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ऑनरेरी डिग्री की गरिमा-- डा. गौहर रजा

 

 

किसी शख्स को उसके उत्कृष्ट काम या समाज में बेहतरीन योगदान देने के लिए ऑनरेरी डिग्री (मानद उपाधि) दी जाती है. यह एक तरह से अकादमिक सम्मान है. मानद उपाधि देने की शुरुआत पंद्रहवीं शताब्दी में ऑक्सफोर्ड यूनवर्सिटी से हुई.

 

उस जमाने में यह उपाधि या तो डोनर्स को दी जाती थी, या जिनकाे यह समझा जाता था कि यूनिवर्सिटी के बाहर उन्होंने उत्कृष्ट काम किया है, उनको दी जाती थी. जैसे-जैसे दौर आगे बढ़ता रहा, इस उपाधि का मान भी खूब बढ़ता रहा, क्योंकि बहुत ही कम लोगों को यह उपाधि दी जाती थी. 

 

यानी जब तक कोई शख्स बहुत बड़ा काम नहीं किया होता था, तब तक नहीं ही दी जाती थी. लेकिन, आज ऐसी हालत नहीं है. अब तो इसमें भी भ्रष्टाचार घुस गया है और ऐसे-ऐसे लोगों को ये उपाधियां दी जाने लगी हैं, जिनको देना गैरजरूरी होता है.

 


दो तरह की मानद डिग्री होती है. एक वह, जो उन लोगों को दी जाती है, जिनके पास पहले से डिग्री या कोई बड़ा सम्मान मौजूद हो. मसलन, कोई नोबेल विजेता है, अगर उसे कोई विश्वविद्यालय मानद डिग्री देता है, तो यह उस विश्वविद्यालय के लिए अपने सम्मान की बात है.

 


यानी किसी अन्य जगह से शिक्षित और पहले से ही सम्मानित व्यक्ति को मानद डिग्री देकर कोई विवि अपना सम्मान बढ़ाता है, जिससे वहां पढ़नेवाले बच्चों को प्रेरणा मिले और उनमें बेहतर करने का जज्बा कायम हो सके. लेकिन, किसी भी मानद डिग्री, डॉक्टरेट या डी-लिट को अकादमिक तौर पर पढ़ाई करके हासिल की गयी डिग्री, डॉक्टरेट, डी-लिट या मास्टर्स डिग्री के बराबर नहीं मानी जाती है.

 

ऑनरेरी डिग्री पानेवाले लोग अपने नॉम के आगे 'डॉक्टर' नहीं लगा सकते. या अगर लगाते हैं, तो उसके आगे 'ऑनरेरी' जरूर लिखते हैं. दूसरी तरह की मानद डिग्री उन लोगों के लिए होती है, जिन्होंने समाज के लिए बहुत बड़े काम किये हों और क्वाॅलिफिकेशन के तौर पर वे डॉक्टरेट न हों. 

 

पहले मानद उपाधि देने की प्रक्रिया बहुत गुप्त होती थी. नाम का चयन करने के लिए कमिटी बनती थी. और तब तक किसी का नाम बाहर नहीं आता था, जब तक कि किसी नाम पर कमिटी की मुहर नहीं लग जाती थी. 

 

लेकिन, जिस तरह से समाज में भ्रष्टाचार ने अपनी जड़े जमा रखी हैं, उसी तरह से विश्वविद्यालयों में भी हुआ है. विश्वविद्यालयों में भ्रष्टाचार के चलते ही यह खबर हमारे सामने है कि अगर आपका सत्ता के साथ तालमेल है, तो आपको मानद उपाधि मिल सकती है. आरटीआई से इस बात खुलासा हो चुका है.

समाज में सिर्फ पैसे के घपले-घोटाले का ही भ्रष्टाचार नहीं होता. कानूनी, प्रशासनिक, सांस्थानिक, राजनीतिक आदि भी होता है. इस ऐतबार से विश्वविद्यालयों में भ्रष्टाचार एक तरह का अकादमिक भ्रष्टाचार है.

ज्यादातर कुलपति इस होड़ में लगे हुए हैं कि किस तरह से अपनी गद्दी को बचाये रखें. क्योंकि, कब उनके ऊपर गाज गिरेगी और किस तरह से गिरेगी, यह नहीं मालूम. कई कुलपति तो भ्रष्टाचार के लपेटे में भी आ चुके हैं. ऐसी हालत में कुलपति और अकादमिक लोग भी राजनीति का हिस्सा बनने की कोशिश में लग जाते हैं, बजाय इसके कि वे भारतीय संविधान को बचाते.

ऑनरेरी डिग्री देने का उद्देश्य यह है कि हम किसी ऐसे शख्स को सम्मानित करें, जिसने समाज में शानदार योगदान दिया हो. किसी विश्वविद्यालय द्वारा उस व्यक्ति को सम्मान देने से उस विश्वविद्यालय का ही सम्मान बढ़ता है.

मसलन, अगर नोबेल विजेता प्रो अमर्त्य सेन को अगर कोई विश्वविद्यालय मानद उपाधि देता है, तो इसका मतलब यह नहीं कि अमर्त्य सेन को उसकी जरूरत है, बल्कि विश्वविद्यालय को जरूरत है कि वह किसी को सम्मान देगा, तो उसका भी सम्मान बढ़ेगा. क्योंकि आगे आनेवाली पीढ़ियों के लिए अमर्त्य सेन या मानद उपाधि पानेवाला व्यक्ति एक प्रतीक की तरह है. लेकिन, हमारे यहां भ्रष्टाचार की वजह से प्रतीक वाला मामला ही सब खत्म हो गया. सब उलट-पुलट गया. अब तो संस्थान में रहते हुए उच्च पदासीनों को मानद उपाधियां दी जाने लगी हैं, जो एक गैरजरूरी बात है.

इस तरह के अकादमिक भ्रष्टाचार से सबसे बड़ा नुकसान यह है कि सत्ता-शक्ति के साथ चिपके होने के चलते हम जिनको प्रतीक बना रहे हैं, उनकी वजह से विश्वविद्यालय के बच्चों में ऐसी मानद उपाधियों का कोई मूल्य ही नहीं रह जायेगा.

क्योंकि जिस तरह का हम प्रतीक खड़ा करेंगे, उससे समाज में यही बात सिद्ध होगी कि एक व्यक्ति जो इस पोजीशन में है कि वह विश्वविद्यालय के कान उमेठ सकता है, उसे ही हम डिग्री देकर खुश रखना चाहते हैं, तो इससे बच्चे क्या सीखेंगे.

मेरे ख्याल में मानद उपाधियां किसी नेता या राजनीतिक गठजोड़ के चलते किसी ऐसे व्यक्ति को नहीं दी जानी चाहिए. क्योंकि यह बिना राजनीतिक शक्ति का इस्तेमाल संभव नहीं है. अगर सत्ता-शक्ति में रहते हुए किसी व्यक्ति को डिग्री दी जाती है, तो मैं समझता हूं कि यह विश्वविद्यालय के लिए असम्मान की बात है.

हमें चाहिए कि सामाजिक कार्यकर्ताओं, कला-संगीत-संस्कृति के क्षेत्र में उत्कृष्ट योगदान देनेवाले लोगों या फिर दूसरे किसी भी क्षेत्र में ही मानद डिग्री दी जानी चाहिए, जिससे न सिर्फ देश में, बल्कि विदेशों में भी हमारा सिर फख्र से ऊंचा उठे. तभी मानद उपाधियों की गरिमा बरकरार रहेगी.

(वसीम अकरम से बातचीत पर आधारित)