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एक सदी पुराने विवाद का निपटारा-- एम श्रीनिवासन

कावेरी जल बंटवारे को लेकर कर्नाटक और तमिलनाडु में 125 से भी अधिक वर्षों से विवाद चला आ रहा है। पिछले हफ्ते आए सुप्रीम कोर्ट के फैसले के साथ अब यह झगड़ा खत्म होने के करीब दिख रहा है। लेकिन क्या यह हल स्थाई होगा? क्या यह फैसला देश के अन्य नदी जल विवादों में भी नजीर बनेगा? सुप्रीम कोर्ट का फैसला आंशिक रूप से ही इन सवालों के जवाब देता हुआ दिखता है। फैसले की असली परीक्षा तो अब इस बात में होगी कि जमीनी स्तर पर इसे कैसे लागू किया जाता है? कोर्ट ने इस मामले से केंद्र को भी जोड़ दिया है। उसने केंद्र सरकार से कहा है कि वह ‘कावेरी मैनेजमेंट बोर्ड' का गठन करे, जो बतौर नियामक काम करे और अदालत के फैसले को लागू भी कराए। इस काम के लिए अदालत ने केंद्र सरकार को छह हफ्तों का समय दिया है। अक्तूबर, 2016 में केंद्र सरकार ने यह कहते हुए बोर्ड गठित करने से इनकार कर दिया था कि यह उसके अधिकार-क्षेत्र में नहीं है, यह महज कावेरी वाटर डिस्प्यूट ट्रिब्यूनल की सिफारिश थी। कर्नाटक ने भी सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद बोर्ड के गठन का इस तर्क के साथ विरोध किया है कि यह जल की निगरानी पर उसके अधिकार को कम करना होगा।


कावेरी जल विवाद के मूल में इस्तेमाल योग्य जल संसाधन की पुनर्साझेदारी का मसला है। सन् 1892 व 1924 में मैसूर प्रांत (अब कर्नाटक) और मद्रास सूबे (अब तमिलनाडु) के बीच हुए दो समझौते कावेरी जल बंटवारे की बुनियाद थे और विवाद की जड़ भी। जिन सिद्धांतों के आधार पर जल बंटवारे का समाधान निकाला गया था, उन पर कर्नाटक और तमिलनाडु का रुख लगातार भिन्न रहा। कर्नाटक अमेरिकी अटॉर्नी जनरल के नाम से चर्चित हर्मन डॉक्टरिन पर जोर देता रहा है, जिसके मुताबिक राज्य को नदी जल पर निर्विवाद रूप से क्षेत्रीय संप्रभुता हासिल है, क्योंकि उसका उद्गम स्थल उसके सीमा क्षेत्र में है। दूसरी तरफ, तमिलनाडु ‘जल के प्राकृतिक बहाव के सिद्धांत' की दुहाई देता रहा है। इसका मतलब है कि हर नदी तट पर बसे लोगों का यह अधिकार है कि वे अबाध रूप से उसके जल का इस्तेमाल करें। सुप्रीम कोर्ट ने अब यह साफ कर दिया है कि जल ‘राष्ट्रीय संसाधन' है और इस पर राज्य विशेष का हक नहीं। इसका मतलब है कि कोर्ट ने दोनों सिद्धांतों को खारिज कर दिया है और ‘न्यायसंगत बंटवारे या इस्तेमाल' के सिद्धांत पर बल दिया है। यह एक महत्वपूर्ण निर्णय है और देश के अन्य नदी जल विवादों पर भी लागू किया जा सकेगा।


कावेरी दक्षिण भारत की चौथी सबसे बड़ी नदी है, जो कर्नाटक से बंगाल की खाड़ी तक 802 किलोमीटर का सफर तय करती है। इस बीच यह तमिलनाडु, केरल और पुडुचेरी में भी बहती है। इस नदी को दक्षिण-पश्चिम मानसून और उत्तर-पूर्व मानसून, दोनों का लाभ मिलता है। जब मानसून अच्छा रहता है, तो राज्यों का काम आराम से चल जाता है, लेकिन जब मानसून कमजोर पड़ता है, तब किसानों को अपनी फसलों की सिंचाई के लिए इसके पानी की दरकार होती है, उस समय विवाद उन्हें सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाता है। पिछले कुछ वर्षों से यह मुद्दा संकीर्ण राजनीतिक अखाड़े में तब्दील हो गया है। दोनों राज्यों के नेता सख्त रुख अपना लेते हैं और इसे क्षेत्रीय अस्मिता से जोड़कर हालात को गंभीर बना देते हैं। हालांकि जल और सिंचाई राज्य के विषय हैं, मगर विशेषज्ञों का कहना है कि संविधान में ऐसे प्रावधान हैं कि केंद्र जनहित में इसे ‘अपने नियंत्रण' में ले सकता है। लेकिन चाहे कांग्रेस की सरकार हो या भाजपा की, दोनों ने इस विवाद का अपने राजनीतिक फायदे के लिए इस्तेमाल किया है।


अनेक आंदोलनों, प्रदर्शनों, हिंसा और मौत के बाद 1990 में जाकर जल विवाद कानून 1956 के तहत एक ट्रिब्यूनल गठित किया गया। इस ट्रिब्यूनल के पास सिविल कोर्ट के अधिकार हैं और इसने 2007 में अपना फैसला दिया था। लेकिन इसके बाद दोनों ही राज्य एक-दूसरे के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट पहुंच गए। तमिलनाडु की शिकायत थी कि उसके आवंटन को घटाया जा रहा है और उसे तय मात्रा से भी कम पानी दिया गया, वहीं कर्नाटक की दलील थी कि उसे अपने राज्य के सिंचित क्षेत्र के विस्तार का अधिकार है, और उसके पास अपनी ही जरूरतों को पूरा करने के लिए पानी नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु को पानी जारी करने का आदेश दिया था और तब शुरुआती आनाकानी के बाद आंशिक रूप से उसने पानी छोड़ा था।


पिछले हफ्ते सुनाए अपने अंतिम फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु के कोटे में 14.5 टीएमसी फीट की कटौती के अलावा कमोबेश ट्रिब्यूनल के पूरे निर्णय को मान लिया है। इन 14.5 टीएमसी फीट में से 4.5 टीएमसी फीट पानी बेंगलुरु शहर की पेयजल जरूरतों के लिए आवंटित किया गया है। तमिलनाडु के नेताओं ने फैसले पर अपनी नाखुशी जाहिर की है, वहीं वहां के किसानों ने यह कहते हुए इसका स्वागत किया है कि हालांकि उनका कोटा कुछ कम कर दिया गया है, फिर भी वे इसलिए खुश हैं कि उन्हें आवंटित जल का 50 से 60 फीसदी ही अब तक मिलता रहा है। उन्हें इस बात से भी सुकून पहुंचा है कि कर्नाटक के लिए अब मनमाने तरीके से कावेरी पर बांध बनाना आसान नहीं होगा और तमिलनाडु को विश्वास में लिए बगैर कृषि क्षेत्र को विस्तार देने में भी उसे दिक्कत होगी।


तमिलनाडु की सारी आशाएं अब कावेरी मैनेजमेंट बोर्ड के गठन पर टिकी हैं, हालांकि कर्नाटक इसका विरोध कर रहा है। कर्नाटक में जल्द ही विधानसभा चुनाव होने वाले हैं। ऐसे में, विरोध के स्वर आने वाले दिनों में गहराएंगे ही। तमिलनाडु अपनी शिकायतों के साथ शीर्ष अदालत में पुनर्विचार याचिका शायद ही दायर करे, क्योंकि अदालत कह चुकी है कि उसका फैसला आखिरी है। अब सारी निगाहें केंद्र सरकार पर टिक गई हैं कि कर्नाटक की चुनावी अहमियत को देखते हुए वह कैसे इस मामले से निपटता है? कर्नाटक दक्षिण का आखिरी बड़ा सूबा है, जहां कांग्रेस हुकूमत में है। ऐसे में, गुजरात और राजस्थान में मिले चुनावी झटकों के बाद अपनी प्रमुखता फिर से स्थापित करने के लिए जरूरी है कि प्रधानमंत्री मोदी कर्नाटक में कांग्रेस को परास्त करें। (ये लेखक के अपने विचार हैं)