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एक साथ चलती हैं पानी और संस्कृति, समाज की विफलता की निशानी है पानी का न बचना

डाउन टू अर्थ, 18 अप्रैल 

स्वच्छ जल के बिना एक स्वस्थ और सुखद जीवन की कल्पना करना असंभव है। चाहे केंद्र हो या राज्य, ग्रामीण समुदायों तक पानी पहुंचाना हर नई सरकार की प्राथमिकता रही है।

हालांकि अनुभव से पता चलता है कि भले ही पानी की सुविधा कई गांवों में “उपलब्ध” हो गई है, लेकिन ऐसे गांवों की संख्या भी बढ़ी है, जहां पानी फिर से “अनुपलब्ध” हो चुका है।

दरअसल जलापूर्ति का मतलब केवल पाइपें बिछाना नहीं है, बल्कि आपूर्ति प्रणाली के स्रोत को सुनिश्चित करना भी है। मतलब यह कि भले ही पानी की आपूर्ति गांव तक पहुंच गई हो, लेकिन स्रोत के सूख जाने या दूषित होने से पाइप बिछाने का कोई फायदा नहीं होता।

ऐसे में जल आपूर्ति प्रणाली, विशेषकर जल आपूर्ति के स्रोत की स्थिरता सुनिश्चित करना मुख्य चुनौती बन जाती है। भारत सरकार का महत्वाकांक्षी और बेहद जरूरी जल जीवन मिशन (जेजेएम) इस मूलभूत दोष को समझता है और स्थिरता पर जोर देता है, ताकि नलों में लगातार पानी आता रहे। इस प्रकार, जेजेएम का सबसे महत्वपूर्ण उद्देश्य हर घर में एक नल की व्यवस्था न होकर “चालू” हालत में एक नल होना है।

इसके लिए जल सम्पत्तियों अथवा वाटर ऐसेट्स के स्थायित्व में सुधार पर ध्यान देने की जरूरत है। यह सुनिश्चित किया जाए कि तालाब या झील या टैंक पर अतिक्रमण नहीं किया गया है और जल निकासी की सुरक्षा की दृष्टि से अति महत्वपूर्ण जल क्षेत्र नष्ट नहीं होंगे। इसके लिए स्रोत स्थिरता की भी आवश्यकता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि जल स्रोत चाहे वह नदी, झील या कुआं हो, अच्छी तरह से रिचार्ज हो। साथ ही भूमि पर फेंका गया मलमूत्र या वैसे घर जिनमें अब नल और शौचालय हैं, उनसे निकलने वाला अपशिष्ट पानी को प्रदूषित न करे।

यह सोचनेवाली बात है कि घरों में आपूर्ति किया जाने वाला 80 प्रतिशत पानी अपशिष्ट जल के रूप में बहा दिया जाता है। ग्रामीण इलाकों में, स्वच्छता कार्यक्रम ऐसे शौचालयों के निर्माण पर जोर देते हैं जिनमें न्यूनतम पानी का उपयोग होता है। अधिकांश अपशिष्ट जल खुले में छोड़ दिए गए ग्रे वाटर के रूप में होता है। शौचालय को छोड़कर अन्य काम, जैसे स्नान, कपड़े धोने और बर्तन धोने जैसे सभी मानव उपयोगों से पैदा होने वाले अपशिष्ट जल को ग्रे वाटर कहते हैं।
पूरी खबर- डाउन टू अर्थ