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कम नहीं चुनाव आयोग की शक्तियां- नवीन चावला

भारत में जाति पर बहस राजनीतिक परिणामों की एक निर्धारक है। यह वर्ष 2019 के आम चुनाव सहित भारत में तमाम चुनावों की एक रोचक विशिष्टता है। यह ऐसी निर्धारक है कि मतदाताओं के बीच अति लोकप्रिय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी चुनाव अभियान में अपनी जातिगत पहचान बतानी पड़ती है। उत्तर और केंद्रीय भारत की ज्यादातर क्षेत्रीय पार्टियों को किसी जाति या बिरादरी विशेष के लिए पहचाना जाता है। यहां तक कि मुख्यधारा की पार्टियां- भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस भी इससे अछूती नहीं हैं, जब प्रत्याशी चयन या गठबंधन की बात आती है, तो ये पार्टियां भी जाति को ध्यान में रखकर निर्णय लेने लगती हैं।

अपने देश में धार्मिक आधार पर वोट मांगने पर पाबंदी है, लेकिन जातिगत पहचान बताकर वोट बटोरने पर कोई पाबंदी नहीं है। यह बोलना अपरिपक्वता होगी कि जाति ने निर्णायक घटक के रूप में वर्ग की जगह ले ली है, लेकिन यह तो कहना ही होगा कि चुनावी बहस में जाति का मुद्दा हावी रहता है। यह आश्चर्यजनक है कि सात दशकों की आजादी, तेज आर्थिक विकास और वंचित समूहों को आगे लाने के सकारात्मक प्रयासों के बावजूद जाति की बेड़ियां नहीं टूट पाई हैं। यह केवल ग्रामीण इलाकों की सच्चाई नहीं है, ऐसा शहरी इलाकों में भी हो रहा है। प्रत्याशियों को अपनी जाति बताने के लिए मजबूर होना पड़ता है। राजनीतिक वर्ग के रूप में जाति के बने रहने का एक कारण यह भी है कि विगत तीन दशकों में हमारे समाज में असमानता की स्थिति बढ़ी है।

देश को आजादी मिलने के बाद विकास की जो प्रक्रिया है और विशेष रूप से 1991 के बाद आर्थिक उदारीकरण का जो दौर है, उसने अनेक क्षेत्रों में असमानता को बढ़ाया है। जो लोग विकास की दौड़ में पीछे छूट गए हैं, उनमें घिर जाने का भाव आ गया है। इसके कारण वंचित समूहों में अलग राज्य और आरक्षण की मांग तेज होने लगी है। यह सच है कि अपने देश में जाति हावी है और वर्ग आधारित राजनीतिक ध्रुवीकरण का अभाव है। जाति और वर्ग के बीच पर्याप्त घालमेल है। जाति की भूमिका को समझने में नाकामी की वजह से ही उत्तर भारत में वाम पार्टियों की भूमिका सिमट चुकी है। यहां यह पूछना महत्वपूर्ण होगा कि वर्ग आधारित गठजोड़ जाति आधारित गठजोड़ की तरह कारगर सिद्ध क्यों नहीं हो पा रहा? किसानों के गठजोड़ हों या श्रमिकों के, ऐसे वर्ग गठजोड़ सफल नहीं हो पा रहे। ऐसा शायद इसलिए भी है कि पिछले कुछ समय से कृषि संकट लगातार बरकरार है। शायद बेरोजगारी, खराब होते कामकाजी माहौल और स्थिर कमाई के चलते ही श्रमिकों या कामगारों के बीच धुु्रवीकरण नहीं हो पा रहा है। ऐसा भी नहीं है कि श्रम के आधार पर कोई धु्रवीकरण न हुआ हो। पिछले दो वर्षों में अनेक किसान आंदोलन देखे गए हैं, कई जगहों पर किसान एकजुटता देखी गई है। श्रमिकों में भी कहीं-कहीं एकजुटता देखी गई हैं, लेकिन ये सब किसी राजनीतिक धु्रव या संगठन के रूप में उभरने में विफल रहे हैं।

यहां तक कि सड़कों पर आरक्षण की मांग कर रहे युवाओं को भी जातिगत आधार पर ही एकजुट होते देखा गया है। यहां हम जाट की बात करें या पटेल या मराठा की। जो लोग पहले से ही अनुसूचित जाति या अनुसूचित जनजाति या अन्य पिछड़ा वर्ग में शामिल हैं, उनके बीच भी एकजुटता की कोशिश मात्र इसलिए है कि आरक्षण व्यवस्था को अपने हित में कैसे और मजबूत किया जा सके। यहां जाति के आर-पार कोई आर्थिक मुद्दा किसी तरह की एकजुटता बनाता नजर नहीं आता। उनकी राजनीतिक एकजुटता में कृषि संकट और बेरोजगारी जैसे आर्थिक मुद्दों की अनुपस्थिति चौंकाती है।

अपने देश में आर्थिक विकास की जो प्रकृति है, उसकी वजह से भी यह लगता है कि जाति आने वाले समय में भी राजनीतिक धु्रवीकरण में निर्धारक बनी रहेगी। भारतीय अर्थव्यवस्था की प्रकृति बदल रही है। अनौपचारिक रोजगार पर फोकस करने के लिए नेटवर्क और बाजार तक पहुंच बढ़ाने की जरूरत है, लेकिन ये महत्वपूर्ण कार्य वंचितों के लिए सरकार के सकारात्मक प्रयासों और आरक्षण के दायरे से बाहर है। यह भी सच है कि निजी क्षेत्र में आरक्षण या वंचितों को लाभ पहुंचाने का कोई प्रावधान नहीं है। ऐसे में, अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा असमानता और शोषण की स्थितियों को बढ़ावा दे रहा है। तीन दशकों के आर्थिक सुधार के बावजूद निजी क्षेत्र में वंचित समूहों को मामूली प्रतिनिधित्व प्राप्त है। वंचित तबकों की नजर में नई अर्थव्यवस्था में विकास की प्रक्रिया में शामिल होने के लिए राजनीतिक सत्ता तक पहुंचना ही अकेला रास्ता है। राजनीतिक सत्ता में आज भी नेटवर्क और संरक्षण की पुरानी शैली काम कर रही है। यह स्थिति संगठित क्षेत्र की तुलना में अनौपचारिक क्षेत्र में ज्यादा है। पुराने संभ्रांतों की वर्चस्व वाली व्यवस्था में ऋण, बाजार और पूंजी तक पहुंच को सुनिश्चित करने में जातिगत नेटवर्क ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसी प्रक्रिया में उन जाति समूहों के नए नेटवर्क खडे़ हो गए हैं, जिनके पास राजनीतिक सत्ता है। इसने जाति आधारित राजनीतिक एकीकरण की नई प्रक्रिया को जन्म दिया है। अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य पिछड़ा वर्ग में जाति आधारित बडे़ राजनीतिक समूह बन चुके हैं।

छोटे जाति समूहों को भी अपनी-अपनी राजनीतिक पार्टियों के जरिए प्रतिनिधित्व मिलने लगा है। उत्तर प्रदेश में अपना दल, सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी, निषाद पार्टी और बिहार में कुशवाहा, सहनी और मांझी उप-जातियों की भी अपनी राजनीतिक पार्टियां खड़ी हो गई हैं। इससे राजनीतिक परिदृश्य और खंडित हुआ है। इन पार्टियों का फोकस जाति या उपजाति को राजनीतिक और सीमित आर्थिक प्रतिनिधित्व दिलाना है। बडे़ आर्थिक मुद्दों के मामले में उनकी खास सोच नहीं है और वे इस मामले में वर्तमान व्यवस्था पर निर्भर हैं। आने वाले समय में आर्थिक संसाधनों और राजनीतिक सत्ता में अपना हिस्सा मांगने वाली पार्टियों की संख्या बढ़ेगी। इस प्रक्रिया में वे नेटवर्क और संरक्षण की उसी मौजूदा व्यवस्था को सशक्त करेंगी, जिसे बदलने की जरूरत है।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)