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कोरोना संकट में मज़दूरों को ग़ुलामों में बदलता पूंजीवाद

-न्यूजक्लिक, 

जब 7 मई की रात को यह लेख लिखा जाने लगा कि किस तरह वर्तमान में कोरोना संकट के दौर में पूँजीवाद का घिनौना चेहरा बेनकाब हो रहा है और प्रवासी मज़दूर बंधुआ मज़दूरों में बदल रहें है तो लिखते लिखते घर लौटते हुए प्रवासी मजूरों की मृत्यु के आंकड़े खोजने के चक्कर में यह अधूरा रह गया। फिर सोचा कि लेख अगले दिन पूरा होगा परन्तु जब सुबह हुई तो जालना से मध्य प्रदेश के लिए पैदल ही निकले प्रवासी मज़दूरों की औरंगाबाद के पास मालगाड़ी से कट कर मृत्यु की ख़बर और पटरी पर बिखरी पड़ी सूखी रोटियों की तस्वीर ने दिल दहला दिया। बार बार सोचने पर मज़बूर होना पड़ा क्या इसके बाद भी इस लेख की ज़रूरत है। क्या अभी भी देश में किसी को बताने की ज़रूरत है कि प्रवासी मज़दूरों का महत्व केवल तब तक है जब तक वह मुनाफा कमाने का साधन है। जब काम बंद तो उनकी जान की परवाह किसे।

कार्ल मार्क्स ने हमें बताया था कि पूंजीवाद में मज़दूर को उसके श्रम का उतना दाम तो मिलता है जिससे वह जीवित रह पाए, श्रम कर पाए और श्रम करने के लिए नए मज़दूर पैदा कर पाए। वर्तमान में बेरोज़गारी इतनी ज्यादा बढ़ गई है कि पूंजी को श्रम की निरंतरता बनाये रखने के लिए मज़दूरों को जीवित रहने लायक सुविधा देने की भी आवश्यकता नहीं। कुछ मर जायेंगे तो उनकी जगह लेने के लिए दूसरे आ जायेंगे। परन्तु जब उनकी वजह से मुनाफे पर आंच आये तो उनको बंधुआ मज़दूर में भी तब्दील कर लिया जायेगा।

किसी भी व्यवस्था का सही आंकलन संकट के समय ही होता है। विशेष तौर पर राजनीतिक सत्ता के वर्गीय चरित्र की पहचान का तो सही समय यही होता है। ऐसा ही हुआ पूरे विश्व के साथ साथ भारत में भी।

वैसे तो पिछले 6 वर्षों से भारत में ‘रामराज्य’ है और ऐसा दिखाया जा रहा था जैसे सरकार और खुद सरकार के मुखिया गरीब जनता के सबसे बड़े हितेषी है। ख़ैर कोरोना के दौर में लॉकडाउन के चलते पहले से ही डूबती अर्थ व्यवस्था पाताल लोक की तरफ बढ़ने लगी तो गरीब और अमीर के हितों में भी सीधा टकराव होने लगा। सरकार की प्राथमिकताओं और नीतियों का पक्ष सबके सामने आने लगा। 

केंद्र सरकार के बिना किसी तैयारी के लॉकडाउन ने देश की अधिकतर मेहनतकश जनता विशेष तौर पर खेत मज़दूर, ग्रामीण मज़दूर, शहरी असंगठित क्षेत्र के मज़दूरों और प्रवासी मज़दूरों को सड़क पर ला दिया। सरकार ने सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत राशन उपलब्ध करवाने की बात कहकर अपना पीछा छुड़ा लिया। हालांकि सरकार के अपने आंकड़ों के अनुसार देश के लगभग 20 करोड़ लोगों को इसका लाभ नहीं मिल पा रहा है। लेकिन प्रवासी मज़दूर जो अपने घरों से दूर शहरों में फंस गए वह तो भूखे मरने के कगार पर आ गए।

उनके लिए न खाने की व्यवस्था और न घर वापसी की।शहर का मध्यम वर्ग जब टेलीविज़न पर रामायण और महाभारत देख कर धर्म और अधर्म पर चर्चा करते हुए टाइम पास कर रहा होता, उसी समय इन प्रवासी मज़दूरों का धर्म कर्म केवल भूख बन गया जो आस लगाए होते कि कोई सामाजिक संस्था आएगी और उनको खाना मिलेगा।

फेसबुक पर जहाँ हम अपने घरों में दूर दूर बैठ कर शारीरिक दूरी बनाने रखने के निर्देशों की पालना की शेखी बघार रहे होते, ठीक उसी समय यह मज़दूर छोटे छोटे कमरों में ठुसे पड़े होते या खाने की लम्बी लाइन में खड़े होतें जिनके पास आपस में दूरी बनाये रखने का कोई विकल्प ही नहीं है ।

हम तो अपने परिजनों के साथ घर बैठ यह जता रहे होते कि हम कोरोना के खिलाफ जंग में योगदान दे रहें है, बाहर न घूम कर, दोस्तो से न मिल कर, शॉपिंग न करके। क्योंकि हमें ऐसा ही बताया जा रहा है।  यह प्रवासी मज़दूर तो इंसान नहीं केवल समस्या है। कभी पैदल ही निकल पड़ते है हज़ारों किलोमीटर चल कर घर पहुँचने के लिए तो कभी सरकार की घोषणा सुन कर आ जाते है बस या ट्रेन की खोज में।  परन्तु अभी तक सरकारों के लिए इनका घर पहुंचना या न पहुँचाना गैरजरूरी ही था। असल में सरकार को यह पता ही नहीं है कि देश में कितने प्रवासी मज़दूर लॉकडाउन में फंसे है।

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