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कठिन चुनौतियां और नीति आयोग- वाई के अलघ

अरविंद पनगढ़िया को उपाध्यक्ष मनोनीत किए जाने के साथ ही नीति आयोग (नेशनल इंस्टीट्यूशन फॉर ट्रांसफॉर्मिग इंडिया) को लेकर जारी कई अटकलों को विराम मिल गया है, लेकिन इस आयोग को लेकर कई उत्सुकताएं अब भी लोगों के दिमाग में बनी हुई हैं। दरअसल, केंद्र में आई नई सरकार ने 24 अगस्त को 20 विशेषज्ञों को बुलाकर उनसे यह सवाल पूछा था कि मौजूदा योजना आयोग की जगह हमें क्या करना चाहिए? हममें से कई लोगों ने यह सुझाया था कि 1991 में मनमोहन सिंह ने अर्थव्यवस्था के उदारीकरण की जो प्रक्रिया शुरू की थी, उसमें योजना आयोग का सुधार एक सतत प्रक्रिया का हिस्सा है। इसलिए जो भी नया आयोग बने, उसके एजेंडे में ऊर्जा, जल और जनसंख्या जैसे दीर्घकालिक महत्व के मुद्दों को प्रमुखता मिलनी चाहिए। चीन में इसी तरह हुआ, जब स्टेट प्लानिंग कमीशन को हटाकर उसकी जगह नेशनल इकोनॉमिक ऐंड सोशल डेवलपमेंट कमीशन का गठन किया गया। योजना सचिव ने इन तर्को और सुझावों को नोट किया।

हमें लगा कि राष्ट्रीय विकास परिषद की बैठक में इस गौर किया जाएगा। योजना क्या है और इसका स्वरूप कैसा हो, इस बारे में सोचना-समझना पंडित जवाहरलाल नेहरू बेहद पसंद करते थे। यहां तक कि आजादी के आंदोलन के दौरान भी उन्हें यह अच्छा लगता था। और इसलिए उन्होंने कहा, ‘योजना संबंधी कार्यक्रमों के बारे में हम जितना सोचते हैं.. इस काम के प्रति मेरा लगाव उतना ही बढ़ता जाता है.. लेकिन इसके साथ ही अनिश्चितता और दुविधा भी घेरने लगती है..।' अब योजना आयोग की जगह नीति आयोग का गठन हो चुका है। इस आयोग का काम योजनाओं से जुड़ी दीर्घकालिक नीतियां बनाने का होगा। इन योजनाओं के लिए संसाधनों का पता लगाने का जिम्मा भी आयोग के पास होगा। लेकिन क्या नीति आयोग संसाधनों के बंटवारे का भी काम करेगा? अगर इसका जवाब नहीं में है, तो नीति आयोग का काम अकादमिक होकर रह जाएगा। बेशक अकादमियों में अच्छे लोग होते हैं, जो निष्ठा से काम करते हैं। लेकिन यह भी साफ है कि अकादमिक कार्य विश्वविद्यालयों व शोध संस्थानों में ही सबसे अच्छे तरीके से होता है, न कि सरकारी निकायों में।

सरकारी तंत्र में शोध समस्याओं को टालने का एक जरिया बन जाता है। हमें ऐसी व्यवस्था नहीं चाहिए, जिसमें योजना कोई और बनाए और उस पर कदम कोई और उठाए। बहरहाल, नीति आयोग को योजना बनाते समय कुछ खास बातों का बिंदुओं रखना होगा। पहला, ‘डेमोग्रैफिक डिविडेंड।' योजना निर्माण में वास्तविक चुनौती यही है कि कैसे हम अपनी जनसंख्या का अधिकतम लाभ उठाएं। देश की आबादी करीब सवा अरब है, जो यकीनन बहुत बड़ी है। दुनिया की सबसे बड़ी युवा आबादी हमारे पास है। 15 से 40 साल के बीच हमारी सबसे बड़ी कार्य-शक्ति है। इसका एक मतलब यह भी है कि चीन, अमेरिका या जापान की तुलना में हमारे पास अधिक मेहनतकश और कम रिटायर्ड लोग हैं। अब इस कामकाजी आबादी का देश के विकास में अधिकतम इस्तेमाल करना हर सरकार का दायित्व है। लेकिन फिलहाल तो रोजगार की कमी है और कौशल विकास का भी भारी अभाव है।

अब तक जिस ‘डेमोग्रैफिक डिविडेंड' की बात हो रही है, उसके आर्थिक परिणाम असरदायी नहीं दिख रहे है। साफ है, अगर आपके पास अच्छे पोषण, अच्छी स्वास्थ्य सेवा या शिक्षा न हो, तो आबादी संबंधी नतीजे दु:स्वप्न साबित हो सकते हैं। अगर इस लिहाज से काम हो, योजनाएं बनें, तो आने वाले समय में बड़े बदलाव देखे जा सकते हैं। हमारे पास एक ‘बोनस' है, जो दिल को सुकून पहुंचाता है। यह बोनस है कि अगर हमारे पास अच्छी नीतियां हों, तो पहले की तुलना में महिलाएं हमारी विकास दर बढ़ाने में बड़ी सहभागी बन सकती हैं। पितृ-सत्तात्मक समाज में यह स्थिति पहले नहीं थी, लेकिन अब लड़कियां स्कूल-कॉलेज जा रही हैं और अपनी जिंदगी का अच्छा-खासा समय शिक्षा पर दे रही हैं।

ऐसे में, वे हमारी कार्य-शक्ति को बढ़ा रही हैं। इसे ‘स्वीटेस्ट डिविडेंड' के तौर पर देखा जा सकता है। दूसरा बिंदु है ऊर्जा। हमारे पास कोयला का अकूत भंडार है, जिसका खनन और ढुलाई की जा सकती है। लेकिन इसकी राह में कई समस्याएं हैं। हमारे फेफड़े इसकी इजाजत नहीं देते। इनके दोहन के दुष्परिणामों को देखते हुए कानूनी बाधाएं खड़ी हो सकती हैं और गैर-सरकारी संगठन भी हल्ला बोल देंगे, क्योंकि ये बदतर गुणवत्ता के कोयला हैं। कार्बन-उत्सजर्न और प्रदूषण जनित बीमारियों के विकराल रूप के कारण दुनिया भी हमें रोकेगी। तेल के मामले में भी हमें काफी हद तक दूसरे देशों और अंतरराष्ट्रीय बाजार पर निर्भर रहना पड़ता है। यह ऊर्जा का खर्चीला माध्यम भी है। ऐसे में, हमारे सामने सीमित विकल्प हैं: विकास दर को घटाना, अपनी जीवन शैली को बदलना, या फिर ऊर्जा उपभोग के लिए अलग रूपों को चुनना।

तीसरा विकल्प ही स्वीकार्य हो सकता है। ऊर्जा क्षेत्र में भी धीमा सुधार और वितरण की समस्या है। सुरेश प्रभु ने कैबिनेट में जाने से पहले अपनी एक रिपोर्ट में इस बात पर जोर दिया था कि ऊर्जा क्षेत्र में प्रसार और वितरण के उस तंत्र में सुधार की आवश्यकता है, जो दो दशक पहले बनाए गए थे। प्रभु वाजपेयी सरकार में ऊर्जा मंत्री रह चुके हैं। अब हमें यह जानना होगा कि क्यों ये सुधार विफल हुए और कैसे इनकी भरपायी होगी? बिजली वितरण के क्षेत्र में सूचना-प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल एक रास्ता है और इसके कई अच्छे उदाहरण हैं। लेकिन और भी बहुत कुछ किए जाने की जरूरत है।

तीसरा बिंदु जमीन और पानी है। अगर विकास दर ऊंची हो, तो मांग और आपूर्ति के बीच का अंतर काफी बड़ा हो जाएगा। यही नहीं, कृषि के लिए कम पानी उपलब्ध होगा, शहरीकरण बढ़ रहा होगा और अनियंत्रित औद्योगीकरण भी हो सकता है। ऐसे में, जलापूर्ति के क्षेत्र में बड़ी चुनौतियां आएंगी। खासकर आंध्र प्रदेश, गुजरात, हरियाणा, पंजाब, तमिलनाडु और महाराष्ट्र जैसे राज्यों में पानी की किल्लत होने की भारी आशंका है। जहां तक जमीन का सवाल है, तो देश में कृषि योग्य जमीन का विस्तार भी रुक गया है और जमीन की मांग बस शहरों में रह गई है, गांवों में नहीं। एक तरह से ऊपयोगी जमीनों का अभाव-सा है और ऊपर से सारा मामला जमीन को लेने का उठता रहता है।

बेकार जमीन हैं, लेकिन यह नहीं कहा जाता कि वहां जाकर उद्योग-धंधे स्थापित किए जाएं। दूसरी तरफ, बाजार जमीन का भाव तय करता है, किसान नहीं। इसलिए भूमि-नीति भी एक महत्वपूर्ण मुद्दा है। साफ है, नीति आयोग को इन बुनियादी चीजों पर सबसे पहले काम करना होगा। और ये काम आसान नहीं हैं।
(ये लेखक के अपने विचार हैं) - See more at: