीआई कानून के क्रियान्वयन को अवरुद्ध करने का काम किया। पांचवीं बात, मोदी ने सिविल सोसायटी को भी नियंत्रित करने की कोशिश की है और इशारा किया है कि वे अपने विरोध और गतिशीलता को स्थगित करें अन्यथा सरकार का कोपभाजन बनने के लिए तैयार रहें। ग्रीनपीस और फोर्ड फाउंडेशन पर लगाए गए अंकुश सर्वाधिक प्रत्यक्ष मामला हैं। सिविल सोसाइटी को साफ संकेत दिया गया है कि अगर वह सत्ता प्रतिष्ठान पर सवाल खड़े करेगी तो उसकी गतिविधियों को सहन नहीं किया जाएगा।

शैली ही व्यक्ति की पहचान होती है और प्रत्येक मनुष्य स्पष्ट रूप में अपने मस्तिष्क में एक विराट व्यक्तित्व होता है। टाइम पत्रिका को दिए गए अपने हालिया साक्षात्कार में प्रधानमंत्री ने दावा किया है कि उन्होंने कोआपरेटिव फेडरलिज्म अथवा सहयोगी संघवाद शब्द की शुरुआत स्वयं की है। यह बहुत ही गलत है कि उन्होंने मई 2004 में बनाए गए संप्रग सरकार के न्यूनतम साझा कार्यक्रम को नहीं पढ़ा है, जिसमें मोदी से बहुत पहले सहयोगी संघवाद की बात कही गई है। वे दावा करते हैं कि पश्चिम बंगाल में बर्नपुर स्टील संयंत्र का आधुनिकीकरण मेक इन इंडिया का उदाहरण है। जबकि सच्चाई यही है कि इस संयंत्र के आधुनिकीकरण का काम करीब एक दशक पहले शुरू हुआ था, जिसे अब मोदी ने राष्ट्र को समर्पित भर किया है।

वे ऐसा जता रहे हैं जैसे स्किल इंडिया की आवश्यकता को उन्होंने ही पहचाना है, जबकि सच्चाई यही है कि पूर्ववर्ती संप्रग सरकार ने कुछ वर्ष पहले ही लाल किले की प्राचीर से पहली बार इस मिशन के बारे में पहली बार बात की थी। 'नईदुनिया" के सहयोगी प्रकाशन 'दैनिक जागरण" को दिए गए अपने हालिया साक्षात्कार में उन्होंने कहा कि वर्ष 2013 में भूमि अधिग्रहण कानून को जल्दबाजी में पारित किया गया। यह पूरी तरह गलत आरोप है, क्योंकि व्यापक राष्ट्रव्यापी विचार-विमर्श के बाद इस विधेयक को पारित करने में दो वर्ष का समय लगा था। इसमें 2007 से 2009 के बीच का समय शामिल नहीं किया गया है, जब इससे मिलते-जुलते कानून को पारित किया गया था।

मोदी को मई 2014 में जनता से पूर्ण बहुमत वाला जनादेश मिला था। उन्होंने लोगों की उम्मीदों को बहुत अधिक बढ़ा दिया था। इसमें कोई संदेह नहीं कि वे अपने उद्देश्य के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित और केंद्रित हैं। इसमें भी संदेह नहीं कि उनमें अमिट ऊर्जा है और घरेलू तथा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उन्होंने गजब का नाटकीय प्रदर्शन किया है। लेकिन आखिर ऐसा क्यों है कि इतनी अधिक ऊंचाई पर पहुंचने वाला व्यक्ति बेहद असुरक्षित महसूस करता है? क्यों उन्हें अपने साथियों पर संदेह करना चाहिए? क्या उन लोगों का तिरस्कार किया जाना चाहिए, जिन्हें उन्होंने चुनावों में पराजित किया है? अपने कार्यकाल के शुरुआती महीनों में मोदी ने खुद को एक नए अवतार के रूप में पेश किया था, लेकिन उनकी तब की कही गई बातों और अब जैसे वे सरकार चला रहे हैं, उसमें अंतर नजर आता है। इसमें संदेह नहीं कि प्रधानमंत्री ने कोई भड़काऊ बयान नहीं दिया है, लेकिन रणनीति के तहत अपने साथियों को उन्होंने ऐसा करने दिया है। इसमें भी कोई संदेह नहीं कि उनके कार्य खुद को खबरों में बनाए रखने के लिए होते हैं।

-लेखक पूर्व केंद्रीय मंत्री हैं।