Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 73
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Deprecated (16384): The ArrayAccess methods will be removed in 4.0.0.Use getParam(), getData() and getQuery() instead. - /home/brlfuser/public_html/src/Controller/ArtileDetailController.php, line: 74
 You can disable deprecation warnings by setting `Error.errorLevel` to `E_ALL & ~E_USER_DEPRECATED` in your config/app.php. [CORE/src/Core/functions.php, line 311]
Warning (512): Unable to emit headers. Headers sent in file=/home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php line=853 [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 48]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 148]
Warning (2): Cannot modify header information - headers already sent by (output started at /home/brlfuser/public_html/vendor/cakephp/cakephp/src/Error/Debugger.php:853) [CORE/src/Http/ResponseEmitter.php, line 181]
Notice (8): Undefined variable: urlPrefix [APP/Template/Layout/printlayout.ctp, line 8]news-clippings/ऐसे-तो-नहीं-बचेंगी-बेटियां-रीता-सिंह-12429.html"/> न्यूज क्लिपिंग्स् | ऐसे तो नहीं बचेंगी बेटियां-- रीता सिंह | Im4change.org
Resource centre on India's rural distress
 
 

ऐसे तो नहीं बचेंगी बेटियां-- रीता सिंह

नीति आयोग का यह खुलासा चिंतित करने वाला है कि देश के इक्कीस बड़े राज्यों में से सत्रह राज्यों में जन्म के समय लिंगानुपात में गिरावट दर्ज हुई है। नीति आयोग ने अपनी ‘हेल्दी स्टेट्स एंड प्रोग्रेसिव इंडिया' रिपोर्ट में कहा है कि सबसे चिंताजनक हालत गुजरात की है जहां सबसे ज्यादा तिरपन अंकों की गिरावट दर्ज हुई है। जबकि हरियाणा में पैंतीस अंक, राजस्थान में बारह अंक, उत्तराखंड में सत्ताईस अंक, महाराष्ट्र में अठारह अंक, हिमाचल प्रदेश में चौदह अंक, छत्तीसगढ़ में बारह अंक और कर्नाटक में ग्यारह अंक की गिरावट दर्ज की गई है। नीति आयोग के मुताबिक उत्तर प्रदेश, पंजाब और बिहार में लिंगानुपात की स्थिति सुधरी है। लेकिन इस दिशा में और भी ठोस पहल की जरूरत है। नीति आयोग ने इस स्थिति के लिए भ्रूण की पहचान और फिर कन्या भ्रूण की हत्या को जिम्मेदार माना है और इस सिलसिले को रोकने के लिए मानवीय दृष्टिकोण अपनाने पर बल दिया है।
 

देश में कड़े कानून के बाद भी चिकित्सालयों में भू्रण परीक्षण का खेल जारी है। एक रिपोर्ट के मुताबिक हर साल एक वर्ष की उम्र से पहले ही दस लाख बहत्तर हजार बच्चियों की मौत हो जाती है। सिर्फ इसलिए कि वे लड़कियों की शक्ल में गर्भ में पलती हैं। यह लैंगिक भेदभाव वाली आपराधिक और विकृत सोच हमारे समाज के मानसिक दिवालियापन को रेखांकित करने के लिए काफी है। विडंबना यह कि अगर बच्चियां किसी तरह धरती पर आ भी जाती हैं तब भी उनके साथ लैंगिक भेदभाव खत्म नहीं होता है। संयुक्त राष्ट्र की ‘द वर्ल्ड्स वीमेन' की रिपोर्ट से खुलासा हुआ था कि भारत में पांच साल से कम उम्र की लड़कियों की मौत इसी उम्र के लड़कों की तुलना में ज्यादा होती है। इसमें कहा गया था कि पांच साल से कम उम्र में मौत के मामले में भारत का लिंगानुपात सबसे कम है। यह अनुपात तिरानवे का है। यानी अगर पांच साल की उम्र से पहले तिरानवे लड़कों की मौत होती है तो इसी आयु में सौ लड़कियों की मौत होती है। रिपोर्ट के मुताबिक भारत में लड़कियों की अधिक मौत की वजह परिवार में बेटों को ज्यादा और लड़कियों को कम तरजीह देना मुख्य कारण है। रिपोर्ट के मुताबिक माता-पिता लड़कियों की तुलना में लड़कों की देखभाल और उनके स्वास्थ्य का ज्यादा खयाल रखते हैं।

 


अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आइएमएफ) ने भारतीय रोजगार बाजार में लैंगिक असमानता को अन्य देशों की तुलना में सबसे अधिक बताते हुए सलाह दी है कि अगर श्रम बल में महिलाओं की संख्या को पुरुषों की संख्या के समान किया जाए तो भारत का जीडीपी सत्ताईस प्रतिशत तक बढ़ सकता है। आइएमएफ के मुताबिक भारत में लैंगिक अंतर पचास प्रतिशत है। जबकि आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (ओईसीडी) के देशों में औसत अंतर बारह प्रतिशत है। ग्लोबल जेंडर गैप रिपोर्ट पर नजर दौड़ाएं तो ब्राजील, बांग्लादेश और वियतनाम जैसे देश लैंगिक समानता के मामले में हमसे कहीं ज्यादा आगे हैं। महत्त्वपूर्ण बात यह है कि लड़कियों की घटती संख्या का दुष्परिणाम अब देश-समाज के सामने आने लगा है। अब विवाह के लिए लड़कों को लड़कियां नहीं मिल रही हैं और इसका सबसे चिंताजनक सामाजिक पहलू यह है कि विवाह के लिए लड़कियों का अपहरण होने लगा है। राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट से पता चलता है कि वर्ष 2016 में देश में कुल छियासठ हजार दो सौ पच्चीस लड़कियों का अपहरण हुआ, जिनमें से आधी से ज्यादा यानी तैंतीस हजार आठ सौ पचपन लड़कियों का अपहरण सिर्फ शादी के लिए हुआ। रिपोर्ट में कहा गया है कि नवजात से लेकर छह साल की उम्र तक की एक सौ उनतालीस बच्चियों का और छह साल से बारह वर्ष की छह सौ छियासठ बच्चियों का अपहरण शादी के लिए किया गया।

 

 


एनसीआरबी की रिपोर्ट के मुताबिक अपहरण के कारणों में सैंतीस फीसद अपहरण शादी के लिए हुए हैं। बेटियों की संख्या बढ़ाने के लिए आवश्यक है कि समाज के सभी क्षेत्रों में लैंगिक असमानता को दूर किया जाए। जब तक समाज के सभी क्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी को मजबूत नहीं किया जाएगा तब तक उनकी संख्या बढ़ने वाली नहीं है। आंकड़ों पर नजर डालें तो देश में लैंगिक असमानता चरम पर है। सभी महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में फैसले लेने वाले उच्च पदों पर महिलाओं की भागीदारी पुरुषों के मुकाबले बहुत ही कम है। केंद्रीय सांख्यिकीय एवं कार्यक्रम क्रियान्वयन मंत्रालय की रिपोर्ट पर गौर करें तो केंद्रीय मंत्रिपरिषद में महिलाओं की हिस्सेदारी महज सत्रह प्रतिशत है। लोकसभा के कुल सदस्यों में केवल ग्यारह प्रतिशत सदस्य महिलाएं हैं। अगर राज्य विधानसभाओं और विधान परिषदों में महिलाओं की हिस्सेदारी पर गौर करें तो यह क्रमश: नौ और छह प्रतिशत के आसपास है। चूंकि पंचायतों में महिलाओं के लिए आरक्षण का प्रावधान है इसलिए वहां उनकी मौजूदगी सैंतालीस प्रतिशत है। अगर संसद में तैंतीस प्रतिशत आरक्षण का प्रावधान सुनिश्चित कर दिया जाए तो यहां भी उनका प्रतिनिधित्व सम्मानजनक हो सकता है। लेकिन ऐसा हो पाएगा इसमें संदेह है। संसद में महिला आरक्षण को लेकर एक अरसे से बहस चल जारी है, लेकिन राजनीतिक दलों के बीच महिला आरक्षण को लेकर मतभेद जस का तस बना हुआ है।

 

 

न्यायपालिका में भी महिलाओं का प्रतिनिधित्व पुरुषों के मुकाबले काफी कम है। देश भर के सभी उच्च न्यायालयों में महिला न्यायाधीशों की संख्या महज ग्यारह प्रतिशत है। देश की सर्वोच्च अदालत में तो महिला न्यायाधीशों का प्रतिनिधित्व चार प्रतिशत से भी कम है। अगर अखिल भारतीय सेवाओं में महिलाओं के प्रतिनिधित्व पर नजर दौड़ाएं तो यहां भी स्थिति संतोषजनक नहीं है। आइएएस में महिलाओं का प्रतिनिधित्व महज चौदह प्रतिशत है। इसी तरह बैंकों में महिलाओं का प्रतिनिधित्व केवल बीस प्रतिशत है। बैंकों में लिपिक स्तर पर उनतीस तथा अधिकारी स्तर पर बारह प्रतिशत है। रोजगार के मामले में भी स्थिति संतोषजनक नहीं है। यही वजह है कि महिलाओं में बेरोजगारी की दर लगातार बढ़ती जा रही है। आंकड़ों पर गौर फरमाएं तो 2003 में देश भर के रोजगार कार्यालयों में पंजीकृत महिलाओं की संख्या छब्बीस प्रतिशत थी जो आज बढ़कर पैंतीस प्रतिशत हो गई है। गौर करें तो सरकारी नौकरी से लेकर निजी व्यवसाय तक पर पुरुषों का वर्चस्व है। लैंगिक असमानता की मूल जड़ परिवार में ही है। भारतीय समाज पूरी तरह से दकियानूसी विचारों से उबरा नहीं है। पत्नी को आज भी नौकरी के मामले में पति से इजाजत लेनी पड़ती है। दूसरी ओर दहेज प्रथा और बलात्कार जैसी सामाजिक बुराइयां भी बेटियों की घटती संख्या के लिए जिम्मेदार हैं। यह किसी से छिपा नहीं है कि कड़े कानून के बावजूद दहेज जैसी बुराई से निजात नहीं मिल पाई है। बल्कि समाज में दहेज लेने-देने वालों की तादाद बढ़ती ही जा रही है। सच तो यह है कि नौकरी के हिसाब से लड़कों के रेट तय हैं। भला ऐसे में बेटियों का विवाह कैसे होगा? यह समझना होगा कि जब तक दहेज लेने-देने वालों के खिलाफ सख्त कार्रवाई नहीं होगी तब तक कन्या भू्रण हत्या पर लगाम नहीं लगने वाली। यह सही है कि जन्म से पहले अनचाही कन्या संतान से छुटकारा पाने के लिए इन परीक्षणों का उपयोग करने की घटनाओं के कारण बच्चे के लिंग निर्धारण में इस्तेमाल किए जा सकने वाले सभी चिकित्सीय तरीकों पर भारत में प्रतिबंध लगा दिया गया है। लेकिन कानून का सही ढंग से क्रियान्वयन न होने से अपेक्षित परिणाम नहीं मिल रहे हैं। उचित होगा कि बेटियों की घटती संख्या को लेकर समाज व सरकार संवेदनशील हो और उनकी तादाद बढ़ाने के लिए मानवीय पहल करे।