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कोरोना संकट: जिन्दगी के साथ भी, जिन्दगी के बाद भी

-न्यूजलॉन्ड्री,

शनिवार सुबह लगभग 11 बजे 40 साल के रजा मोहम्मद अपने दो लड़कों के साथ बटला हाउस कब्रिस्तान में एक कब्र को अंतिम रूप देने में जुटे हुए थे. कुछ ही देर बाद जाकिर नगर से एक जनाजा वहां पहुंचने वाला था, जिनकी मौत हार्ट अटैक से हो गई थी. कोरोना और लॉकडाउन के हालात में भी उन तीनों के पास कोई सुरक्षा उपकरण मौजूद नहीं था, हां! धूप से बचाव के लिए एक गोल छतरी जरूर उन्होंने कब्र के ऊपर लगा रखी थी.

ये कब्रिस्तान जामिया मिल्लिया इस्लामिया मेट्रो स्टेशन से बिलकुल सटा हुआ है, जिसके एक तरफ जामिया यूनिवर्सिटी और दूसरी तरफ जाकिर नगर और बटला हाउस का इलाका पड़ता है. सड़क के दूसरी तरफ एक कब्रिस्तान और भी है, लेकिन वह फिलहाल बंद पड़ा है. इसे कुछ लोगों को दफनाने के बाद से ही बंद कर दिया गया था. साथ ही बराबर में एक वीआईपी कब्रिस्तान भी है जिसमें जामिया यूनिवर्सिटी से ताल्लुक रखने वाले लोगों को दफनाया जाता है.

रजा मोहम्मद ने हमें बताया, “ये हमारा पुश्तैनी काम है. मैं ये काम लगभग 25 साल से कर रहा हूं. इससे पहले मेरे वालिद साहब यही काम करते थे और अब मेरे ये दोनों लड़के यही काम कर रहे हैं. प्रत्येक कब्र खोदने का हमें 1000 रुपए मेहनताना मिलता है. बाकि सरकार या वक्फ ने हमें कोई सुरक्षा उपकरण उपलब्ध नहीं कराया है.”

रजा आगे बताते हैं, “लॉकडाउन के बाद से जनाजे आने कम हो गए हैं. पहले जहां औसतन 6-7 जनाजे रोज आते थे, अब एक या दो ही आते हैं. कभी-कभी तो एक भी नहीं आता. जनाजे के साथ औसतन 10-12 लोग ही आते हैं. हर शव को हम सोशल डिस्टेंसिंग के मुताबिक ही दफ़न कराते हैं. सिर्फ दो लोगों को ही कब्र में मुर्दे को लिटाने की इजाजत है, बाकि सब एक-दुसरे से अलग दूरी बनाकर खड़े रहते हैं.”

कोरोना संक्रमित मौतों को दफनाने पर रजा कहते हैं, “कोरोना से होने वाली मौतों को यहां नहीं दफनाते हैं. अभी तक हमने ऐसी कोई डेड बॉडी को यहां नहीं दफनाया है. कमेटी ने हमें उसके लिए साफ़ मना कर रखा है. हम तो कमेटी के दफ्तर, विधायक अमान्तुल्लाह खान के यहां से पर्ची लाते हैं और उसी के मुताबिक यहां दफन करते हैं. रजिस्टर में सब कुछ (मौत का कारण आदि) पहले ही लिखवा लिया जाता है.”