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एक वाजिब मांग का पूरा होना- शिवदान सिंह

लंबे अरसे से अटकी वन रैंक वन पेंशन की मांग को पूरा करना सरकार के लिए मुश्किल भरा फैसला भले हो, लेकिन यह पूर्व सैन्यकर्मियों की वाजिब मांग थी। फौजियों का कहना गलत नहीं था कि जब दो फौजी एक पद पर, एक समय तक सेवा देकर सेवानिवृत्त होते हैं, तो उनकी सेवानिवृत्त के वर्षों के अंतर में नया वेतन आयोग भी आ जाता है, जिस कारण बाद में रिटायर होने वाले की पेंशन नए वेतन आयोग के अनुसार बढ़ जाती है, मगर पहले सेवानिवृत्ति पा चुके फौजी की पेंशन उसी अनुपात में नहीं बढ़ पाती। इसलिए समान पद पर रिटायर होने वाले तमाम फौजियों की पेंशन एक होना, उनका अधिकार है। वाकई फौज और दूसरी सरकारी नौकरियों में काम और सेवा के अंतर को जब हम देखते हैं, तो पूर्व फौजियों की यह मांग गलत भी नहीं लगती। खासकर तब, जब फौजी पहाड़ों की दुर्गम चोटियों पर, पूर्वोत्तर के जंगलों में एवं रेगिस्तान की तपती रेत पर बिना थके डटे रहते हैं, और दुश्मनों को मुंहतोड़ जवाब देते हैं।

दरअसल, फौज और दूसरी नौकरियों के काम के चरित्र में काफी अंतर है। सैन्य विशेषज्ञों का मानना है कि मनुष्य 35-37 साल की आयु तक शारीरिक और मानसिक रूप से उत्तम स्थिति में रहता है। इसलिए सेना के 80 प्रतिशत जवानों को 35-37 वर्ष की आयु में सेवानिवृत्त दे दी जाती है। इसके साथ ही, हवलदार, सूबेदार एवं अधिकारी वर्ग के अन्य कर्मचारी क्रमशः 40, 45 एवं 54 वर्ष में रिटायर होते हैं। जबकि सिविल नौकरियों में ऐसा नहीं होता। वे पूरे वेतनमान पर 58 या 60 वर्ष की आयु तक सेवा करने के बाद सेवानिवृत्ति पाते हैं। यानी 35 वर्ष की आयु में रिटायर होकर एक जवान सरकारी क्षेत्र के अन्य कर्मचारियों के मुकाबले 25 वर्ष कम सेवा देता है और फिर कम पेंशन पर अपने परिवार का गुजारा करने को मजबूर होता है। यही वजह है कि 1972 तक फौजियों के वेतन के बेसिक के 75 प्रतिशत पर पेंशन तय की जाती थी, जिसे इंदिरा गांधी के कार्यकाल में सिविल कर्मचारियों के समान बेसिक के 50 प्रतिशत पर तय कर दिया गया। इसका परिणाम यह रहा कि सिविल कर्मचारी अपनी आयु के सैनिक से कहीं ज्यादा पेंशन पाने लगा। इसी असमानता को दूर करने के लिए सेवानिवृत्त सैनिक लगातार आवाज उठा रहे थे, जिसे अब करीब चार दशक के बाद पूरा किया गया है।

वन रैंक वन पेंशन की मांग मान लिए जाने के बाद अब सेना के हर श्रेणी के पूर्व कर्मचारी आज के वेतनमान के अनुसार सेवानिवृत्ति होने वाले समकक्षकर्मियों के बराबर पेंशन पाने लगेंगे। इससे न सिर्फ सेवानिवृत्त सैनिकों का उत्साह बढ़ेगा, बल्कि वर्तमान फौजियों का भी मनोबल बढ़ेगा। हालांकि ऐसा नहीं है कि पेंशन की इन विसंगतियों के कारण हमारे फौजियों का मनोबल कमजोर था। कारगिल जैसे असंभव युद्ध को जीतना बताता है कि फौजियों ने देश-सेवा को ही अपना प्राथमिक उद्देश्य माना है। लिहाजा आम नागरिकों और सरकार की जिम्मेदारी है कि वे सैनिकों की इस भावना का सम्मान करें। हालांकि अब भी थोड़ा बहुत पेच बाकी है, लेकिन उम्मीद है कि रिटायर होने वाले कर्मचारियों के हितों का ध्यान रखने के लिए गठित होने वाला न्यायिक आयोग तमाम भ्रमों को दूर करेगा।

-लेखक सेवानिवृत्त कर्नल हैं