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एक मूर्खता से उठी आंधी- एम जे अकबर

सार्वजनिक जीवन में कौन-सा अपराध बड़ा है, भ्रष्टाचार या मूर्खता? इस सवाल का जवाब देने के लिए आप समय ले सकते हैं. अगर भ्रष्टाचार राजनीतिक मृत्युदंड होता, तो यूपीए कैबिनेट का अधिकांश हिस्सा 2009 के चुनावों में जीत हासिल नहीं करता. संभवत: भ्रष्टाचार का आकलन उसके फैलाव से किया जाता है.

जब भ्रष्टाचार का स्नेहक बड़ी लूट में तब्दील हो जाता है, तब वोटर तय करता है कि अब बहुत हो चुका. प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के लिए यह संसद सत्र काफी मुश्किल भरा रहा. कोल ब्लॉक आवंटन में विपक्षी दलों के हमले का नुकसान प्रधानमंत्री से अधिक कांग्रेस को होगा, क्योंकि खराब समय में भी उन पर लूट से आंखें मूंदे रहने का ही आरोप लगेगा. लाभार्थी वे लोग हैं, जिन्होंने इस लूट का लाभ कुछ राजनीतिक दलों, खासकर कांग्रेस को पहुंचाया. लेकिन, शायद वह अकेली ऐसी पार्टी है, जिसने इस रास्ते का प्रयोग जन-कल्याण के नाम पर किया.

कोयले के इस खेल में शामिल लोगों की सूची में केवल राजनेताओं के दोस्त और रिश्तेदार ही नहीं, बल्कि इसकी पहुंच मीडिया तक है. कुछ मीडिया मालिक सत्ताधारियों की चापलूसी का रास्ता अख्तियार अपनी मांग रखते हैं और उन्हें इसका इनाम मिल जाता है. ये ऐसे खुलासे हैं, जो गेहूं से चोकर को अलग करते हैं या स्वतंत्र मीडिया को देशद्रोही से. सत्ता पर काबिज राजनेता हर समय मीडिया के साथ जीते हैं, अगर कुछ समय के लिए रिश्ता मैत्रीपूर्ण न भी हो, तो भी.

इसलिए यह आश्चर्यजनक नहीं है कि वे कभी भी स्वतंत्र पत्रकारिता के चरित्र को समझने की कोशिश नहीं करते हैं. इस व्यापार से संबंधित एक व्यक्ति ने खबर के बारे में कहा कि यह ऐची चीज है जिसे हर कोई छुपाना चाहता है. यह विरोधाभास तर्कसंगत है. कभी-कभार खबर को नष्ट करने का सबसे आसान तरीका है प्रेस कांफ्रेस आयोजित कर देना. अगर आप कुछ छिपाना नहीं चाहते, तो इसमें किसी की रुचि नहीं होगी. मीडिया का दूसरा पहलू राय देना और विश्लेषण करना है. हालांकि सत्ता में बैठे एक राजनेता को असहमत होने का अधिकार है. लेकिन उसे किसी हुनरमंद वकील की तरह अपनी बात साबित करनी होती है. संभव है, ऐसा करते हुए वह अपने लिए एक आभा मंडल खड़ा कर ले या फिर ध्वस्त हो जाये. लेकिन जब दलीलें गले से न उतरने वाली हों तो वे खुद को ही नुकसान पहुंचा लेते हैं.

दो मसले गवाह हैं. 2जी और ‘कोलगेट’ मामला.
नजरिये के साथ एक विशेष पहलू जुड़ा है. आप चाहें तो उसे तवज्जो दें या नजरअंदाज कर दें. राजनेता की यह मानवीय कमजोरी है कि प्रशंसा से वे खुश हो जाते हैं, लेकिन आलोचना पर चुप्पी साध लेते हैं. लेकिन कई बार उसकी यह कोशिश उलटी भी पड़ जाती है. अगर कोई समझदार मंत्री या फिर प्रधानमंत्री किसी लेखक की आलोचना का जवाब नहीं देता, तो वह पाठक को जवाब नहीं दे रहा होता है. क्योंकि लेखक की आलोचना के साथ ही पाठक जवाब का इंतजार करता है.

चूंकि यह विरोधाभास की रीति बन रही है, तो क्यों न इसे गवर्नेस चलाने के कानून में तब्दील कर दें? मीडिया प्रबंधन के लिए सरकार द्वारा चयनित खबसे खराब व्यक्ति पत्रकार होता है. इस संस्कृति में ऐसा कुछ है कि न्यूजरूम से सरकारी कार्यालय में तबादला, पत्रकार को नये धर्म परिवर्तित व्यक्ति के सबसे खराब उदाहरण में बदल देता है. एक पुरानी कहावत है कि नया धर्म परिवर्तित व्यक्ति दिन में सात बार प्रार्थना करता है. ऐसे में जब उसे खबर को ठीक करने के लिए कहा जाता है तो वह पत्रकार को ही ठीक करने की कोशिश करने लगता है. आक्रामकता अहं को बढ़ा देती है और छिपे हुए भ्रष्टाचार को इस अनुपात में आगे कर देती है कि वह लक्ष्य के लिए नहीं, बल्कि सरकार के लिए जहरीली हो जाती है.

एक गैर जरूरी मामले को आंधी में तब्दील कर दिया गया जब प्रधानमंत्री के आधिकारिक मीडिया सलाहकार ने सोचा कि वे वाशिंगटन पोस्ट के पत्रकार साइमन डेनेयर को दबा देंगे. इस प्रक्रिया में उन्होंने भारतीय पत्रकारों को भी एकपक्षीय खबर लिखने का आरोप लगाकर कठोर संदेश देने की कोशिश की. इस विदेशी पत्रकार ने भारत के प्रधानमंत्री की आलोचना करके अक्षम्य व्यवहार करने की हिम्मत दिखायी. अगर इसका मकसद डेनेयर को नियंत्रित करना था तो इसका उल्टा प्रभाव हुआ.

अगर इसका उद्देश्य भारतीय मीडिया को डराना था, तो परिणाम और भी खराब होते. ऐसी खबर जिसकी अनदेखी की जा सकती थी, वह सुर्खियों में आ गयी. जब सरकार मौके खोती है तो मीडिया उलट-पुलट और असफलता का आईना बन जाता है. सरकार पत्रकारों को तभी प्यार करती है, जब स्थितियां अनुकूल होती हैं. प्रेस की आजादी सरकार की सौगात नहीं है. यह एक अहस्तांतरणीय संवैधानिक अधिकार है. अधिकारी आते हैं और कभी-कभार जिस तेजी से आते हैं उससे भी तेज गति से चले भी जाते हैं. संविधान तब तक जीवित रहेगा, जब तक लोकतंत्र जीवित रहेगा.