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ऐसे तो नहीं मिलेगी किसान को राहत - डॉ भरत झुनझुनवाला

वित्तमंत्री अरुण जेटली ने किसानों के लिए नई बीमा योजना लागू करने की घोषणा की है। प्राकृतिक आपदाओं से हुई खेती की क्षति के कारण किसान कर्ज अदा नहीं कर पाते हैं और खुदकुशी को मजबूर होते हैं। योजना है कि बीमा के प्रीमियम पर सरकार सबसिडी देगी। देश के लगभग दो-तिहाई किसानों के पास ढाई एकड़ से कम जमीन है। उत्तराखंड के मेरे गांव में इतनी जमीन पर लगभग 50 क्विंटल गेहूं पैदा होता है, जिसका बाजार भाव लगभग 75,000 रुपए बैठता है। इस रकम पर दो प्रतिशत की दर से प्रीमियम 1500 रुपए बैठता है। इस प्रीमियम पर सरकार सबसिडी देगी। मेरा अनुमान है कि सरकार 20-30 प्रतिशत सब्सिडी दे सकती है। अगर 50 फीसदी भी सबसिडी दें तो किसान को एक फसल में लगभग 750 रुपए सबसिडी मिलेगी। दरअसल बीमा का मुख्य खर्च प्रीमियम नहीं है। बीमा का मुख्य खर्च किसान की टूटी हुई दिहाड़ी और भाग-दौड़ का खर्च होता है।

मैंने अपनी कार का कंप्रेहेंसिव बीमा कराया था। एक छोटा एक्सीडेंट हुआ। मैंने 14,000 का क्लेम किया तो मिले 7,000 रुपए। पहले कार को वर्कशॉप ले जाकर एस्टीमेट बनाना पड़ा। सर्वे होने में एक हफ्ता लगा। जब गाड़ी बन गई तो पुन: सर्वेयर का इंतजार करना पड़ा। इस पूरी प्रक्रिया में 20 दिन लग गए। मैं सीधे वर्कशॉप से रिपेयर कराता तो पांच दिन में गाड़ी मिल जाती। पंद्रह दिन तक मुझे टैक्सी का अतिरिक्त उपयोग करना पड़ा जिसका 10,000 रुपए खर्च आया। सर्वे के बाद तीन माह बीत गए तो सर्वेयर साहब को याद दिलाया, तब उन्होंने कहा कि रपट भेज देता हूं। शायद मेरे से कुछ कमीशन चाहते रहे होंगे। तीन माह और बीत गए तो कंपनी से पूछा। उन्होंने मुझे क्लेम ऑफिस भेज दिया। क्लेम ऑफिस ने कहा कि हम तो पैसा आपके खाते में ट्रांसफर कर चुके हैं। मैंने अर्ज किया कि खाते में नहीं आया है। तीन-चार बार फोन खड़खड़ाने के बाद जब मीडिया तथा कोर्ट जाने की धमकी दी तब पैसा मिला।

सर्वेयरों का भ्रष्टाचार जगजाहिर है। किसी समय मैं गत्ता बनाने का कारखाना चलाता था। फैक्ट्री में आग लगी। सर्वेयर साहब को खुश नहीं किया तो क्लेम चौथाई रह गया। अगली बार उन्हें बढ़ी रकम का दस प्रतिशत दिया तो पंद्रह हजार के क्लेम के मिले 51 हजार। जरा सोचिए कि किसान इस जंजाल से कैसे निपटेगा? आधी फसल खराब हुई। मिलने थे 37,500 रुपए। सर्वेयर साहब पास करेंगे 15,000 रुपए। इसे प्राप्त करने के लिए दस बार बीमा कंपनी जाना पड़े तो दिहाड़ी और खर्च लेकर 10,000 रुपए निकल जाएंगे। क्लेम मिलेगा एक साल बाद। कभी खसरा खतौनी मांगेंगे तो कभी पटवारी का सर्टिफिकेट। इन योजनाओं के माध्यम से बीमा कंपनियों के कर्मियों को कमीशन खाने के विशेष मौके मुहैया कराए जाते हैं। यही कारण है कि बीते 30 वर्षों में किसानों के लिए बीमा की पांच योजनाएं बनाई गईं और सभी असफल रहीं। मोदी की इस स्कीम के सफल होने में संदेह है।

इस जंजाल को बिना बुने भी किसान को राहत पहुंचाई जा सकती है। बीमा के प्रीमियम पर जो सबसिडी दी जाएगी, उसका भार अंतत: सरकार के बजट पर और उसके बाद मुख्यत: शहरी करदाता पर पड़ेगा। यानी शहरी उपभोक्ता से रकम वसूल कर ग्रामीण किसान को दी जाएगी। इस रकम को बीमा कंपनी, एजेंट, सर्वेयर, मैनेजर इत्यादि के माध्यम से घुमा-फिराकर किसान को देने के स्थान पर उसे सीधे क्यों नहीं दे दी जाए? किसान को आर्थिक मदद पहुंचाने के स्थान पर उसका शोषण करने की नीति लागू की जा रही है।

वाजपेयी और मनमोहन सिंह की सरकारों की तर्ज पर मोदी सरकार की नीति है कि कृषि उत्पादों के दाम न्यून रखे जाएं जिससे महंगाई ना बढ़े। डाउन टू अर्थ पत्रिका के अनुसार इस वर्ष मौसम विभाग द्वारा कम वर्षा होने का अनुमान जारी करने के बाद रिजर्व बैंक ने सरकार से आग्रह किया था कि खाद्यान्न् के समर्थन मूल्य में अधिक वृद्धि ना की जाए। वर्षा की कमी के कारण किसान पहले ही संकट में था। ऐसे में समर्थन मूल्य बढ़ाकर उसे कुछ राहत देनी चाहिए थी, लेकिन संपूर्ण सरकारी तंत्र के केंद्र में शहरी मध्यम वर्ग रहता है। सरकारी कर्मचारी ऐसी नीतियां बनाते हैं, जिससे उनके निजी स्वार्थ सिद्ध हों। अत: सरकार द्वारा कृषि उत्पाद के मूल्य न्यून रख किसान को त्रास दिया जाता है।

मोदी सरकार की मंशा है कि किसान आत्महत्या ना करें। फसल का नुकसान हो जाए तो बीमा से क्लेम मिल जाए और किसान की गाड़ी चलती रहे। लेकिन यह भूला जा रहा है कि सरकार ने ही किसान को कर्ज के दलदल में धकेला है। नेशनल सैंपल सर्वे के अनुसार 2003 से 2013 के दस वर्षों में कृषि में उत्पादन में 13 प्रतिशत की वृद्धि हुई, जबकि किसानों द्वारा लिए गए कर्ज में 24 प्रतिशत की वृद्धि हुई। अर्थ हुआ कि पूर्व में किसान बिना कर्ज लिए उत्पादन कर रहे थे। अब कर्ज लेकर उत्पादन कर रहे हैं। वास्तव में कृषि के नाम पर लिया जाने वाला अधिकतर कर्ज खपत को पोषित करता है। कुछ वर्ष पूर्व मैं राजस्थान के किसी एनजीओ का मूल्यांकन कर रहा था। एनजीओ ने बताया कि उन्होंने स्वयंसहायता समूह बनाया, बैंक से लिंक किया और ग्रामवासियों को कई लाख रुपए का कर्ज दिलाया। किसानों ने भैंस खरीदी, दूध बेचा और समृद्ध हुए। मैंने पूछा कि पांच वर्ष पहले गांव में कितनी भैंसें थीं और आज कितनी हैं? पता चला कि संख्या पूर्ववत है। यानी कर्ज का उपयोग भैंस खरीदने के लिए नहीं, बल्कि घरेलू खपत के लिए किया गया।

पूर्व में किसान 10,000 रुपए कमाता था तो घर में 10,000 आते थे। अब 10,000 कमाता है तो 1,000 रुपए ब्याज अदा करता है और घर में आते हैं 9,000 रु। कर्ज के दलदल में किसान को झोंकने के बाद मोदी सरकार अब उसे बीमा कंपनियों के जंगल में उलझा देना चाहती है। वास्तव में किसान की समस्या ना कर्ज की है, ना बीमा की। उसकी एकमात्र समस्या है कि सरकारी कर्मचारी अपने निजी स्वार्थ को सिद्ध करने के लिए कृषि उत्पादों के मूल्य न्यून बनाए रखते हैं। इस संपूर्ण फर्जीवाड़े को समाप्त करके मोदी को कृषि उत्पादों के दाम बढ़ाने चाहिए।

-लेखक आर्थिक मामलों के जानकार हैं।