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एचआईवी के खिलाफ एक गांव की जंग- अन्नु आनंद

कोल्हापुर का नाम कोल्हापुरी जूतियों के लिए जाना जाता है. व्यापारी जगत में यह चीनी की मिलों के लिए भी मशहूर है. फिल्मों में रुचि रखने वाले इसे पद्मिनी कोल्हापुरी के नाम से भी पहचानते हैं. लेकिन महाराष्ट्र के कोल्हापुर नाम का यह जिला अब जन-भागीदारी के अनूठे प्रयास के लिए समूचे देश में एक नयी मिसाल कायम कर रहा है. एचआइवी के खिलाफ जंग में विभिन्न समुदायों ने मिलकर यहां ऐसे प्रयासों की शुरुआत की है कि देश के अन्य उच्च एचआइवी दर वाले राज्यों में भी कोल्हापुर के मॉडल को अपनाया जा रहा है. साल 2007 में इस जिले को नाको (नेशनल एड्स कंट्रोल आर्गेनाइजेशन) ‘ए’ श्रेणी में रखा था जिसका मतलब था कि कोल्हापुर में एचआइवी पॉजिटिव लोगांे की गिनती जिले की कुल जनसंख्या के 1 प्रतिशत से भी अधिक है. इससे साफ था कि जिले का नंबर महाराष्ट्र के सबसे अधिक तीन एचआइवी ग्रस्त जिलों के बाद चौथे नंबर पर आता है. स्वास्थ्य विशेषज्ञों के मुताबिक इसका मुख्य कारण जिले में चीनी और पॉवरलूम उधोग है जिनके चलते कर्नाटक और महाराष्ट्र के अन्य हिस्सों से मौसमी और अस्थायी आवागमन बना रहता है. इसके अलावा कर्नाटक आंध्रप्रदेश से जुड़े नेशनल हाइवे से गुजरने वाले ट्रक डाइवरों के चलते इस इलाके में एचआइवी का खतरा हमेशा अधिक रहा है.

पिछले कुछ सालों में जिले के विभिन्न गांवों में ऐसे लोगों की संख्या बढ़ रही थी जो एचआइवी पॉजिटिव होने के कारण गुमनामी का जीवन जी रहे थे. एड्स से जुड़े भ्रम, अज्ञानता और कलंक के भय के चलते अधिकतर लोग पॉजिटिव होने की बात को छिपाते और टेस्ट कराने से कतराते. साल 2009 में इसी जिले के लोन्जे गांव में एक ऐसी घटना घटी जिसने एचआइवी के खिलाफ काम करने वाले सभी लोगों को चेताने का काम किया. दरअसल गांव में एक आंगनवाड़ी कार्यकर्ता को उस समय नौकरी से निकाल कर उसे गांव से बेदखल कर दिया जब उसके खून की जांच में एचआइवी पॉजिटिव के लक्षण पाए गए. उस कार्यकर्ता के साथ हुए अपमान और घृणा के चलते चारों तरफ निराशा फैल गयी. इस खबर से पॉजिटिव लोगों में विश्वास जगाने के मिशन को एक बड़ा धक्का लगा. इलाके के लोगों को अहसास हुआ कि सरकारी योजनाओं के माध्यम से परीक्षण कराना और एड्स व्यक्ति की इलाज में मदद करना ही समस्या का हल नहीं बल्किमुख्य समस्या एचआइवी को लेकर आम लोगों में बैठा डर और पॉजिटिव व्यक्ति के साथ उनका भेदभाव पूर्ण रवैया है. इस सोच को बदलने के लिए जरूरी था कि आम आदमी समस्या के खिलाफ एकजुट होकर खड़ा हो.

जिले के 30 हजार जनसंख्या वाले सबसे बड़े गांव कोडोली में जहां एचआइवी का प्रकोप अपेक्षाकृत अधिक था. लागों ने इस चुनौती का सामना किया. जनभागीदारी के कई अनूठे प्रयासों को एकसाथ शुरू कर गांव के हर व्यक्ति को एचआइवी की हकीकत का ऐसा पाठ पढ़ाया कि आज यहां के करीब हर बच्चे के लिए पॉजिटिव होना न तो कोई बड़ा हौवा है और न ही शर्म. यहां किसी भी एचआइवी से ग्रस्त व्यक्ति के साथ किसी प्रकार का भेदभाव किया जाता है. गांव का सामान्य व्यक्ति भी अब यहां टेस्ट कराने में हिचक महसूस नहीं करता.

ऐसा माहौल बनाने के लिए इस गांव के सभी प्रबुद्व व्यक्तियों ने सेंटर फॉर एडवोकेसी एण्ड रिसर्च संस्था की मदद से गांव के अलग अलग आयु वर्ग के समूहों को एचआइवी जागरूकता अभियान में शामिल करने की पहल की. इसके लिए सब से पहले गांव के कोल्हापुर स्थित मास्टर ऑफ सोशल वर्क में पढ़ने वाले छात्रों ने एक मंच बनाया इसमें इस गांव की कई युवा लड़कियों को भी शामिल किया गया. युवा मंच ने एड्स के कारणों, लक्षणों और इससे जुड़े भ्रमों को दूर करने के लिए गांव के हर हिस्से में नुक्कड़ नाटक किए. 

इन नाटकोंमें शामिल कुछ लड़कियां के मां-बाप गरीब अशिक्षित और खेती का काम कर अपना गुजारा करते हैं. उनके लिए अपनी बेटियों का सड़क पर यौन संबंधों पर खुलेआम चर्चा करना और कंडोम की बात करना गवारा नहीं था. लेकिन इन युवा लड़कियों ने अपने मां बाप को कई दिनों तक बातचीत के जरिए यह समझाया कि एचआइवी कोई छूत की बीमारी नहीं. युवा मंच से जुड़ी कृषक परिवार की सोनाली ने बताया, इसके लिए मां बाप को तैयार करना आसान नहीं था. लेकिन जब वे मान गए तो पहले हमने विभिन्न खेलों के माध्यम से गांववालों को एचआइवी की सही जानकारी दी. पॉजिटिव लोगों के संबंध में फैले भ्रमों को दूर करने के लिए लगातार डाक्टरों और विशेषज्ञों से उनके बीच संवाद बनाया फिर आमजन को टेस्ट कराने के लिए प्रेरित किया.

जब इन युवाओं के नाटकों से गांव में एचआइवी के प्रति जागरूकता का माहौल पैदा हुआ उसके बाद गांव की महिलाओं को इस प्रयास में शामिल करने की कवायद शुरू हुई. इसके लिए सेंटर की मदद से गांव में 500 महिलाओं के लिए एक प्रशिक्षण कार्यशाला का आयोजन किया गया. गांव के स्वास्थ्य में अहम भूमिका निभाने वाली 70 आंगनवाड़ी महिला कार्यकर्ताओं ने इस कार्यशाला में हिस्सा लिया. आंगनवाड़ी कार्यकर्ता ताई मतसागर का कहती हैं, हमारा गांव की महिलाओं के साथ नजदीकी रिश्ता है. हमने महिलाओं को मातृत्व स्वास्थ्य की जानकारी देने के साथ गर्भवती महिलाओं को एचआइवी का प्रशिक्षण कराने के लिए भी प्रेरित करना शुरू किया.

इसके लिए 10 महिलाओं का एक सखी मंच बनाया गया जो घर-घर जाकर जिन महिलाओं को टेस्ट कराने में हिचक होती उनके भ्रमों को दूर करता. मंच की सखी दिलशाद नजीर बताती है कि हमने कभी अपने घरों में भी यौन संबंधों के बारे मे बात नहीं की लेकिन हमने पहले अपने मन से इस ङिाझक को खत्म किया फिर दूसरी महिलाओं के मन से इसे खत्म करने की कोशिश की. सखी मंच ने जब महिलाओं को समझाया कि महिलाओं को एचआइवी का खतरा अधिक है और इसका असर गर्भवती महिला के बच्चे पर भी पड़ सकता है. एक घर में सखी मंच के जाने के बाद उस घर की महिला ने आंगनवाड़ी में आकर स्वीकार किया वह पॉजिटिव है और वह दवाई लेने के लिए सांगली जाती है जोकि उसके गांव से बहुत दूर है. बाद हमने उसे नजदीक के कोल्हापुर के केंद्र में रजिस्ट्रेशन कराने की हिदायत दी.  

गांव की सरपंच मनीषा गाधव की मदद से ग्रामसभा का आयोजन कर एचआइवी से जुड़े कलंक को खत्म करने के लिए एक प्रस्ताव पारित किया गया.  तमिलनाडु के एक गांव के बाद यह देश दूसरा गांव है जिसने ऐसा प्रस्ताव पारित किया है. 6 महिला वार्ड पंचों और 11 पुरुषों वाली इस पंचायत ने सभी ग्रामसभा सदस्यों को शपथ दिलायी कि वे एचआइवी से संबंधित जानकारी को हर व्यक्ति तक पहुंचायेंगे और किसी भी पॉजिटिव व्यक्ति के साथ किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करेंगे. असली परीक्षा प्रस्ताव पारित करने के बाद की थी. ग्रामसभा में मौजूद हर व्यक्ति को यह जिम्मेदारी सौंपी गयी कि वह इस बात का खास ध्यान रखे कि गांव का कोई भी व्यक्ति टेस्ट कराने या फिर किसी पॉजिटिव से उपेक्षा का बर्ताव न करे. इसके लिए जिला के पॉजिटिव नेटवर्क के सदस्यों को अभियान के साथ जोड़ा गया.

जिला के स्थानीय अधिकारियों के मुताबिक प्रस्ताव पारित होने के बाद टेस्ट कराने वाले लोगों की गिनती बढ़ने लगी. साल 2011 में टेस्ट कराने वालों की संख्या पूरे जिले में बढ़कर 2133 हो गई जबकि इससे पहले साल 2009-10 में यह गिनती 1251 ही थी. अब गांव में एड्स के खिलाफ ऐसा माहौल बना कि गांव के गणोश मंदिर ने भी जन-जागरण अभियान में हिस्सेदारी शुरू करू दी. एडवोकेसी सेंटर की अध्यक्ष अखिला शिवदास मानती है कि एचआइवी के प्रति जागरूकता फैलाने में और पाजिॅटिव लोगों के साथ समानता के बर्ताव में गांव ने पूरी तरह सफलता हासिल कर ली है. लेकिन अब गांव को एचआइवी मामलों की गिनती को कम कर उच्च खतरे वाली श्रेणी से बाहर  निकलने की तरफ भी ध्यान देना होगा.

(नई दुनिया से साभार)