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ऐसा विधेयक, जो 25 वर्षों से है विचाराधीन


संसद के मानसून सत्र में केंद्र सरकार द्वारा जिन 81 विधेयकों को पेश किया जाना प्रस्तावित है, उनमें एक विधेयक ऐसा भी है जो 1987 से ही विचाराधीन है। कानून बनने से पहले उसे संसद की सहमति का इंतजार है। विधेयकों का ढेर लगने से भारतीय संसद में किस तरह कामकाज चलता है, इसका अंदाजा लगाया जाना मुश्किल नहीं है।

भारतीय चिकित्सा परिषद से संबंधित है विधेयक

लगभग तीन दशकों से विचाराधीन यह विधेयक भारतीय चिकित्सा परिषद में परिवर्तन से संबंधित है। इस दौरान 10 सरकारें बदलीं और आठ लोकसभा चुनाव हो चुके हैं लेकिन यह विधेयक हर बार जस का तस पड़ा रह जाता है। पीआरएस विधेयक अनुसंधान से प्राप्त ब्‍योरे के अनुसार भारतीय चिकित्सा परिषद (संशोधन) विधेयक 26 अगस्त 1987 को राज्यसभा में पेश किया गया था। इसे संयुक्त समिति को भेज दिया गया, जिसने अपनी रिपार्ट 28 जुलाई 1989 को पेश की थी।

सिर्फ 12 प्रतिशत समय लोकसभा में विधेयकों पर खर्च

अन्य विधेयकों की तुलना में इस विधेयक का लंबित होना कहीं ज्यादा अर्थपूर्ण है। विधेयकों के लंबित रह जाने का मुख्य कारण है, कामकाज के समय में विरोध प्रदर्शन होना और उसके बाद कार्यवाही स्थगित हो जाना। उदाहरण के तौर पर, मार्च में हुए बजट सत्र का केवल 12 प्रतिशत समय लोकसभा में विधेयकों पर खर्च किया गया। राज्यसभा में इससे भी कम सिर्फ छह प्रतिशत समय विधेयकों पर दिया गया। बजट सत्र के एजेंडे में सरकार ने कुल 34 विधेयकों की घोषणा की थी लेकिन वित्तीय विधेयकों के अलावा सिर्फ पांच विधेयक पारित किए गए।

और भी हैं कई विधेयक लंबित

पारित विधेयकों में शामिल एक विधेयक में तो एक मामूली संशोधन (लिपकीय त्रुटि में सुधार) किया जाना था। विदेशी कैदियों के स्थानांतरण कानून से सम्बंधित इस विधेयक में सिर्फ ‘मार्शल लॉ’ की जगह ‘मिलिटरी लॉ’ लिखा जाना था। अन्य पारित विधेयकों में शामिल एक विधेयक स्टेट बैंक ऑफ इंदौर का भारतीय स्टेट बैंक के साथ विलय से संबंधित था। इसी तरह एक विधेयक दिल्ली में अनाधिकृत मकानों की सीलिंग पर स्थगन को आगे बढ़ाने से सम्बंधित था, तो दो और विधेयक उड़िया भाषा का नाम बदलकर ओडिया करने और उड़ीसा राज्य का नाम बदलकर ‘ओडिशा’ किए जाने से संबंधित थे।

बात जब महिलाओं की हो

विचाराधीन महत्वपूर्ण विधेयकों में एक विवादास्पद महिला आरक्षण विधेयक भी है जो संसद और राज्यों की विधानसभा में महिलाओं के लिए 33 फीसदी सीटें आरक्षित करने से संबधित है। यह विधेयक 2010 के मार्च में राज्यसभा में पारित हो चुका है लेकिन उत्तर भारत के क्षेत्रीय दलों के विरोध के कारण इसे अभी तक लोकसभा में पेश नहीं किया गया है।