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कब बहुरेंगे हथकरघा के दिन-- मोनिका शर्मा

हथकरघा उद्योग को बढ़ावा देने वाली एक सार्थक पहल के तहत अब केरल में सरकारी स्कूलों के बच्चे हैंडलूम के स्कूल यूनिफार्म पहनेंगे। राज्य सरकार ने यह निर्णय हथकरघा उत्पादों की खपत बढ़ाने के लिए किया है। ध्यान देने वाली बात है कि इन दिनों हैंडलूम को लेकर फिर से चर्चा हो रही है। हाल ही में कपड़ामंत्री स्मृति ईरानी ने भी ट्विटर पर अपनी एक तस्वीर शेयर करते हुए लिखा था कि ‘मैं भारतीय बुनकरों का समर्थन करती हूं,भारतीय हथकरघा भारत की संस्कृति और विरासत की पहचान है। अपनी परंपराओं को आगे ले जाने के लिए इसे पहनिए और देश के तैंतालीस लाख बुनकरों और उनके परिवारों को समर्थन दीजिए।' यह सुखद है कि स्कूल से लेकर सोशल मीडिया तक एक बार फिर हमारी विरासत से जुड़े इस उद्योग को लेकर न केवल चर्चा हो रही है बल्कि इसे बढ़ावा देने के लिए आमजन रुचि भी दिखा रहे हैं।

ऐसी ही एक और पहल के तहत हाल ही में फैशन डिजाइन काउंसिल आॅफ इंडिया ने भी हथकरघा बुनकरों के कौशल का विकास करके उनके स्वदेशी शिल्प को और बेहतर बनाने के लिए हथकरघा विकास आयुक्त के साथ हाथ मिलाया है। वस्त्र मंत्रालय ने यह कदम हथकरघा उद्योग के पुनरुद्धार के लिए बनाई एक रणनीति के तहत उठाया है। नवाचार और तकनीकी मेल के साथ हथकरघा को बढ़ावा देने के लिए ऐसे प्रयास किए जाने आवश्यक भी हैं। पर इन्हें कितनी गंभीरता से आगे ले जाया जाएगा यह भी एक बड़ा सवाल है। क्योंकि इस क्षेत्र के उत्थान के लिए बनी कई योजनाएं और नीतियां अभी तक कुछ खास बदलाव नहीं ला पाई हैं। जबकि स्वदेशी भाव लिये आमजन को आत्मनिर्भर बनाने वाले इस उद्योग को सहेजने के लिए सार्थक प्रयास किए जाने जरूरी थे।

गौरतलब है कि हाथ से बुने वस्त्रों का हमारे देश के स्वतंत्रता आंदोलन में भी बहुत महत्त्व रहा। विशेषकर खादी तो उस दौर में भारत की आत्मनिर्भरता और आजादी की उम्मीद का प्रतीक थी। महात्मा गांधी ने 1920 के दशक में गांवों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए खादी के प्रति जन-जागरूकता लाने पर खूब जोर दिया था। भारत जैसे देश में जहां बेरोजगारी एक बड़ी समस्या है, हथकरघा उद्योग के प्रति सरकार और आमजन दोनों की उदासीनता दुखद है। क्योंकि यह उद्योग शहरी और ग्रामीण, दोनों क्षेत्रों में लाखों लोगों को प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार प्रदान करता है। हमारे देश में कृषि के बाद हथकरघा सबसे बड़े रोजगार प्रदाताओं में से एक है। भारत के प्राचीन और समृद्ध उद्योगों में से एक हैंडलूम एक लघु उद्योग के समान है। यह क्षेत्र 43.31 लाख लोगों को रोजगार प्रदान करता है, जिसमें से करीब 23.77 लाख व्यक्ति हथकरघा से जुड़े हैं। देश के हर हिस्से से कुछ खास तरह के उत्पाद जुड़े हैं जो राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान रखते हैं। यही कारण है कि भारत की सांस्कृतिक विरासत को सहेजे इस उद्योग से जुड़ा हर पहलू विचारणीय और चिंतनीय है।

करीब पांच साल पहले हथकरघा गणना में सामने आई बुनकरों की तस्वीर वाकई परेशान करने वाली है। इस गणना के मुताबिक बुनकरों की संख्या प्रतिवर्ष सात फीसद की दर से घट रही है। यही वजह है कि इनकी बेहतरी सरकार की प्राथमिकताओं में होनी चाहिए। अगर आंकड़ों के अनुसार तिरसठ लाख बुनकर हैं और बुरी स्थिति में भी करीब डेढ़ करोड़ लोगों को इससे रोजगार मिलता है (हमारे यहां अधिकतर बुनकर अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति, अति पिछड़े वर्ग व अल्पसंख्यक समुदाय से आते हैं) तो इस परंपरागत व्यवसाय को आगे बढ़ाने के लिए अनुकूल योजनाएं और सहयोग जरूरी है। अगर गंभीरता से सरकारी प्रयास किए जाएं तो हथकरघा उद्योग के माध्यम से जाने कितने ही लोगों को स्वावलंबी बनाया जा सकता है।
लेकिन समस्या यह है कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी जिस कौशल को हमारे हुनरमंद बुनकरों ने सहेज कर रखा है उसमें अब नई पीढ़ी कोई विशेष रुचि नहीं ले रही है। इसकी सबसे बड़ी वजह बुनकरों के लिए सहूलियतें न होना और जीवनयापन योग्य धन जुटाने में आने वाली मुश्किलें हैं। आमतौर पर ऐसे उत्पादों को तैयार करने में जितना श्रम और समय लगता है, बुनकरों को उसके मुताबिक मेहताना नहीं मिल पाता है। सच तो यह है कि अधिकतर बुनकर जीविकोपार्जन के लिए निरंतर संघर्ष कर रहे हैं। यही नहीं, कारीगरों के लिए काम करने की परिस्थितियां भी काफी तकलीफदेह हैं।

गौरतलब है कि अधिकतर हथकरघा कारीगरों को यह कला अपने पूर्वजों से विरासत में मिलती है। यही वजह है कि इसकी विशिष्टता पूरी दुनिया को लुभाती है। भारत में इस क्षेत्र जुड़े अधिकतर परिवारों के लिए यह पूर्णकालिक पारिवारिक व्यवसाय है। हथकरघा का काम करने वाले दूसरे देशों में श्रीलंका, नेपाल, बांग्लादेश, कंबोडिया और इंडोनेशिया आदि शामिल हैं, लेकिन इन देशों के उत्पादों की विभिन्नता भारत के मुकाबले काफी कम है। आंकड़े बताते हैं कि हमारे यहां यह क्षेत्र इतना विस्तृत है कि देश के वस्त्र उत्पादन में हथकरघा उद्योग करीब पंद्रह प्रतिशत का योगदान करता है और देश की निर्यात आय में भी इसकी बड़ी भागीदारी है।

सांस्कृतिक विभिन्नता और बुनकरों की बड़ी आबादी के बल पर भारत हथकरघा उत्पादों में दुनिया भर में न केवल एक विशिष्ट स्थान बना सकता है बल्कि वैश्विक मांग को पूरी करने की क्षमता भी रखता है। जरूरत है तो केवल इस बात की कि इस पारंपरिक उद्योग की मौलिकता को सहेजते हुए इसकी बेहतरी के लिए निर्यातक, बुनकर और व्यवस्थागत संस्थाएं मिलकर काम करें। साथ ही इस क्षेत्र की क्षमता और विशिष्टता को देखते हुए नवाचारों के बारे में भी सोचा जाना जरूरी है। हमारा देश में आज भी दो तिहाई आबादी गांवों में रहती है। ऐसे में हथकरघा जैसे उद्योगों को सहेजना आवश्यक है क्योंकि वहां एक बड़ी आबादी इन पर निर्भर है। ऐसे उद्योग सही अर्थों में हमारी अर्थव्यवस्था की रीढ़ हैं। इसीलिए यह चिंतनीय है कि हथकरघा उद्योग के प्रति जो उदासीनता है वो आने वाले समय में न केवल कई परिवारों का आर्थिक सहारा छीन लेगी बल्कि हमारी विरासत और संस्कृति के रंग भी फीके हो जाएंगे।

वैश्विक स्तर पर नए-नए बाजारों की तलाश और हथकरघा उद्योग से जुड़े लोगों को सशक्त बना कर एक बड़ा बदलाव लाया जा सकता है। ऐसे में नए सिरे से प्रयास किए जाने जरूरी हैं जो इस उद्योग और इससे जुड़े कारीगरों की बेहतरी की राह सुझाएं। इसी कड़ी में केंद्रीय वस्त्र मंत्रालय द्वारा हथकरघा और हस्तशिल्प को बढ़ावा देने के लिए जो कोशिशें की गई हैं वे भी रंग ला रही हैं। वर्ष 2015-2016 के दौरान हस्तशिल्प कारोबार में बीस प्रतिशत की वृद्धि हुई है। इस परंपरागत व्यवसाय को सहेजते हुए देश और इस उद्योग से जुड़े लोगों की खातिर बेहतरी की राहें खोलने के लिए प्रयास किए जाने आवश्यक हैं, न केवल सरकारी स्तर पर बल्कि आमजन को भी इन उत्पादों से जोड़ने की दरकार है।

यही वजह है कि हथकरघा उत्पादों को लोकप्रिय बनाने के लिए भी जन-जागरूकता लाना जरूरी है। ऐसी योजनाबद्ध कोशिशें करने की आवश्यकता है जिससे यह प्राचीन विरासत एक बार फिर से हमारे दैनिक जीवन में लौट आए। इसकी खपत में इजाफा हो और इस उद्योग को संजीवनी मिल सके। गौरतलब है कि पावरलूम के आने के बाद आमजन का मोह इन उत्पादों से घटा है, विशेषकर हाथ से बुने वस्त्रों से। ऐसे में इस तरह की मुहिम फिर से लोगों को हैंडलूम से जोड़ सकती है। बीते कुछ सालों में आर्थिक, सामाजिक और तकनीकी परिवर्तनों की बदौलत उपजी चुनौतियों का सामना करने के लिए हथकरघा उद्योग को भी नए डिजाइन और नई तकनीक जैसे ई-कॉमर्स का सहारा लेते हुए खुद को आगे बढ़ाना होगा। यह तालमेल इसे आज के दौर की मांग को पूरा करने और उत्पादों की पहुंच बढ़ाने में मददगार साबित हो सकता है।

हालांकि काफी पहले से भारतीय हथकरघा उद्योग की वैश्विक पहुंच है, पर सही नीतियों, योजनाओं और विपणन के अभाव में इसे उतना प्रतिफल नहीं मिल पा रहा जितना मिलना चाहिए। जबकि यह हमारी पारंपरिक संपदा है जिसे सहेज रहे बुनकरों को प्रोत्साहन और सुविधाएं उपलब्ध कराना सरकार की जिम्मेदारी बनती है। यह विचारणीय प्रश्न है कि क्यों हमारे देश के बुनकर जिनके कपड़ों की ख्याति प्राचीन भारत से लेकर अंग्रेजों के आने तक दुनिया भर में थी, उनकी नई पीढ़ियां इस काम से कोताही बरतने लगी हैं? क्या उनकी इस बेचारगी के लिए हमारी सरकारी नीतियां दोषी नहीं हैं?

बुनकरों के लिए आजादी के बाद भी कुछ विशेष नहीं किया गया। जबकि आजादी के संघर्ष के दौरान खादी को मिला जन-समर्थन अप्रत्यक्ष रूप से ऐसे लोगों का समर्थन ही था जो खादी के परिधान बुन कर आमजन के स्वदेशी होने का भाव जीवित रखे हुए थे, आत्मनिर्भर होने की आस बचाए हुए थे। कैसी विडंबना है कि भारत आज भी दुनिया का सबसे बड़ा हस्तनिर्मित कपड़ा उत्पादक देश तो है लेकिन अरसे से सरकारी उपेक्षा के चलते हथकरघा क्षेत्र आज बदहाली के कगार पर आ पहुंचा है। इसीलिए इस उद्योग को स्थायी प्रोत्साहन देने के लिए जरूरी है कि आधारभूत ढांचे को बेहतर बनाया जाए। सार्थक नीतियां, कार्यशील पूंजी और जरूरी रियायतें देकर सरकार हथकरघा उद्योग को संबल दे, साथ ही आमजन को भी हस्तशिल्प और हथकरघा उद्योग को बढ़ावा देने के लिए इनके उत्पादों में अधिक से अधिक रुचि लेनी चाहिए।