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कब चमकेगी आदिवासियों की किस्मत!

नई दिल्ली [भारत डोगरा]। भारतीय संविधान ने आदिवासी समुदायों की विशेष आवश्यकताओं के प्रति संवेदनशीलता का परिचय दिया और संविधान की इस भावना के अनुकूल हमारे देश में आदिवासी हितों की रक्षा के अनेक कानून भी बनाए गए, लेकिन इसके बावजूद जमीनी स्तर की वास्तविकता यह रही कि आदिवासियों को कई तरह का अन्याय सहना पड़ा। बड़े पैमाने पर वे जमीन से वंचित हुए व उनकी वन-आधारित आजीविका भी अधिकाश स्थानों पर तेजी से कम होती गई। मजदूरी के स्तर पर भी प्राय: वे न्यायसंगत मजदूरी की दर से वंचित रहे।

इन सब कारणों से आदिवासियों में बड़े पैमाने पर असंतोष पैदा हुआ। भारतीय लोकतंत्र के सामने आज एक बड़ी चुनौती यह है कि समय पर इस अन्याय को दूर करने के मजबूत कदम उठाए जाएं और आदिवासियों के अधिकारों व आजीविका की रक्षा की जाए।

इस संदर्भ में उन संस्थाओं और संगठनों के कार्य का महत्व बढ़ जाता है, जो निष्ठा और निरंतरता से आदिवासी समुदायों के भूमि अधिकारों व आजीविका की रक्षा के लिए वर्षो से कार्य करते रहे हैं। वैसे तो ऐसे प्रयासों को सदा प्रोत्साहन मिलना चाहिए, लेकिन मौजूदा दौर में विभिन्न तरह से प्रोत्साहन व सहायता और भी जरूरी हो गए हैं। इन संस्थाओं व संगठनों के अनुभव से आदिवासियों को न्याय देने के प्रयास को काफी मदद मिल सकती है।

इस दृष्टि से एक स्वैच्छिक संस्था जिसके आदिवासियों के बीच कार्य और अनुभवों को काफी महत्वपूर्ण माना जा रहा है, वह है 'दिशा'। दिशा आदिवासी समुदायों के हितों के लिए कई स्तरों पर पिछले 25 वर्षो से निरंतरता से कार्य करती रही है। आदिवासी समुदायों के साथ उनसे मिलती-जुलती समस्याओं से जुझ रहे अन्य समुदायों को भी दिशा साथ लेकर चली है। दिशा का कार्यक्षेत्र मुख्य रूप से गुजरात की आदिवासी पट्टी है।

इसकी कुछ उपलब्धिया निम्न हैं-

वर्ष 2007 के वन अधिकार कानून बनने से पहले ही दिशा द्वारा आदिवासी-वनवासी की व्यापक एकता के बल पर लगभग 32,000 परिवारों के लिए भूमि-अधिकार प्राप्त करने में सफलता मिली थी। वर्ष 2007 का कानून बनने के बाद अब लगभग दो लाख परिवारों के लिए इसी तरह के भूमि अधिकार प्राप्त करने के व्यापक प्रयास अभी जारी हैं।

दिशा के प्रयासों से नरेगा मजदूरों का पहला संगठन बनाने में बहुत सहायता मिली और यह संगठन बनने से नरेगा के क्त्रियान्वयन में अनियमितताओं को कम करने में व मजदूरों को न्याय दिलवाने में महत्वपूर्ण प्रगति हुई।

असंगठित मजदूरों को संगठित करने के प्रयासों में लघु वन उपज एकत्र करने वालों, वन मजदूरों, कृषि मजदूरों व निर्माण मजदूरों की हकदारी में काफी सफलताएं मिलीं।

इसके अतिरिक्त साप्रदायिक हिंसा से प्रभावित परिवारों के राहत व पुनर्वास में भी ग्रामीण क्षेत्रों में दिशा ने महत्वपूर्ण कार्य किया। दिशा के अनुसंधान कार्य ने निर्धन वर्ग की सही स्थिति को सामने लाने में व उनके लिए बेहतर संसाधन जुटाने में सहायता दी।

दिशा के कार्य व उसकी सफलता का एक मुख्य आधार यह रहा कि उसने ऐसे अनेक संगठनों और संस्थाओं के फलने-फूलने की अनुकूल स्थितिया उत्पन्न कीं, जो आदिवासियों-वनवासियों, किसानों-मजदूरों के अभाव और उनसे हो रहे अन्याय को दूर करने के लिए कई स्तरों पर वर्षो से प्रयासरत रहे हैं। इनमें अनेक ट्रेड यूनियन हैं।

दिशा ने स्वैच्छिक क्षेत्र की एक नई राह दिखाई, जिसमें कमजोर वर्ग के लिए न्याय प्राप्त करने का एक मुख्य आधार उपेक्षित व असंगठित मेहनतकशों के श्रमिक संगठनों को बताया जाता है। इस राह पर चलते हुए दिशा ने असंगठित क्षेत्र के लिए ट्रेड यूनियन कार्य में भी महत्वपूर्ण योगदान दिया।

इस राह को प्रशस्त करने में सबसे अधिक योगदान दिशा के संस्थापक मधुसूदन मिस्त्री का रहा। हालाकि वे दो बार संसद-सदस्य निर्वाचित हो चुके हैं, फिर भी कई लोग उन्हें सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में अधिक पहचानते हैं। दिशा की स्थापना से पहले वे स्वैच्छिक संस्था क्षेत्र के साथ ट्रेड यूनियन क्षेत्रा का भी अच्छा अनुभव प्राप्त कर चुके थे। दिशा के आरंभिक दिनों में मैंने उन्हें मोटर साईकिल पर दूर-दूर के गावों में बहुत दौड़-धूप करते हुए देखा। ऐसी ही एक यात्रा के दौरान उनपर हमला भी हुआ। मधुसूदन मिस्त्री ने कई शोषक तत्वों से टक्कर ली। अपने मुख्य कार्य के साथ वे कई नई चुनौतियो को भी स्वीकार करने से पीछे नहीं हटते थे।

एक बार गैस पाइपलाइन से किसानों की जमीन बर्बाद होने और उन्हें उचित मुआवजा न मिलने के कई उदाहरण उन्होंने देखे। इन गावों के किसानों से बातचीत करने के लिए उन्होंने मुझे बुलाया। मेरी रिपोर्ट छपी और मामला अदालत तक पंहुचा। अंत में इन किसानों को बेहतर मुआवजा मिल सका। मिस्त्री व दिशा की यात्रा में इस तरह के कई अवसर आए जब अपेक्षाकृत छोटे संघर्षो में धरने, प्रदर्शन, रैली, लिखापढ़ी व कानूनी कार्यवाही के मिल-जुले प्रयासों से जरूरतमंद लोगों को छोटी बड़ी राहत मिलती रही। पर इससे कहीं अधिक सराहनीय लंबे चलने वाले संघर्षो और अभियानों के दौरान नजर आई दृढ़ इच्छाशक्ति है, जिसके बल पर वे धैर्य से, धीरे-धीरे आगे बढ़ते हुए कठिन लक्ष्य के नजदीक पहुंच सके।

भूमि संघर्ष के दौरान यही देखा गया कि अनेक वर्ष प्रयासरत रहने के बाद कुछ सफलता मिलती है, पर प्रयास फिर भी जारी रखने पड़ते हैं। दिशा और उसके सहयोगी एकलव्य संगठन को पता था कि इस मुद्दे पर प्रयास अनेक वर्ष तक जारी रखने होंगे। उन्होंने कई उतार-चढ़ावों के बीच और कई बार बहुत प्रतिकूल स्थितियों में भी अपने प्रयासों की निरंतरता को दो दशक से भी अधिक समय तक बनाए रखा।

दिशा की स्थापना वर्ष 1985 में हुई थी और तब से अब तक के 25 वर्षो में इसने कमजोर व उपेक्षित समुदायों विशेषकर आदिवासियों की हकदारी के लिए विभिन्न लोकतात्रिक तौर-तरीकों के समन्वय का अच्छा उदाहरण सामने रखा है।

ग्रामीण क्षेत्रों में सीधा कार्य करने के साथ दिशा ने बजट विश्लेषण जैसे कार्यो से कमजोर वर्ग विशेषकर आदिवासियों से हो रहे अन्याय की ओर ध्यान दिलाया और इससे उनके लिए बेहतर संसाधन उपलब्ध करवाने का दबाव सरकार पर बना।

हालाकि दिशा का अधिकाश कार्य आदिवासी समुदाय से जुड़ा रहा, लेकिन गुजरात जब अति गंभीर साप्रदायिक हिंसा के दौर से गुजरा तो दिशा ने आगे बढ़कर अनेक गावों में बहुत बुरी तरह पीड़ित मुसलमान परिवारों को राहत पहुंचाने और उनके पुनर्वास का महत्वपूर्ण कार्य किया। युवाओं के आगे आने से दिशा के कार्य को नई ऊर्जा भी मिलेगी।

जिस तरह दिशा ने हाल के समय में पर्यावरण संरक्षण कायरें से अधिक जुड़ना आरंभ किया है [जैसे जल-संरक्षण व वृक्षारोपण के कार्यो से अधिक जुड़ने के प्रयास] उससे भी नई पीढ़ी के लिए बेहतर भविष्य बनाने में मदद मिलेगी। पर्यावरण संरक्षण व युवा संगठन के कार्य 'दिशा' के भविष्य की दिशा भी तय कर रहे हैं।