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एक साल का जश्न, सौ दिन का खटराग - हरजिंदर

सत्ता में किसी राजनेता का पहला साल हनीमून का दौर माना जाता है। उम्मीदों ने आसमान से उतरना भले ही शुरू कर दिया हो, लेकिन पहले 365 दिन में वे औंधे मुंह गिर जाएं, ऐसा अक्सर नहीं होता है। योजनाओं, नीतियों व फैसलों के नतीजे आने शुरू नहीं होते, इसलिए आलोचकों के पास कहने को ज्यादा कुछ होता नहीं है। विपक्षी दलों के पास भले ही ढेर सारी आपत्तियां हों, पर वे सालगिरह के जश्न में बज रहे बैंड-बाजे की आवाज में या दब जाती हैं या नजरंदाज कर दी जाती हैं। यही इंदिरा गांधी के साथ हुआ था, यही राजीव गांधी के साथ हुआ और यही नरेंद्र मोदी के साथ हो रहा है। और तो और, मनमोहन सिंह के शासन की पहली सालगिरह भी कुछ ऐसे ही माहौल में मनी थी, भले ही तोरणद्वार उनकी बजाय किसी और के लिए सजाए गए हों।

इस तरह की पहली सालगिरह प्रधानमंत्रियों की ही नहीं, मुख्यमंत्रियों की भी मनाई जाती है। इसका अपवाद बस अरविंद केजरीवाल ही हैं। वे जश्न के नहीं, असंतोष की राजनीति के नायक हैं। अभी नरेंद्र मोदी सरकार के एक साल पूरे होने पर ढोल-मजीरे बजने भी शुरू नहीं हुए थे कि अरविंद केजरीवाल ने अपने असंतोष राग को मंद सप्तक से शुरू करके तार सप्तक पर पहुंचना शुरू कर दिया। वह अपनी सौ दिन की सरकार के सिरदर्द लेकर नरेंद्र मोदी के 365 दिन पर ग्रहण लगाने निकल पड़े हैं।
कम से कम पहले सौ दिन या एक साल में सरकारें अपने काम से नहीं जानी जातीं, वे इस बात से जानी जाती हैं कि उस काम का प्रचार और इश्तिहार कैसा रहा। यह बात नरेंद्र मोदी और अरविंद केजरीवाल, दोनों जानते हैं, और दोनों यही कर भी रहे हैं। लेकिन अरविंद केजरीवाल की समस्या थोड़ी अलग किस्म की है। वह जिस दिल्ली के मुख्यमंत्री हैं, वह पूर्ण राज्य नहीं है।

बिजली का बिल आधा करना और मुफ्त पानी देने जैसे जो काम वह कर सकते थे, उन्हें वह 47 दिन के अपने पिछले कार्यकाल में ही कर चुके हैं। इसके आगे उनके पास करने के लिए बहुत कुछ नहीं है। कानून व्यवस्था उनके हाथ में है नहीं और भ्रष्टाचार पर लगाम लगाने के लिए जनता को स्टिंग ऑपरेशन के लिए प्रोत्साहित करने का जो एडवेंचर उन्होंने शुरू किया था, उसकी हवा केंद्र सरकार ने पिछले दिनों निकाल ही दी थी। अब हाईकोर्ट का फैसला उनके पक्ष में आ गया है। केजरीवाल की समस्या यह है कि उनके पास करने को जितना कुछ है, वह उससे ज्यादा करते हुए दिखना चाहते हैं। इसलिए दिल्ली बनाम केंद्र सरकार का जो हंगामा हमें आजकल दिखाई दे रहा है, वह अभी लंबा चलने वाला है।

जब ऐसा टकराव करना ही है, तो उसके बहाने खोजे जाएंगे। दिल्ली बनाम केंद्र सरकार का ताजा विवाद जहां से खड़ा हुआ, वह कोई मुद्दा था ही नहीं। कम से कम इतना बड़ा मुद्दा तो नहीं ही था। दिल्ली के मुख्य सचिव चंद रोज की छुट्टी पर जा रहे थे और उन चंद रोज के लिए एक कार्यकारी मुख्य सचिव का चुनाव होना था। बेशक लोकतंत्र की भावना यही कहती है कि भले ही यह काम केंद्र सरकार को करना हो, लेकिन उसके लिए जनता की चुनी हुई सरकार की राय का सम्मान होना चाहिए। हालांकि यह भी सच है कि अगर चंद रोज के लिए दिल्ली सरकार को पसंद न आने वाला कोई शख्स कार्यकारी मुख्य सचिव हो भी जाता, तो इससे कोई आफत नहीं आने वाली थी। लेकिन इसने अरविंद केजरीवाल को मौका दे दिया और उन्होंने इसे एक बड़ा मुद्दा बना दिया। वह क्षुद्र के बहाने विशाल पर उंगली रख देना चाहते थे और इसमें कामयाब भी रहे।

बेशक उन्हें कामयाब होने का मौका केंद्र सरकार ने ही दिया। खासकर गृह मंत्रालय की हाल की अधिसूचना ने यही संकेत दिया है कि केंद्र सरकार दिल्ली सरकार पर अंकुश बनाए रखना चाहती है। साथ ही, यह भी कि दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने का जो वादा भारतीय जनता पार्टी ने अपने घोषणापत्र में किया था, वह महज एक जुमला था। अब जरा यह भी देख लें कि इस विवाद से पहले दिल्ली में क्या स्थिति थी? जनता के जिस उत्साह और उबाल ने आम आदमी पार्टी को दिल्ली में भारी बहुमत दिया, वह गरमी बढ़ते ही ठंडा पड़ने लग गया था। ऐसा लगने लगा था कि आंदोलन में गरजने वाले नेता मंत्री बने, तो फाइलों में ही उलझकर रह गए। सरकार बनते ही पार्टी के अंतर्विरोध सतह पर आ गए थे और सत्ता के हनीमून से पहले ही कई लोगों के दरवाजे पर तलाक के नोटिस चस्पां हो गए।

फिर आरोप आया कि दिल्ली सरकार में एक ऐसा मंत्री भी है, जिसके पास डिग्री ही फर्जी है। केजरीवाल ने जंतर-मंतर की अपनी राजनीति फिर से शुरू करने की कोशिश की, तो वहां एक किसान की आत्महत्या ने उनकी उम्मीदों पर ऐसा पानी फेरा कि अगले ही दिन वह माफी मांगने पर मजबूर हो गए। इस बीच कुमार विश्वास जैसे पार्टी नेता गलत कारणों से सुर्खियों में आते-जाते रहे। इन्हीं बुरी खबरों के बीच मीडिया के पब्लिक ट्रॉयल की बात करके केजरीवाल ने अपने दुश्मन बढ़ा लिए। लोग मानने लग गए कि अगर इसी तरह चलता रहा, तो आम आदमी पार्टी न सिर्फ अपनी चमक खो बैठेगी, बल्कि जनता पार्टी की तरह का स्थानीय संस्करण बनकर रह जाएगी। यही वह वक्त था, जब केंद्र सरकार और दिल्ली के उप-राज्यपाल ने मिलकर उसे एक ऐसा मुद्दा दे दिया, जो केजरीवाल की राजनीतिक शैली के ज्यादा अनुकूल बैठता है।

अरविंद केजरीवाल और नरेंद्र मोदी में यही मौलिक अंतर है। नरेंद्र मोदी जब विपक्षी नेताओं पर हमले करते हैं, तो लगता है कि जैसे वह अपना गुणगान कर रहे हैं। कई बार लगता है कि उनके लिए अपना गुणगान और विपक्ष पर हमला, दोनों एक ही चीज है। यही वह देश में करते हैं और यही विदेश में करते हैं। दूसरी तरफ, अरविंद केजरीवाल जब अपनी उपलब्धियां गिना रहे होते हैं, तो लगता है कि जैसे वह अपने जख्म खोलकर दिखा रहे हों। पीडि़त होने का भाव उनकी राजनीतिक शैली है, जिसका वह बहुत अच्छा इस्तेमाल करते हैं। ऐसे में, केंद्र सरकार के लिए समझदारी यही हो सकती थी कि वह अरविंद केजरीवाल को अपने दबावों तले शहीद होने का कोई मौका न दे और उन्हें मुख्यमंत्री की तरह व्यवहार करने को मजबूर करे। एक बार फिर खुद को प्रताडि़त नेता के रूप में पेश करने का मौका पा लेना अगर अरविंद केजरीवाल के सौ दिन की सबसे बड़ी उपलब्धि है, तो उन्हें यह मौका देना नरेंद्र मोदी सरकार के 365 दिनों की सबसे बड़ी नाकामी है।