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ओबीसी आयोग का गठन--- सुभाष गताडे

दिल्ली उच्च न्यायालय की पूर्व मुख्य न्यायाधीश जी रोहिणी का नाम पिछले दिनों अचानक सुर्खियों में आया, जब यह अधिसूचना जारी हुई कि राष्ट्रपति ने उन्हें अन्य पिछड़ी जातियों (ओबीसी) के वर्गीकरण की पड़ताल के लिए बने आयोग का मुखिया बनाया गया है.


आयोग में उनके अलावा तीन और सदस्य होंगे तथा सामाजिक न्याय मंत्रालय के एक संयुक्त सचिव इसके सचिव होंगे. इस आयोग को बारह सप्ताह के अंदर यानि कमीशन द्वारा पदभार ग्रहण करने के लगभग तीन माह के अंदर अपनी रिपोर्ट देनी होगी.


आयोग की संदर्भ शर्तें है- अन्य पिछड़ी जातियों की व्यापक श्रेणी में शामिल जाति एवं समुदायों के बीच आरक्षण के लाभ के असमानतापूर्ण बंटवारे की पड़ताल करना; इनमें उपवर्गीकरण के लिए वैज्ञानिक नजरिये से प्रणाली, पैमाने, नियम तय करना और उन जातियों या उपजातियों को चिह्नित कर उन्हें उपवर्गीकरणों में शामिल करना. आयोग की रिपोर्ट मिलने पर केंद्र सरकार अपनी नौकरियों में और शिक्षा संस्थानों में प्रवेश को लेकर अन्य पिछड़ी जातियों के बीच समानतापूर्ण वितरण के लिए तरीके एवं साधन तय करेगी.


लंबे समय से ओबीसी के वर्गीकरण का मसला सुर्खियों में रहा है. यह अकारण नहीं कि विगत कुछ सालों से क्रीमी लेयर की बात भी होती रही है.


अारोप भी लगते रहे हैं कि कथित संपन्न जातियां आरक्षणप्रदत्त अवसरों का बड़ा हिस्सा गड़प कर जाती हैं. इस प्रष्ठभूमि में हम इस घोषणा को देखें, तो फिर सरकार की यह घोषणा निश्चित ही स्वागतयोग्य लगती है. भारत सरकार की तरफ से जारी प्रेस विज्ञप्ति कहती है कि बीते 2 अक्तूबर को गांधी जयंती पर की गयी यह घोषणा सरकार के समावेशी रुख का परिचायक है.


बहरहाल, कुछ प्रश्न अवश्य खड़े होते हैं. पहला प्रश्न यही उठता है कि दो साल पहले, जब नेशनल कमीशन आॅन बैकवर्ड क्लासेस ने- जिसका गठन संसद में पारित अधिनियम- 1993 के माध्यम से हुआ था- इसी संबंध में अपनी रिपोर्ट सरकार को सौंपी थी, अन्य पिछड़ी जातियों का किस तरह वर्गीकरण किया जा सकता है, यह भी बताया था, तो फिर इस नये आयोग की जरूरत क्यों आ पड़ी?


याद रहे, फरवरी 2014 में तत्कालीन सरकार ने उसके पास अर्जी दी थी तथा इस पत्र के आधार पर आयोग ने जगह-जगह जनसुनवाइयों का आयोजन कर, राज्य सरकारों से सलाह-मशविरा करके 2 मार्च, 2015 को बाकायदा वर्तमान सरकार को रिपोर्ट दी थी. इसमें अन्य पिछड़ी जातियों को तीन उपश्रेणियों में बांटा गया था: अत्यधिक पिछड़े तबके, अधिक पिछड़े तबके और पिछड़े तबके.


अत्यधिक पिछड़ों में ऐसी पिछड़ी जातियों को शामिल किया गया था- जैसे आदिम जातियां, खानाबदोश जातियां- जिनका पारंपरिक पेशा सांप और सूअर पालना, चटाई बनाना आदि है. अधिक पिछड़ी जातियों में वे जाति/समुदाय शामिल थे, जो अपने पारंपरिक पेशे पर टिके थे- जैसे बुनाई, भेड़-बकरी पालना और वहीं पिछड़ी जातियों में ऐसे लोग शामिल थे, जिनके पास जमीन आदि है. आयोग ने सरकार से सिफारिश की थी कि वह वर्गीकरण का काम इंडियन काउंसिल फाॅर सोशल साइंसेस को सौंपा जाये, कि वह वर्गीकरण के पैमाने तय करे.


दूसरी महत्वपूर्ण बात जातियों की जनगणना को लेकर उठती है, जिसे अंजाम दिया गया है, मगर उनके आंकड़े सार्वजनिक नहीं किये जा रहे हैं. ऐसे आंकड़ों की अनुपस्थिति में आखिर यह किस तरह तय हो सकेगा कि किन जातियों को किस तरह लाभ मिला है या नहीं मिला है? कहने का तात्पर्य है कि क्या आयोग के सदस्यों की मनोगत इच्छाओं के आधार पर या सरकार के विशिष्ट रुख के आधार पर सदस्य ऐसे आंकड़ों को तय करेंगे?


इससे यह आरोप भी लग सकते हैं कि यह पूरी घोषणा ‘पोलिटिकली मोटिवेटेड' है अर्थात् ऐसी पिछड़ी जातियां, जो वर्तमान सत्ताधारी पक्ष से प्रतिकूल रुख रखती आयी हैं, उन्हें छांटने का यह तरीका ढंूढा गया है या पिछड़ी जातियों में से अत्यधिक पिछड़ी जातियों में अपने आधार को मजबूत करने के लिए यह किया जा रहा है.


तीसरा महत्वपूर्ण पहलू, सत्ताधारी पार्टी के अन्य पिछड़ी जातियों के प्रति आरक्षण को लेकर अनुभव से जो उत्पन्न होता है, वह किसी भी मामले में उत्साहवर्द्धक नहीं कहा जा सकता.


याद करें, पिछले ही साल एक संसदीय कमेटी ने- जिसकी अगुआई भाजपा के एक सांसद राजेन गोहाइ कर रहे थे- मानव संसाधन मंत्रालय की इस बात के लिए सख्त आलोचना की थी कि किस तरह सरकार द्वारा दिशा-निर्देश जारी होने के बावजूद वह केंद्रीय शिक्षा संस्थानों में अन्य पिछड़ी जातियों के विद्यार्थियों को प्रवेश में अवसर प्रदान करने में असफल रहा है.


अन्य पिछड़ी जातियों के प्रत्याशियों को विश्वविद्यालय फैकल्टी में अवसर प्रदान करने को लेकर उसका कहना था कि वहां हम पाते हैं कि ‘भारत सरकार के निर्देशों का खुल्लम-खुल्ला उल्लंघन किया गया.' ऐसे में निश्चित रूप से कुछ अच्छाइयों के साथ यह विषय एक गहरे विश्लेषण की मांग करता है.